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४ / विशिष्ट निबन्ध : ८५
इसी समन्वय दृष्टिसे वह पदार्थोंके विभिन्न रूपों का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनुस्यूत परम तत्त्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी दृष्टिको ध्यान में रखकर शंकराचार्यने इस 'स्याद्वाद' का मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाष्य (२, २, ३३ ) में प्रबल युक्तियोंके सहारे किया है ।" पर उपाध्यायजी, जब आप स्यात्का अर्थ निश्चित रूपसे 'संशय' नहीं मानते, तब शंकराचार्य के खण्डनका मार्मिकत्व क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व० महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झाके इन वाक्योंको देखें- 'जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्तका खंडन पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है जिसे वेदान्तके आचार्योंने नहीं समझा ।" श्री फणिभूषण अधिकारी तो और स्पष्ट लिखते हैं कि- "जैनधर्मके स्याद्वाद सिद्धान्तको जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं । यहाँ तक कि शंकरा - चार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं । उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया है । यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए क्षम्य हो सकती थी । किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मैं भारतके इस महान् विद्वान् के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ । ऐसा जान पड़ता है उन्होंने इस धर्मके दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थोंके अध्ययनकी परवाह नहीं की ।"
जैनदर्शन स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार वस्तुस्थितिके आधारसे समन्वय करता है । जो धर्म वस्तु विद्यमान हैं उन्हींका समन्वय हो सकता है । जैनदर्शनको आप वास्तव बहुत्ववादी लिख आये हैं । अनेक स्वतन्त्र सत् व्यवहार के लिए सद्रूपसे एक कहे जायँ, पर वह काल्पनिक एकत्व वस्तु नहीं हो सकता ? यह कैसे सम्भव है कि वेतन और अचेतन दोनों ही एक सत्के प्रातिभासिक विवर्त हों ।
जिस काल्पनिक समन्वयकी ओर उपाध्यायजी संकेत करते हैं उस ओर भो जैन दार्शनिकोंने प्रारम्भसे ही दृष्टिपात किया है । परम संग्रहनयकी दृष्टिसे सद्रूपसे यावत् चेतन-अचेतन द्रव्योंका संग्रह करके 'एक सत्' इस शब्दव्यवहारके होनेमें जैन दार्शनिकोंको कोई आपत्ति नहीं है। सैकड़ों काल्पनिक व्यवहार होते हैं, पर इससे मौलिक तत्त्वव्यवस्था नहीं की जा सकती ? एक देश या एक राष्ट्र अपनेमें क्या वस्तु है ? समयसमयपर होनेवाली बुद्धिगत दैशिक एकताके सिवाय एकदेश या एकराष्ट्रका स्वतन्त्र अस्तित्व ही क्या है ? अस्तित्व जुदा-जुदा भूखण्डोंका अपना है । उसमें व्यवहारकी सुविधाके लिए प्रान्त और देश संज्ञाएँ जैसे काल्पनिक हैं, व्यवहारसत्य है, उसी तरह एक सत् या एक ब्रह्म काल्पनिकसत् होकर व्यवहारसत्य बन सकता है और कल्पनाकी दौड़का चरम बिन्दु भी हो सकता है पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थसत् होना नितान्त असम्भव है । आज विज्ञान एटम तकका विश्लेषण कर चुका है और सब मौलिक अणुओंकी पृथक् सत्ता स्वीकार करता है । उनमें अभेद और इतना बड़ा अभेद जिसमें चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि सभी लीन हो जायँ कल्पनासाम्राज्यकी अन्तिम कोटि है । और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न माननेके कारण यदि जैनदर्शनका स्याद्वाद सिद्धान्त आपको मूलभूत तत्त्वके स्वरूप समझाने में नितान्त असमर्थ प्रतीत होता है तो हो, पर वह वस्तुसीमाका उल्लंघन नहीं कर सकता और न कल्पनालोककी लम्बी दौड़ ही लगा सकता है।
स्यात् शब्दको उपाध्यायजी संशयका पर्यायवाची नहीं मानते यह तो प्रायः निश्चित है क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं ( पृ० १७३ ) कि - " यह अनेकान्तवाद संशयवादका रूपान्तर नहीं है; " पर आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते हैं । परन्तु स्यात्का अर्थ 'संभवतः ' करना भी न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि संभावना संशय में जो कोटियाँ उपस्थित होती हैं उनकी 'अर्धनिश्चितता' की ओर संकेतमात्र है, निश्चय उससे भिन्न ही है । उपाध्यायजी स्याद्वादको संशयवाद और निश्चयवादके बीच संभावनावादकी जगह रखना
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