Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 28
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १०१ कारिका नं० २८३ के ५ पूर्वार्ध के बाद "चित्रचत्तविचित्रा भदृष्टभङ्गप्रसङ्गतः । स नैकः सर्वथा श्लेषात् नानेको भेदरूपतः ।" यह कारिका और होनी चाहिए । कारिका नं० ३७२ का " पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः" यह उत्तरार्ध मूलका नहीं है । कारिका नं० ४३१ के बाद "ततः शब्दार्थयोर्नास्ति सम्बन्धोऽपौरुषेयकः " यह कारिकार्ध और होना चाहिए । कारिका नं० ४७५ के बाद " प्रमा प्रमितिहेतुत्वात् प्रामाण्यमुपगम्यते" यह कारिकार्ध और होना चाहिए । अतः अकलङ्क ग्रन्थत्रयगत न्यायविनिश्चयके अङ्क अनुसार संपूर्ण ग्रन्थ में ४८० ॥ कारिकाएँ फलित होती हैं । न्यायविनिश्चयविवरण - न्यायविनिश्चयके पद्य भागपर प्रबलतार्किक स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरिकृत तात्पर्यविद्योतिनी व्याख्यानरत्नमाला उपलब्ध है । जिसका नाम ' न्यायविनिश्चय-विवरण है, जैसा कि वादिराजकृत इस इलोकसे प्रकट है "प्रणिपत्य स्थिरभक्त्या गुरून् परानष्युदारबुद्धिगुणान् । न्यायविनिश्चयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ॥ " लघीयस्त्रयकी तरह न्यायविनिश्चयविवरण ( प्रथमभाग पृ० २२९ ) में आए हुए 'वृत्तिमध्यवर्तित्वात्', 'वृत्तिचूर्णीनां तु विस्तारभयान्नास्माभिर्व्याख्यानमुपदर्श्यते' इन अवतरणोंसे स्पष्ट है कि न्यायविनिश्चयपर अकलङ्कदेवकी स्ववृत्ति अवश्य रही है । वृत्तिके मध्य में भी श्लोक थे जो अन्तरश्लोकके नामसे प्रसिद्ध थे । इसके सिवाय वृत्तिके द्वारा प्रदर्शित मूलवार्तिक के अर्थको संग्रह करनेवाले संग्रहश्लोक भी थे । वादिराजसूरिने जिन ४८० || श्लोकों का व्याख्यान विवरणमें किया है उनमें अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोक भी शामिल हैं । कितने संग्रहश्लोक हैं और कितने अन्नरश्लोक, इसका ठीक निर्णय बादमें हो सकेगा । पर वादिराजसूरिने वृत्ति या चूर्णिगत सभी श्लोकोंका व्याख्यान नहीं किया । पृ० ३०१ में ' तथा च सूक्तं चूर्णो देवस्य वचनम्' इस उत्थान - वाक्यके साथ "समारोपन्यवच्छेदात् " आदि श्लोक उद्धृत है । यदि वादिराजसूरि न्यायविनिश्चयकी स्ववृत्तिको ही चूर्णिशब्दसे कहते हैं तो कहना होगा कि आपने वृत्ति या चूर्णिगत सभी श्लोकोंका व्याख्यान नहीं किया, क्योंकि 'समारोपव्यवच्छेदात्' श्लोक मूलमें शामिल नहीं किया गया है । १. परम्परागत प्रसिद्धि के अनुसार इसका नाम न्यायकुमुदचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रोदयकी तरह न्यायविनिश्चयालङ्कार रूढ हो गया है । परन्तु वस्तुतः वादिराजके उक्त इलोकगत उल्लेखानुसार इसका मुख्य आख्यान न्यायविनिश्चयविवरण है; दूसरे शब्दों में इसे तात्पर्यावद्योतिनी व्याख्यान रत्नमाला भी कह सकते हैं | पर न्यायविनिश्चयालङ्कार नामका समर्थन किसी भी प्रमाणसे नहीं होता । पं० परमानन्दजी शास्त्री, सरसावाने इसका न्यायविनिश्चयालङ्कार नाम भी मानकर इसके 'प्रमाण निर्णय से पहिले रचे जानेके सम्बन्ध में प्रमाण निर्णय ( पृ० १६ ) गत यह अवतरण एकीभावस्तोत्र की प्रस्तावना ( पृ० १५ ) में उपस्थित किया है"अत एव परामर्शात्मकत्वं स्पाष्टय मेव मानसप्रत्यक्षस्य प्रतिपादितमलङ्कारे - इदमित्यादि यज्ज्ञानमभ्यासात् पुरतः स्थिते । साक्षात्करणतस्तत्र प्रत्यक्षं मानसं मतम् ॥” परन्तु इस अवतरण में 'अलङ्कार' शब्द से न्यायविनिश्चयालङ्कार इष्ट नहीं है, क्योंकि यह श्लोक वादिराजसूरि के न्यायविनिश्चयविवरणका नहीं है, किन्तु प्रज्ञाकरगुप्तकृत प्रमाणवार्तिकालङ्कार ( लिखित पृ० ४ ) का है, और इसे वादिराजने न्यायविनिश्चयविवरण ( पृ० ११९ ) में पूर्वपक्षरूपसे उद्धृत किया है । वादिराज ने स्वयं न्यायविनिश्चयविवरण में बीसों जगह प्रमाणवार्तिकालङ्कारका 'अलङ्कार' नामसे उल्लेख किया है । अतः न्यायविनिश्चयविवरणका न्यायविनिश्चयालङ्कार नाम निर्मूल है और मात्र श्रुतिमाधुर्य निमित्त ही प्रचलित हो गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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