Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविनिश्चय और उसका विषय विवेचन वर्शन संसारके यावत चर-अचर प्राणियोंमें मनुष्यकी चेतना सविशेष विकसित है। उसका जीवन अन्य प्राणियोंकी तरह केवल आहार, निद्रा, रक्षण और प्रजननमें ही नहीं बीतता किन्तु वह अपने स्वरूप, मरणोत्तर जीवन, जड़ जगत, उससे अपने सम्बन्ध आदिके विषयमें सहज गतिसे मनन-विचार करनेका अभ्यासी है। सामान्यतः उसके प्रश्नोंका दार्शनिक रूप इस प्रकार है-आत्मा क्या है ? परलोक है या नहीं ? यह जड़ जगत् क्या है ? इससे आत्माका क्या सम्बन्ध है ? यह जगत् स्वयं सिद्ध है या किसी चेतन शक्तिसे समत्पन्न है ? इसकी गतिविधि किसी चेतनसे नियन्त्रित है या प्राकृतिक साधारण नियमोंसे आबद्ध ? क्या सत उत्पन्न हआ ? क्या किसी सतका विनाश हो सकता है ? इत्यादि प्रश्न मानव जातिके आदिकालसे बराबर उत्पन्न होते रहे हैं और प्रत्येक दार्शनिक मानस इसके समाधानका प्रयास करता रहा है। ऋग्वेद तथा उपनिषत्-कालीन प्रश्नोंका अध्ययन इस बातका साक्षी है । दर्शनशास्त्र ऐसे ही प्रश्नोंके सम्बन्धमें ऊहापोह करता आया है। प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थकी व्याख्या में मतभेद हो सकता है पर स्वरूप उसका विवादसे परे है किन्तु परोक्ष पदार्थकी व्याख्या और स्वरूप दोनों ही विवादके विषय हैं। यह ठीक है कि दर्शनका इन्द्रियगम्य और इन्द्रियातीत दोनों प्रकार के पदार्थ हैं। पर मख्य विचार यह है कि दर्शनको परिभाषा क्या है ? उसका वास्तविक अर्थ क्या है ? वैसे साधारणतया दर्शनका मुख्य अर्थ साक्षात्कार करना होता है । वस्तुका प्रत्यक्ष ज्ञान ही दर्शनका मुख्य अभिधेय है। यदि दर्शनका यही मुख्य अर्थ हो तो दर्शनोंमें भेद कैसा ? किसी भी पदार्थका वास्तविक पूर्ण प्रत्यक्ष दो प्रकारका नहीं हो सकता । अग्निका प्रत्यक्ष गरम और ठण्डेके रूपमें दो तरहसे न अनुभवगम्य है और न विश्वासयोग्य ही। फिर दर्शनोंमें तो पग-पगपर परस्पर विरोध विद्यमान है। ऐसी दशामें किसी भी जिज्ञासुको यह सन्देह स्वभावतः होता है कि जब सभी दर्शन-प्रणेता ऋषियोंने तत्त्वका साक्षाद्दर्शन करके निरूपण किया है तो उनमें इतना मतभेद क्यों है? या तो दर्शन शब्दका साक्षात्कार अर्थ नहीं है या यदि यही अर्थ है तो वस्तुके पूर्ण स्वरूपका वह दर्शन नहीं है या वस्तुके पूर्ण स्वरूपका दर्शन भी हुआ हो तो उसके प्रतिपादनकी प्रक्रियामें अन्तर है ? दर्शनके परस्पर विरोधका कोई-न-कोई ऐसा ही हेतु होना चाहिये । दूर न जाइये, सर्वतः सन्निकट आत्माके स्वरूपपर ही दर्शनकारों के साक्षात्कारपर विचार कीजिये-सांख्य आत्माको कूटस्थ नित्य मानते हैं। इनके मतसे आत्माका स्वरूप अनादि अनन्त अविकारी नित्य है। बौद्ध इसके विपरीत प्रतिक्षण परिवर्तित ज्ञानक्षणरूप ही आत्मा मानते हैं। नैयायिक-वैशेषिक परिवर्तन तो मानते हैं, पर वह गणों तक ही सीमित है। मीमांसकने आत्मामें अवस्थाभेदकृत परिवर्तन स्वीकार करके भी द्रव्य नित्य स्वीकार किया है। योगदर्शनका भी यही अभिप्राय है। जैनोंने अवस्थाभेदकृत परिवर्तनके मूल आधार द्रव्यमें परिवर्तनकालमें किसी भी अपरिवर्तिष्णु अंशको स्वीकार नहीं किया; किन्तु अविच्छिन्न पर्याय-परम्पराके चाल रहनेको ही द्रव्यस्वरूप माना है। चार्वाक इन सव पक्षोंसे भिन्न भूतचतुष्टयरूप ही आत्मा मानता है। उसे आत्माके स्वतन्त्र द्रव्यके रूप में दर्शन नहीं हुए। यह तो हुई आत्माके स्वरूपकी बात। उसकी आकृतिपर विचार कीजिये तो ऐसे ही अनेक दर्शन मिलते है । आत्मा अमूर्त है या मर्त होकर भी इतना सूक्ष्म है कि वह हमारे चर्मचक्षओंसे नहीं दिखाई दे सकता इसमें किसीको विवाद नहीं है। इसलिए अतीन्द्रियदर्शी कुछ ऋषियोंने अपने दर्शनसे बताया कि आत्मा सर्वव्यापक है । दूसरे ऋषियोंको दिखा कि आत्मा अणरूप है, वटबीजके समान अति सूक्ष्म है । कुछ को दिखा कि देहरूप ही आत्मा है तो किन्हींने छोटे-बड़े शरीर-प्रमाण संकोच Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ७५ विकासशील आत्माका आकार बताया। विचारा जिज्ञासु अनेक पगडण्डियोंवाले इस शतराहेपर खड़ा होकर दिग्भ्रान्त हआ या तो दर्शन शब्दके अर्थपर ही शंका करता है या फिर दर्शनकी पूर्णतामें ही अविश्वास करनेको उसका मन होता है। प्रत्येक दर्शनकार यही दावा करता है कि उसका दर्शन पूर्ण और यथार्थ है। एक ओर मानवकी मननशक्तिमलक तकको जगाया जाता है और जब तर्क अपने यौवनपर आता है तभी रोक दिया जाता है और तर्कोऽप्रतिष्ठः' 'तर्काप्रतिष्ठानात्' जैसे बन्धनोंसे उसे जकड़ दिया जाता है। 'तर्कसे कुछ होने जानेवाला नहीं है' इस प्रकारके नर्कनैराश्यवादका प्रचार किया जाता है। आचार्य हरिभद्र अपने लोकतत्त्वनिर्णयमें स्पष्टरूपसे अतीन्द्रिय पदार्थों में तर्ककी निरर्थकता बताते है "ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः। कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्थनिर्णयः॥" अर्थात्-यदि तर्कवादसे अतीन्द्रिय पदार्थोके स्वरूप-निर्णयकी समस्या हल हो सकती होती, तो इतना मय बीत गया, बडे-बडे तर्कशास्त्री तर्ककेशरी हए. आज तक उनने इनका निर्णय कर दिया होता । पर अतीन्द्रिय पदार्थोके स्वरूपज्ञानकी पहेली पहिलेसे अधिक उलझी हुई है। जय हो उस विज्ञानकी जिसने भौतिक तत्त्वोंके स्वरूपनिर्णयकी दिशामें पर्याप्त प्रकाश दिया है। दूसरी ओर यह घोषणा की जाती है कि "तापात् छेदात् निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः। परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न त्वादरात् ॥" अर्थात्-जैसे सोनेको तपाकर, काटकर, कसौटीपर कसकर उसके खोटे-खरेका निश्चय किया जाता है उसी तरह हमारे वचनोंको अच्छी तरह कसौटीपर कसकर उनका विश्लेषणकर उन्हें ज्ञानाग्निमें तपाकर ही स्वीकार करना केवल अन्धश्रद्धासे नहीं । अन्धी श्रद्धा जितनी सस्ती है उतनी शीघ्र प्रतिपातिनी भी। तब दर्शन शब्दका अर्थ क्या हो सकता है ? इस प्रश्नके उत्तरमें पहिले ये विचार आवश्यक है कि-ज्ञान' वस्तुके पूर्णरूपको जान सकता है या नहीं ? यदि जान सकता है तो इन दर्शन-प्रणेताओंको पूर्ण ज्ञान था या नहीं? यदि पूर्ण ज्ञान था तो मतभेदका कारण क्या है ? १. ज्ञान-जीव चैतन्यशक्तिवाला है। यह चैतन्यशक्ति जब बाह्य वस्तुके स्वरूपको जानती है तब ज्ञान कहलाती है। इसीलिए शास्त्रोंमें ज्ञानको साकार बताया है। जब चैतन्यशक्ति ज्ञेयको न जानकर स्वचैतन्याकार रहती है तब उस निराकार अवस्थामें दर्शन कहलाती है। अर्थात् चैतन्यशक्तिके दो आकार हए एक ज्ञेयाकार और दूसरा चैतन्याकार । ज्ञेयाकार दशाका नाम ज्ञान और चैतन्याकार दशाका नाम दर्शन है। चैतन्यशक्ति काँचके समान स्वच्छ और निर्विकार है । जब उस काँचको पीछे पारेकी कलई करके इस योग्य बना दिया जाता है कि उसमें प्रतिबिम्ब पड़ सके तब उसे दर्पण कहने लगते हैं। जब तक काँचमें कलई लगी हई है तब तक उसमें किसी न किसी पदार्थके प्रतिबिम्बकी सम्भावना है। यद्यपि प्रतिबिम्बाकार परिणमन काँचका ही हुआ है पर वह परिणमन उसका निमित्तजन्य है। उसी तरह निर्विकार चितिशक्तिका ज्ञेयाकार परिणमन जिसे हम ज्ञान कहते हैं मन, शरीर, इन्द्रिय आदि निमित्तोंके आधीन है या यों कहिये कि जब तक उसकी बद्ध दशा है तब तक बाह्य निमित्तोंके अनुसार उसका ज्ञेयाकार परिणमन होता रहता है। जब अशरीरी सिद्ध अवस्थामें जीव पहुँच जाता है तब सकल उपाधियोंसे शन्य होनेके कारण उसका ज्ञेयाकार परिणमन न होकर शुद्ध चिदाकार परिणमन रहता है। इस विवेचनका संक्षिप्त तात्पर्य यह है Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ १. शुद्ध काँच १. मुक्त जीवका चेतन्य, शुद्ध चिन्मात्र २. कलई लगा हुआ काँच-दर्पण ( प्रतिबिम्ब रहित). २. सशरीरी संसारी जीवका चैतन्य, पर ज्ञेयाकार शन्य, दर्शनावस्था निराकार ३. सप्रतिबिम्ब दर्पण ३. ज्ञेयाकार, साकार, ज्ञानावस्था इस तरह चैतन्यके दो परिणमन-एक निर्विकार अबद्ध अनन्त शुद्ध चैतन्यरूप मोक्षावस्थाभावी और दूसरा शरीर कर्म आदिसे बद्ध सविकारी सोपाधिक संसारावस्थाभावी । संसारावस्थाभावी चैतन्यके दो परिणमन एक सप्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह ज्ञेयाकार और दूसरा निष्प्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह निराकार । ज्ञेयाकार परिणमनका नाम ज्ञान तथा निराकार परिणमनका नाम दर्शन । तत्त्वार्थराजवातिकमें-जीवका लक्षण उपयोग किया है और उपयोगका लक्षण इस प्रकार दिया है ___"बाह्याभ्यन्तरहेतुद्वयसन्निधाने यथासंभवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः।" (त० वा० २१८ ) अर्थात-उपलब्धाको ( जिस चैतन्यमें पदार्थोके उपलब्ध अर्थात ज्ञान करनेकी योग्यता हो) दो प्रकारके बाह्य तथा दो प्रकारके अभ्यन्तर हेतुओंके मिलनेपर जो चैतन्यका अनुविधान करनेवाला परिणमन होता है उसे उपयोग कहते हैं । इस लक्षणमें आए हुए 'उपलब्धुः' और 'चैतन्यानुविधायी' ये दो पद विशेष ध्यान देने योग्य है । चैतन्यानुविधायी पद यह सूचना दे रहा है कि जो ज्ञान और दर्शन परिणमन बाह्याभ्यन्तर हेतुओंके निमित्तसे हो रहे हैं वे स्वभावभूत चैतन्यका अनुविधान करनेवाले हैं अर्थात् चैतन्य एक अनुविधाता द्रव्यांश है और उसके ये बाह्याभ्यन्तर हेत्वधीन परिणमन है। चैतन्य इनसे भी परे शुद्ध अवस्थामें शुद्ध परिणमन करनेवाला है। 'उपलब्धुः' पद चतन्यकी उस दशाको सूचित करता है चैतन्यमें बाह्याभ्यान्तर हेतुओंसे निराकार या साकार होनेकी योग्यता होती है और वह अवस्था अनादिकालसे कर्मबद्ध होनेके कारण अनादिसे ही है। तात्पर्य यह कि अनादिसे कर्मबद्ध होने के कारण चैतन्य-काँचमें वह कलई लगी है जिससे वह दर्पण बना है इसीमें बाह्याभ्याकार हेतुओंके अधीन निराकार और साकार परिणमन होते रहते है जिन्हें क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहते हैं। पर अन्तमें मुक्त अवस्थामें जब सारी कलई धुल जाती है विशुद्ध निर्विकार निर्विकल्प अनन्त अखण्ड चैतन्यमात्र रह जाता है तब उसका शुद्ध चिद्रप ही परिणमन होता है । ज्ञान और दर्शन परिणमन बाह्याधीन है । उसमें ज्ञान और दर्शनका विभाग ही विलीन हो जाता है। . तत्त्वार्थराजवातिक ( १।६ ) में घटके स्वपरचतुष्टयका विचार करते हुए अन्तमें घटज्ञानगत ज्ञेयाकारको घटका स्वात्मा बताया है और निष्प्रतिबिम्ब ज्ञानाकारको परात्मा । यथा ___ "चैतन्यशक्ती आकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकारः, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादशंतलवत् ज्ञेयाकारः" इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि चैतन दो परिणमन होते है-ज्ञेयाकार और ज्ञानाकार । राजवार्तिकमें ज्ञेयाकार परिणमन उसका साकार परिणमन है तथा ज्ञानाकार परिणमन निराकार । जब तक ज्ञेयाकार परिणमन है तब तक वह वास्तविक अर्थमें ज्ञानपर्यायको धारण करता है और निर्जयाकार दशामें दर्शन पर्यायको । धवला टीका ( पु० १, पृ० १४८ ) और ह ( पृ० ८१-८२ ) में सौद्धान्तिक दृष्टिसे जो दर्शनकी व्याख्या की है उसका तात्पर्य भी यही है कि-विषय और विषयीके सन्निपातके पहिले जो चैतन्यकी निराकार परिणति या स्वाकार परिणति है उसे दर्शन कहते हैं। राजवार्तिकमें चैतन्यशक्तिके जिस ज्ञानाकारकी चरचा है वह वास्तविकमें दर्शन ही है। इस विवेचनसे इतना तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि-चैतन्यकी एक धारा है जिसमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ७७ संसारके समस्त पदार्थ ज्ञेय अर्थात् ज्ञानके विषय होने योग्य हैं तथा ज्ञान पर्यायमें ज्ञेयके जाननेकी योग्यता है, प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्म जब हट जाता है तब वस्तुके पूर्ण स्वरूपका भान ज्ञान पर्यायके द्वारा अवश्यम्भावी है । ज्ञान पर्यायकी उत्पत्तिका जो क्रम टिप्पणीमें दिया है उसके अनुसार भी जिस-किसी वस्तुके पूर्णरूप तक ज्ञानपर्याय पहुँच सकती है यह निर्विवाद है। जब ज्ञान वस्तुके अनन्तधर्मात्मक विराट स्वरूपका यथार्थ ज्ञान कर सकता है और यह भी असम्भव नहीं है कि किसी आत्मामें ऐसी ज्ञान पर्यायका विकास हो सकता है, तब वस्तुके पूर्ण रूपके साक्षात्कार विषयकप्रश्नका समाधान हो ही जाता है । अर्थात् विशुद्ध ज्ञानमें वस्तुके विराट स्वरूपकी झाँकी आ सकती है। और ऐसा विशद्ध ज्ञान तत्त्वद्रष्टा ऋषियोंका रहा होगा। परन्तु वस्तुका जो स्वरूप ज्ञानमें झलकता है उस सबका शब्दोंसे कथन करना असम्भव है क्योंकि शब्दोंमें वह शक्ति नहीं है जो अनुभवको अपने द्वारा जता सके। सामान्यतया यह तो निश्चित है कि वस्तुका स्वरूप ज्ञान ज्ञेय तो है। जो भिन्न-भिन्न ज्ञाताओंके द्वारा जाना जा सकता है वह एक ज्ञाताके द्वारा भी निर्मल ज्ञानके द्वारा जाना जा सकता है। तात्पर्य यह कि वस्तुका अखण्ड अनन्तधर्मात्मक विराट्स्वरूप अखण्ड रूपसे ज्ञानका विषय तो बन जाता है और तत्त्वज्ञ ऋषियोंने अपने मानसज्ञान और योगिज्ञानसे उसे जाना भी होगा । परन्तु शब्दोंको सामर्थ्य इतनी अत्यल्प' है कि जाने हुए वस्तुके धर्मोमें अनन्त बहुभाग तो अनभिधेय हैं अर्थात् शब्दसे कहे ही नहीं जा सकते । जो कहे जा सकते हैं उनका अनन्तवा भाग ही प्रज्ञापनीय अर्थात् दूसरोंके लिए समझाने लायक होता है । जितना ध्रौव्यात्मक परिणमन होता रहता है और जो अनादि-अनन्तकाल तक प्रवाहित रहनेवाली है। इस धारामें कर्मबन्धन शरीर-सम्बन्ध मन, इन्द्रिय आदिके सन्निधानसे ऐसी कलई लग गई है जिसके कारण इसका ज्ञेयाकार-अर्थात् पदार्थोंके जानने रूप परिणमन होता है । इसका ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमानुसार विकास होता है । सामान्यतः शरीर सम्पर्कके साथ ही इस चैतन्यशक्तिका कलईवाले काँचकी तरह दर्पणवत् परिणमन हो गया है। इस दर्पणवत परिणमनवाले समयमें जितने समय तक वह चैतन्य-दर्पण किसी ज्ञेयके प्रतिबिम्बको लेता है अर्थात् उसे जानता है तब तक उसकी वह साकार दशा ज्ञान कहलाती है और जितने समय उसकी निराकार दशा रहती है, वह दर्शन कही जाती है। इस परिणामी चैतन्यका सांख्यके चैतन्यसे भेद स्पष्ट है। सांख्यका चैतन्य सदा अविकारी परिणमनशन्य और कटस्थ नित्य है जब कि जैनका चैतन्य परिणमन करनेवाला परिणामी नित्य है। सांख्यके यहाँ बुद्धि या ज्ञान प्रकृतिका धर्म है जब कि जैनसम्मत ज्ञान चैतन्यकी ही पर्याय हैं। सांख्यका चैतन्य संसार दशामें भी ज्ञेयाकार परिच्छेद नहीं करता जब कि जैनका चैतन्य उपाधि दशामें ज्ञेयाकार परिणत होता है, उन्हें जानता है । स्थूल भेद तो यह है कि ज्ञान जैनके यहाँ चैतन्यकी पर्याय है जब कि सांख्यके यहाँ प्रकृति की। इस तरह ज्ञान चैतन्यकी औषाधिक पर्याय है यह संसार दशामें बराबर चाल रहती है जब दर्शन अवस्था होती है, तब ज्ञान अवस्था नहीं होती और जब ज्ञान पर्याय होती है, तब दर्शन पर्याय नहीं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म इन्हीं पर्यायोंको हीनाधिक रूपसे आवृत करते हैं और इनके क्षयोपशम और क्षयके अनुसार इनका अपूर्ण और पूर्ण विकास होता है । संसारावस्थामें जब ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय हो जाता है तब चैतन्य शक्तिको साकार पर्याय ज्ञान अपने पूर्ण रूपमें विकासको प्राप्त होती है। १. “पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो॥" -गो० जीव० गा० ३३३ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ प्रज्ञापनीय है उसका अनन्तवाँ भाग शब्द - श्रुतनिबद्ध होता है । अतः कदाचित् दर्शनप्रणेता ऋषियोंने वस्तुतत्त्वको अपने निर्मल ज्ञानसे अखण्डरूप जाना भी हो तो भी एक ही वस्तुके जाननेके भी दृष्टिकोण जुदे-जुदे हो सकते हैं । एक ही पुष्पको वैज्ञानिक, साहित्यिक, आयुर्वेदिक तथा जनसाधारण आँखोंसे समग्र भावसे देखते हैं पर वैज्ञानिक उसके सौन्दर्यपर मुग्ध न होकर उसके रासायनिक संयोगपर ही विचार करता है । कविको उसके रासायनिक मिश्रणकी कोई चिन्ता नहीं, कल्पना भी नहीं, वह तो केवल उसके सौन्दर्य पर मुग्ध है और वह किसी कमनीय कामिनीके उपमालंकारमें गूंथनेकी कोमल कल्पनासे आकलित हो उठता है । जब कि वैद्यजी उसके गुणदोषोंके विवेचनमें अपने मनको केन्द्रित कर देते हैं। पर सामान्यजन उसकी रोमी - रीमी मोहक सुवाससे वासित होकर ही अपने पुष्पज्ञानकी परिसमाप्ति कर देता है। तात्पर्य यह कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक विराट्स्वरूपका अखण्ड भावसे ज्ञानके द्वारा प्रतिभास होनेपर भी उसके विवेचक अभिप्राय व्यक्तिभेदसे अनन्त हो सकते हैं । फिर अपने-अपने अभिप्रायसे वस्तुविवेचन करनेवाले शब्द भी अनन्त । एक वैज्ञानिक अपने दृष्टिकोणको ही पूर्ण सत्य मानकर कवि या वैद्यके दृष्टिकोण या अभिप्रायको वस्तुतत्त्वका अग्राहक या असत्य ठहराता है तो वह यथार्थ द्रष्टा नहीं है, क्योंकि पुष्प तो अखण्ड भावसे सभी के दर्शनका विषय हो रहा है और उस पुष्पमें अनन्त अभिप्रायों या दृष्टिकोणोंसे देखे जानेकी योग्यता है पर दृष्टिकोण और तत्प्रयुक्त शब्द तो जुदे-जुदे हैं और वे आपस में टकरा भी सकते हैं । इसी टकराहटसे दर्शनभेद उत्पन्न हुआ है। तब दर्शन शब्दका क्या अर्थ फलित होता है जिसे हरएक दर्शनवादियोंने अपने मतके साथ जोड़ा और जिसके नामपर अपने अभिप्रायोंको एक दूसरेसे टकराकर उसके नामको कलंकित किया ? एक शब्द जब लोक में प्रसिद्धि पा लेता है तो उसका लेबिल तदाभासमिध्या वस्तुओं पर भी लोग लगाकर उसके नामसे स्वार्थं साधनेका प्रयत्न करते हैं । जब जनताको ठगनेके लिए खोली गई दूकानें भी 'राष्ट्रीयभण्डार' और 'जनता भण्डार' का नाम धारण कर सकती हैं और गान्धीछाप शराब भी व्यवसाइयोंने बना डाली है तो दर्शनके नामपर यदि पुराने जमाने में तदाभास चल पड़े हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । सभी दार्शनिकोंने यह दावा किया है कि उनके ऋषिने दर्शन करके तत्त्वका प्रतिपादन किया है । ठीक है, किया होगा ? दर्शनका एक अर्थ है- सामान्यावलोकन । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्कके बाद जो एक बार ही वस्तुके पूर्ण रूपका अखण्ड या सामान्य भावसे प्रतिभास होता है उसे शास्त्रकारोंने निर्विकल्प दर्शन माना है । इस सामान्य दर्शनके अनन्तर समस्त झगड़ोंका मल विकल्प आता है जो उस सामान्य प्रतिभासको अपनी कल्पनाके अनुसार चित्रित करता है । धर्मकीर्ति आचार्य ने प्रमाणवार्तिक ( ३।४४ ) में लिखा है कि " तस्माद् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः । भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं सम्प्रवर्तते ॥" अर्थात् दर्शनके द्वारा दृष्टपदार्थ के सभी गुण दृष्ट हो जाते हैं, उनका सामान्यावलोकन हो जाता है । पर भ्रान्तिके कारण उनका निश्चय नहीं हो पाता इसलिए साधनों का प्रयोग करके तत्तद्धर्मो का निर्णय किया जाता है । तात्पर्य यह कि -दर्शन एक ही बारमें वस्तु के अखण्ड स्वरूपका अवलोकन कर लेता है और इसी अर्थ में यदि दर्शनशास्त्र के दर्शन शब्दका प्रयोग है तो मतभेदकी गुंजाइश रह सकती है, लोकन प्रतिनियत अर्थक्रियाका साधक नहीं होता । अर्थक्रियाके लिए तो तत्तदंशोंके क्योंकि यह सामान्याव - निश्चयकी आवश्यकता Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ७९ ह है । अतः असली कार्यकारी तो दर्शनके बाद होनेवाले शब्दप्रयोगवाले विकल्प हैं। जिन विकल्पोंको दर्शनका पृष्ठबल प्राप्त है वे प्रमाण हैं तथा जिन्हें दर्शनका पृष्ठबल प्राप्त नहीं हैं अर्थात् जो दर्शनके बिना मात्र कल्पनाप्रसूत हैं वे अप्रमाण हैं । अतः यदि दर्शन शब्दको आत्मा आदि पदार्थों के सामान्यावलोकन अर्थमें लिया जाता है तो भी मतभेदकी गुंजाइश कम है । मतभेद तो उस सामान्यावलोकनकी व्याख्या और निरूपण करने में हैं। एक सुन्दर स्त्रीका मृत शरीर देखकर विरागी भिक्षको संसारकी असार दशाकी भावना होती है। कामी पुरुष उसे देखकर सोचता है कि कदाचित यह जीवित होती । तो कुत्ता अपना भक्ष्य समझकर प्रसन्न होता है। यद्यपि दर्शन तीनोंको हआ है, पर व्याख्याएँ जुदी-जुदी है। जहाँतक वस्तुके दर्शनकी बात है वह विवादसे परे है। वाद तो शब्दोंसे शुरू होता है। यद्यपि दर्शन वस्तुके बिना नहीं होता और वही दर्शन प्रमाण माना जा सकता है जिसे अर्थका बल प्राप्त हो अर्थात् जो पदार्थसे उत्पन्न हुआ हो। पर यहाँ भी वही विवाद उपस्थित होता है कि कौन दर्शन पदार्थको सत्ताका अविनाभावी है तथा कौन पदार्थके बिना केवल काल्पनिक है ? प्रत्येक यही कहता है कि हमारे दर्शनने आत्माको उसी प्रकार देखा है जैसा हम कहते हैं, तब यह निर्णय कैसे हो कि यह दर्शन वास्तविक अर्थसमुद्भूत है और यह दर्शन मात्र कपोलकल्पित ? निर्विकल्प दर्शनको प्रमाण मानने वालोंने भी उसी निर्विकल्पकको प्रमाण माना है जिसकी उत्पत्ति पदार्थसे हुई है । अतः प्रश्न ज्योंका त्यों है कि दर्शन शब्दका वास्तविक क्या अर्थ हो सकता है ? जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि अनन्तधर्मवाले पदार्थको ज्ञान करनेके दृष्टिकोणोंको शब्दके द्वारा कहनेके प्रकार अनन्त होते हैं । इनमें जो दृष्टियाँ वस्तुका स्पर्श करती है तथा अन्य वस्तुस्पर्शी दृष्टियोंका समादर करती हैं वे सत्योन्मुख हैं। जिनमें यह आग्रह है कि मेरे द्वारा देखा गया ही वस्तुतत्त्व सच्चा और अन्य मिथ्या वे वस्तुस्वरूपसे पराङ्मुख होने के कारण विसंवादिनी हो जाती हैं। इस तरह वस्तुके स्वरूपके आधारसे दर्शन शब्दके अर्थको बैठानेका प्रयास कथमपि सार्थक हो जाता है। जब वस्तु स्वयं नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भाव-अभाव, आदि विरोधी द्वन्द्वोंका अविरोधी क्रीडास्थल है, उसमें उन सबको मिलकर रहने में कोई विरोध नहीं है; तब इन देखनेवालों ( दृष्टिकोणों) को क्यों खुराफात सूझता है जो उन्हें एक साथ नहीं रहने देते ! प्रत्येक दर्शनके ऋषि अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार वस्तुस्वरूपको देखकर उसका चिन्तन करते हैं और उसी आधारसे विश्वव्यवस्था बैठानेका प्रयास करते हैं उनकी मनन-चिन्तनधारा इतनी तीव्र होती है कि उन्हें भावनावश उस वस्तुका साक्षात्कार-जैसा होने लगता है। और इस भावनात्मक साक्षात्कारको ही दर्शन संज्ञा मिल जाती है। सम्यग्दर्शनमें भी एक दर्शन शब्द है । जिसका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थश्रद्धान किया गया है । यहाँ दर्शन शब्दका अर्थ स्पष्टता श्रद्धान ही है । अर्थात् तत्त्वोंमें दृढ़ श्रद्धा या श्रद्धानका होना सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस अर्थसे जिसकी जिसपर दृढ़ श्रद्धा अर्थात् तीव्र विश्वास है वही उसका दर्शन है । और यह अर्थ जी को लगता भी है कि अमुक-अमुक दर्शनप्रणेता ऋषियोंको अपने द्वारा प्रणीत तत्त्वपर दृढ़ विश्वास था। विश्वासकी भूमिकाएँ तो जुदी-जुदी होती है। अतः जब दर्शन विश्वासको भूमिकापर आकर प्रतिष्ठित हुआ तब उसमें मतभेदका होना स्वाभाविक बात है । और इसी मतभेदके कारण मुण्डे -मुण्डे मतिभिन्नाके जीवित रूपमें अनेक दर्शनोंकी सृष्टि हुई और सभी दर्शनोंने विश्वासकी भूमिमें उत्पन्न होकर भी अपनेमें पूर्णता और साक्षात्कारका स्वाँग भरा और अनेक अपरिहार्य मतभेदोंकी सृष्टि की । जिनके समर्थनके लिए शास्त्रार्थ हुए, संघर्ष हुए और दर्शनशास्त्रके इतिहासके पृष्ठ रक्तरंजित किए गए। सभी दर्शन विश्वासकी भूमिमें पनपकर भी अपने प्रणेताओंमें साक्षात्कार और पूर्ण ज्ञानकी भावनाको फैलाते रहे फलतः जिज्ञासु सन्देहके चौराहेपर पहुँचकर दिग्भ्रान्त होता गया । इस तरह दर्शनोंने अपने Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अपने विश्वासके अनुसार जिज्ञासुको सत्य साक्षात्कार या तत्त्व साक्षात्कारका पूरा भरोसा तो दिया पर तत्त्वज्ञानके स्थानमें संशय ही उसके पल्ले पड़ा। जैनदर्शनकी देन जैनदर्शनने इस दिशामें उल्लेखयोग्य मार्ग-प्रदर्शन किया है। उसने श्रद्धाकी भूमिकापर जन्म लेकर भी वह वस्तुस्वरूपस्पर्शी विचार प्रस्तुत किया है जिससे वह श्रद्धाकी भूमिकासे निकलकर तत्त्वसाक्षात्कारके रङ्गमंचपर पहँचा है। उसने बताया कि जगत्का प्रत्येक पदार्थ मलतः एक रूपमें सत् है । प्रत्येक सत् पर्यायदष्टिसे उत्पन्न-विनष्ट होकर भी द्रव्यकी अनाद्यनन्त धारामें प्रवाहित रहता है अर्थात न वह कूटस्थनित्य है, न सातिशय नित्य न, अनित्य । किन्तु परिणामी नित्य है । जगत्के किसी सत्का विनाश नहीं हो सकता और न किसी असत्की उत्पत्ति । इस तरह स्वरूपतः पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। प्रत्येक पदार्थ नित्यअनित्य, एक-अनेक, सत-असत् जैसे अनेक विरोधी द्वन्द्वोंका अविरोधी आधार है। वह अनन्त शक्तियोंका अखण्ड मौलिक है । उसका परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है पर उसकी मूलधाराका प्रवाह न तो कहीं सूखता है और न किसी दूसरी धारामें विलीन ही होता है। जगत्में अनन्त-चेतन द्रव्य, अनन्त अचेतन द्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य, और असंख्यकालद्रव्य अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं । वे कभी एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकते और अपना मलद्रव्यत्व नहीं छोड़ सकते । प्रत्येक प्रतिक्षण परिणामी है । उसका परिणमन सदृश भी होता है विसदृश भी। द्रव्यान्तरसंक्रान्ति इनमें कदापि नहीं हो सकती। इस तरह प्रत्येक चेतन अचेतन-द्रव्य अनन्त धर्मोंका अखण्ड अविभागी मौलिक तत्त्व है। इसी अनेकान्त-अनन्तधर्मा पदार्थको प्रत्येक दार्शनिकने अपने-अपने दृष्टिकोणसे देखनेका प्रयास किया है। कोई दार्शनिक वस्तुकी सीमाको भी अपनी कल्पनादृष्टिसे लाँघ गए हैं। यथा, वेदान्त दर्शन जगत्में एक ही सत्-ब्रह्मका अस्तित्व मानता है। उसके मतसे अनेक सत् प्रातिभासिक है । एक सत्का चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त , निष्क्रिय-सक्रिय आदि विरुद्ध रूपसे मायावश प्रतिभास होता रहता है। इसी प्रकार विज्ञानवाद या शन्यवादने बाह्य घट-पटादि पदार्थोंका लोप करके उनके प्रतिभासको वासनाजन्य बताया है । जहाँ तक जैन दार्शनिकोंने जगत्का अवलोकन किया है वस्तुकी स्थितिको अनेकधर्मात्मक पाया, और इसीलिए अनेकातात्मक तत्त्वका उनने निरूपण किया। वस्तुके पूर्णरूपको अनिर्वचनीय वाङ्मानसागोचर या अवक्तव्य सभी दार्शनिकोंने कहा है । इसी वस्तुरूपको विभिन्न दृष्टिकोणोंसे जानने और कथन करनेका प्रयास भिन्न-भिन्न दार्शनिकोंने किया है। जैनदर्शनने वस्तुमात्रको परिणामीनित्य स्वीकार किया। कोई भी सत् पर्याय रूपसे उत्पन्न और विनष्ट होकर भी द्रव्यरूपसे अविच्छिन्न रहता है, अपनी असङ्कीर्ण सत्ता रखता है। सांख्य दर्शनमें यह परिणामिनित्यता प्रकृति तक ही सीमित है । पुरुष तत्त्व इनके मतमें कूटस्थ नित्य है । उसका विश्व-व्यवस्थामें कोई हाथ नहीं है । प्रकृति परिणामिनी होकर भी एक है। एक ही प्रकृतिका घटपटादि मर्त रूपमें और आकाशादि अमर्तरूपमें परिणमन होता है। यही प्रकृति बुद्धि अहङ्कार जैसे चेतन भावों रूपसे परिणत होती है और यही प्रकृति रूपरस गन्ध आदि जड़भाव रूपमें । परन्तु इस प्रकारके विरुद्ध परिणमन एक ही साथ एक ही तत्त्वमें कैसे सम्भव हैं ? यह तो हो सकता है कि संसारमें जितने चेतनभिन्न पदार्थ है वे एक जातिके हों पर एक तो नहीं हो सकते । वेदान्तीने जहाँ चेतन-भिन्न कोई दूसरा तत्त्व स्वीकार न करके एक सत्का चेतन और अचेतन, मूर्त-अमूर्त, निष्क्रिय-सक्रिय, आन्तर-बाह्य आदि अनेकधा प्रतिभास माना और दश्य जगतकी परमार्थ सत्ता न मानकर प्रातिभासिक सत्ता ही स्वीकार की वहां सांख्य चेतनतत्त्वको अनेक स्वतन्त्रसत्ताक मानकर भी, प्रकृतिको एक स्वीकार करता है और उसमें विरुद्ध परिण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ८१ नोंकी वास्तविक स्थिति मानना चाहता है । वेदान्तीकी विरुद्ध प्रतिभास वाली बात कदाचित् समझ में आ भी जाय पर सांख्यकी विरुद्ध परिणमनोंकी वास्तविक स्थिति स्पष्टतः बाधित है । वेदान्तकी इस असङ्गतिका परिहार तो सांरूपने अनेक चेतन और जड़प्रकृति मानकर किया कि - 'अद्वैत ब्रह्म तत्त्वमें बद्ध और मुक्त चैतन्य जुदा-जुदा कैसे हो सकते हैं ? एक ही ब्रह्मतत्त्व चेतन और जड़ इन दो महाविरोधी परिणमनोंका आधार कैसे बन सकता है ?' अनेक चेतन माननेसे कोई बद्ध और कोई मुक्त रह सकता है। जड़ प्रकृति माननेसे जड़ात्मक परिणमन प्रकृति के हो सकते ? परन्तु एक अखण्डसत्ताक प्रकृति अमूर्त आकाश भी बन जाय और मूर्त घड़ा भी बन जाय । बुद्धि अहंकार भी बने और रूपरस भी बने, सो भी परमार्थतः; यह महान् विरोध सर्वथा अपरिहार्य है । एक सेर वजनके घड़ेको फोड़कर आधा-आधा सेरके दो वजनदार ठोस टुकड़े किये जाते हैं जो अपनी पृथक् ठोस सत्ता रखते हैं । यह विभाजन एकसत्ताक प्रकृतिमें कैसे हो सकता है । संसारके यावत् जड़ों में सत्त्व रजस्तमस इन तीन गुणोंका अन्वय देखकर एकजातीयता तो मानी जा सकती है, एकसत्ता नहीं । इस तरह सांख्यकी विश्वव्यवस्था में अपरिहार्य असंगति बनी रहती है । न्यायवैशेषिकोंने जड़तत्त्वका पृथक्-पृथक् विभाजन किया । मूर्तद्रव्य जुदा माने, अमूर्त जुदा । पृथिवी आदि अनन्त परमाणु स्वीकार किए। पर ये इतने भेदपर उतरे कि क्रिया गुण सम्बन्ध सामान्य आदि परिणमनों को भी स्वतन्त्र पदार्थ मानने लगे, यद्यपि गुण क्रिया सामान्य आदिकी पृथक् उपलब्धि नहीं होती और नये पृथक सिद्ध ही हैं । वैशेषिकको संप्रत्योपाध्याय कहा है । इसकी प्रकृति है— जितने प्रत्यय हों उ पदार्थ स्वीकार कर लेना । 'गुणः गुणः प्रत्यय' हुआ तो गुण पदार्थ मान लिया । 'कर्म कर्म प्रत्यय हुआ एक स्वतन्त्र कर्म पदार्थ माना गया। फिर इन पदार्थोंका द्रव्यके साथ सम्बन्ध स्थापितकरने के लिए समवाय नामका स्वतन्त्र पदार्थ मानना पड़ा । जलमें गन्धकी, अग्निमें रसकी और वायु में रूपकी अनुद्भूति देखकर पृथक् पृथक् द्रव्य माने । पर वस्तुतः वैशेषिकका प्रत्ययके आधारसे स्वतन्त्र पदार्थ माननेका सिद्धान्त ही गलत है । प्रत्यय के आधारसे उसके विषयभूत धर्मं तो जुदा-जुदा किसी तरह माने जा सकते हैं, पर स्वतन्त्र पदार्थ मानना किसी तरह युक्तिसंगत नहीं है । इस तरह एक ओर वेदान्ती या सांख्यने क्रमशः जगत्में और प्रकृतिमें अभेदकी कल्पना की वहाँ वैशेषिकने आत्यन्तिक भेदको अपने दर्शनका आधार बनाया । उपनिषत् में जहाँ वस्तु के कूटस्थ नित्यत्वको स्वीकार किया गया है वहाँ अजित केशकम्बलि जैसे उच्छेदवादो भी विद्यमान थे । बुद्धने आत्मा के मरणोत्तर जीवन और शरीरसे उसके भेदाभेदको अव्याकरणीय बताया है । बुद्धको डर था कि यदि हम आत्मा अस्तित्वको मानते हैं तो नित्यात्मवादका प्रसङ्ग आता है और यदि आत्माका नास्तित्व कहते हैं तो उच्छेदवादकी आपत्ति आती हैं । अतः उनने इन दोनों वादोंके डरसे उसे अव्याकरणीय कहा है । अन्यथा उनका सारा उपदेश भूतवाद के विरुद्ध आत्मवादकी भित्तिपर है ही । जैनदर्शन वास्तव में बहुत्ववादी है । वह अनन्त चेतनतत्त्व, अनन्त पुद् गलद्रव्य-परमाणुरूप, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्य कालाणुद्रव्य इसप्रकार अनन्त वास्तविक मौलिक अखण्ड द्रव्योंको स्वीकार करता है । द्रव्य सत्-स्वरूप है । प्रत्येक सत् चाहे वह चेतन हो या चेतनेतर परिणामी - नित्य है । उसका पर्यायरूपसे परिणमन प्रतिक्षण होता ही रहता है । यह परिणमन अर्थपर्याय कहलाता है । अर्थ पर्याय सदृश भी होती है और विसदृश भी । शुद्ध द्रव्योंकी अर्थपर्याय सदा एकसी सदृश होती हैं, पर होती है अवश्य । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकाशद्रव्य, शुद्धजीवद्रव्य इनका परिणमन सदा सदृश होता है । पुद्गलका परिणमन सदृश भी होता है विसदृश भी । ४-११ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें वैभाविक शक्ति है और इस शक्तिके कारण इनका विसदृश परिणमन भी होता है । जब जीव शुद्ध हो जाता है तब विलक्षण परिणमन नहीं होता। इस वैभाविक शक्तिका स्वाभाविक ही परिणमन होता है । तात्पर्य यह कि प्रत्येक सत् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यशाली होनेसे परिणामी नित्य है। दो स्वतन्त्र सत्में रहनेवाला एक कोई सामान्य पदार्थ नहीं है। केवल अनेक जीवोंको जीवत्व नामक सादृश्यसे संग्रह करके उनमें एक जीवद्रव्य व्यवहार कर दिया जाता है। इसी तरह चेतन और अचेतन दो भिन्नजातीय द्रव्योंमें 'सत्' नामका कोई स्वतन्त्रसत्ताक पदार्थ नहीं है। परन्तु सभी द्रव्योंमें परिणामिनित्यत्व नामकी सदृशताके कारण 'सत , सत्' यह व्यवहार कर लिया जाता है । अनेक द्रव्योंमें रहनेवाला कोई स्वतन्त्र सत् नामका कोई वस्तुभूत तत्त्व नहीं है। ज्ञान, रूपादि गुण, उत्क्षेपण आदि क्रियाएँ सामान्य विशेष आदि सभी द्रव्यको अवस्थाएँ हैं पृथक्सत्ताक पदार्थ नहीं। यदि बुद्ध इस वस्तुस्थितिपर गहराईसे विचार करते तो इस निरूपणमें न उन्हें उच्छेदवादका भय होता और न शाश्वतवादका । और जिस प्रकार उनने आचारके क्षेत्रमें मध्यमप्रतिपदाको उपादेय बताया है उसी तरह वे इस अनन्तधर्मा वस्तुतत्त्वके निरूपणको भी परिणामिनित्यतामें ढाल देते। स्याद्वाद-जैनदर्शनने इस तरह सामान्यरूपसे यावत् सत्को परिणामीनित्य माना है। प्रत्येक सत् अनन्तधर्मात्मक है । उसका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है। अनेकान्त अर्थका टरूपसे कथन करनेवाली भाषा स्याद्वाद रूप होती है। उसमें जिस धर्मका निरूपण होता है उसके साथ 'स्यात्' शब्द इसलिए लगा दिया जाता है जिससे पूरी वस्तु उसी धर्म रूप न समझ ली जाय । अविवक्षित शेषधर्मोका अस्तित्व भी उसमें है यह प्रतिपादन 'स्यात्' शब्दसे होता है। स्याद्वादका अर्थ है-स्यात्-अमुक निश्चित अपेक्षासे । अमुक निश्चित अपेक्षासे घट अस्ति हो है और अमुक निश्चित अपेक्षासे घट नास्ति ही है। स्यातका अर्थ न तो शायद है न संभवतः और न कदाचित् ही। 'स्यात्' शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोणका प्रतीक है । इस शब्दके अर्थको पुराने मतवादी दार्शनिकोंने ईमानदारीसे समझनेका प्रयास तो नहीं ही किया था किन्तु आज भी वैज्ञानिक दृष्टिको दुहाई देनेवाले दर्शनलेखक उसी भ्रान्त परम्पराका पोषण करते आते हैं। स्याद्वाद-सुनयका निरूपण करनेवाली भाषा-पद्धति है। 'स्यात्' शब्द यह निश्चित रूपसे बताता है कि वस्तु केवल धर्मवाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान हैं। तात्पर्य यह किअविवक्षित शेष धर्मोंका प्रतिनिधित्व स्यात् शब्द करता है। 'रूपवान् घटः' यह वाक्य भी अपने भीतर 'स्यात्' शब्दको छिपाये हुए है। इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान् घटः' अर्थात् चक्षु इन्द्रियके द्वारा ग्राह्य होनेसे या रूप गुणकी सत्ता होनेसे घड़ा रूपवान् है, पर रूपवान् ही नहीं है उसमें रस, गन्ध, स्पर्श आदि अनेक गुण, छोटा बड़ा आदि अनेक धर्म विद्यमान है। इन अविवक्षित गुणधर्मों के अस्तित्वकी रक्षा करनेवाला 'स्यात्' शब्द है । 'स्यात्'का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चय है । अर्थात् घड़ेमें रूपके अस्तित्वकी सूचना तो 'रूपवान्' शब्द दे ही रहा है पर उन उपेक्षित शेष धर्मोके अस्तित्वकी सूचना 'स्यात' शब्दसे होती है । सारांश यह कि 'स्यात्' शब्द 'रूपवान्' के साथ नहीं जुटता है, किन्तु अविवक्षित । वह 'रूपवान् को पूरी वस्तुपर अधिकार जमानेसे रोकता है और कह देता है कि वस्तु बहुत बड़ी है उसमें रूप भी एक है। ऐसे अनन्त गुणधर्म वस्तुमें लहरा रहे हैं। अभी रूपको विवक्षा या दृष्टि होनेसे वह सामने है या शब्दसे उच्चरित हो रहा है सो वह मुख्य हो सकती है पर वही सब कुछ नहीं है। दूसरे क्षणमें रसकी मुख्यता होनेपर रूप गौण हो जायगा और वह अविवक्षित शेष धर्मोंकी राशिमें शामिल हो जायगा। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ८३ 'स्यात' शब्द एक प्रहरी है, जो उच्चरित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता। वह उन अविवक्षित धर्मोंका संरक्षक है। इसलिए 'रूपवान्' के साथ 'स्यात्' शब्दका अन्वय करके जो लोग घड़ेमें रूपको भी स्थितिको स्यातका शायद या संभावना अर्थ करके संदिग्ध बनाना चाहते हैं वे भ्रममें हैं । इसी तरह 'स्यादस्ति घटः' वाक्यमें 'घटः अस्ति' यह अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चित रूपसे विद्यमान है। स्यात् शब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाता, किन्तु उसकी वास्तविक स्थितिकी सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मोके सद्भावका प्रतिनिधित्व करता है। सारांश यह कि 'स्यात्' पद एक स्वतन्त्र पद है जो वस्तुके शेषांशका प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं 'अस्ति' नामका धर्म जिसे शब्दसे उच्चरित होनेके कारण प्रमुखता मिली है पूरी वस्तुको न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति आदि सहयोगियोंके स्थानको समाप्त न कर जाय । इसलिए वह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता है कि हे भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अन्य नास्ति आदि भाइयोंके हकको हड़पनेकी चेष्टा नहीं करना। इस भयका कारण है-'नित्य ही है, अनित्य ही है' आदि अंशवाक्योंने अपना पूर्ण अधिकार वस्तुपर जमाकर अनधिकार चेष्टा की है और जगतमें अनेक तरहसे वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद-प्रतिवादने अनेक मतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार हिंसा संघर्ष अनुदारता परमतासहिष्णुता आदिसे विश्वको अशान्त और आकुलनामय बना दिया है। ‘स्यात्' शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देताह जिससे अहंकारका सर्जन होता है और वस्तु के अन्य धर्मों के अस्तित्वसे इनकार करके पदार्थके साथ अन्याय होता है। 'स्यात्' शब्द एक निश्चित अपेक्षाको द्योतन करके जहाँ ‘अस्तित्व' धर्मकी स्थिति सुदृढ़ सहेतुक बनाता है, वहाँ वह उसको उस सर्वहरा प्रवृत्तिको भी नष्ट करता है जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक बनना चाहता है । वह न्यायाधीशकी तरह तुरन्त कह देता है कि-हे अस्ति, तुम अपने अधिकारकी सीमाको समझो । स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी दृष्टिसे जिस प्रकार तुम घटमें रहते हो, उसी तरह परद्रव्यादिकी अपेक्षा 'नास्ति' नामका तुम्हारा भाई भी उसी घटमें है। इसी प्रकार घटका परिवार बहुत बड़ा है। अभी तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है, तुम्हारा प्रयोजन है, तम्हारी विवक्षा है । अतः इस समय तुम मुख्य हो। पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है जो तुम अपने समानाधिकारी भाइयोंके सद्भावको भी नष्ट करनेका दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात तो यह है कि यदि परकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस घड़ेमें तुम रहते हो वह घड़ा घड़ा ही न रहेगा कपड़ा आदि पररूप हो जायगा । अतः जैसी तुम्हारी स्थिति है वैसी ही पर रूपकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्मकी भी स्थिति है । तुम उनकी हिंसा न कर सको इसके लिए अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहले ही वाक्यमें लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम तो बराबर अपने नास्ति आदि अनन्य भाइयोंको वस्तमें रहने देते हो और बडे प्रेमसे सबके सब अनन्त धर्मभाई रहते हो, पर इन वस्तुदर्शियोंकी दृष्टिको क्या कहा जाय । इनकी दष्टि ही एकाङ्गी है। ये शब्दके द्वारा तुममेंसे किसी एक 'अस्ति' आदिको मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी अहंकारपूर्ण कर देना चाहते हैं जिससे वह 'अस्ति' अन्यका निराकरण करने लग जाय। बस, 'स्यात' शब्द एक अञ्जन है जो उनकी दृष्टिको विकृत नहीं होने देता और उसे निर्मल तथा पूर्णदर्शी बनाता है। इस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषहारी, शब्दको सुधारूप बनानेवाले, सचेतक प्रहरी, अहिंसक भावनाके प्रतीक. जीवन्त न्यायरूप, सुनिश्चित-अपेक्षाद्योतक 'स्यात्' शब्दके स्वरूपके साथ हमारे दार्शनिकोंने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूपको 'शायद, संभव है, 'कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्यायोंसे विकृत करनेका दष्ट प्रयल अवश्य किया है तथा किया जा रहा है । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ सबसे थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि 'घड़ा जब 'अस्ति' है तो 'नास्ति' कैसे हो सकता है, घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष विरोध है' पर विचार तो करो घड़ा घड़ा ही है, कपड़ा नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, घोड़ा नहीं, तात्पर्य यह कि वह घटभिन्न अनन्त पदार्थ - रूप नहीं है । तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि 'घड़ा अपने स्वरूपसे अस्ति है, घटभिन्न पररूपोंसे नास्ति है । इस घड़े में अनन्त पररूपोंकी अपेक्षा 'नास्तित्व' धर्म है, नहीं तो दुनिया में कोई शक्ति घड़े को कपड़ा आदि बननेसे नहीं रोक सकती । यह 'नास्ति' धर्म ही घड़ेको घड़े रूपमें कायम रखनेका हेतु है । इसी 'नास्ति' धर्मंकी सूचना 'अस्ति' के प्रयोगके समय 'स्यात्' शब्द दे देता है । इसी तरह घड़ा एक है | पर वही घड़ा रूप रस गन्ध स्पर्श छोटा बड़ा हलका भारी आदि अनन्त शक्तियों की दृष्टिसे अनेकरूपमें दिखाई देता है या नहीं ? यह आप स्वयं बतावें । यदि अनेक रूपमें दिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्या कष्ट होता है कि घड़ा द्रव्य एक है, पर अपने गुण धर्म शक्ति आदिकी दृष्टिसे अनेक हैं' । कृपाकर सोचिए कि वस्तुमें जब अनेक विरोधी धर्मोका प्रत्यक्ष हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मोका अविरोधी क्रीडास्थल है तब हमें उसके स्वरूपको विकृत रूपमें देखनेकी दुर्दृष्टि तो नहीं करनी चाहिए । जो 'स्यात्' शब्द वस्तुके इस पूर्ण रूप-दर्शनकी याद दिलाता है उसे ही हम 'विरोध, संशय ' — जैसी गालियोंसे दुरदुराते हैं, किमाश्चर्यमतः परम् । यहाँ धर्मकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यान में आ जाता है कि'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् |' अर्थात् — यदि यह अनेक धर्मरूपता वस्तुको स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है, तो हम बीच में काजी बननेवाले कौन ? जगत्का एक-एक कण इस अनन्तधर्मताका आकार है । हमें अपनी दृष्टि निर्मल और विशाल बनानेकी आवश्यकता है । वस्तुमें कोई विरोध नहीं है । विरोध हमारी दृष्टिमें है । और इस दृष्टिविरोधी अमृतौषधि 'स्यात्' शब्द है, जो रोगीको कटु तो जरूर मालूम होती है, पर इसके बिना यह दृष्टि विषमज्वर उतर भी नहीं सकता । प्रो० बलदेव उपाध्यायने भारतीय दर्शन ( पृ० १५५ ) में स्याद्वादका अर्थ बताते हुए लिखा है कि - " स्यात् ( शायद, सम्भवतः ) शब्द अस् धातुके विधिलिङ्के रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना है | घड़े विषय में हमारा परामर्श' 'स्यादस्ति = संभवतः यह विद्यमान है' इसी रूपमें होना चाहिए ।" यहाँ 'स्यात्' शब्दको शायदका पर्यायवाची तो उपाध्यायजी स्वीकार नहीं करना चाहते । इसीलिए वे शायद शब्दको कोष्ठक में लिखकर भी आगे 'संभवत: ' शब्दका समर्थन करते हैं । वैदिक आचार्योंमें शंकराचार्य ने शांकरभाष्यमें स्याद्वादको संशयरूप लिखा है, इसका संस्कार आज भी कुछ विद्वानोंके माथेमें पड़ा हुआ है और वे उस संस्कारवश स्यात्‌का अर्थ 'शायद' लिख ही जाते हैं । जब यह स्पष्ट रूपसे अवधारण करके कहा जाता है कि-'घटः स्यादस्ति' अर्थात् घड़ा अपने स्वरूपसे है ही । घटः स्यान्नास्ति-घट स्वभिन्न स्वरूपसे नहीं ही है' तब संशयको स्थान कहाँ है ? स्यात् शब्दसे जिस धर्मका प्रतिपादन किया जा रहा है उससे भिन्न अन्य धर्मो सद्भावको सूचित करता है । वह प्रति समय श्रोताको यह सूचना देना चाहता है कि वक्ताके शब्दोंसे वस्तुके जिस स्वरूपका निरूपण हो रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है उनमें अन्य धर्म भी विद्यमान हैं । जब कि संशय और शायदमें एक भी धर्म निश्चित नहीं होता । जैनके अनेकान्तमें अनन्त धर्म निश्चित हैं, उनके दृष्टिकोण निश्चित हैं तब संशय और शायदकी उस भ्रान्त परम्पराको आज भी अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान् भी चलाए जाते हैं यह रूढ़िवादका ही माहात्म्य है । इसी संस्कारवश प्रो० बलदेवजी स्यात् के पर्यायवाचियोंमें शायद शब्दको लिखकर ( पृ० १७३ ) जैनदर्शनकी समीक्षा करते समय शंकराचार्य की वकालत इन शब्दोंमें करते हैं कि - "यह निश्चित ही है कि Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ८५ इसी समन्वय दृष्टिसे वह पदार्थोंके विभिन्न रूपों का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनुस्यूत परम तत्त्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी दृष्टिको ध्यान में रखकर शंकराचार्यने इस 'स्याद्वाद' का मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाष्य (२, २, ३३ ) में प्रबल युक्तियोंके सहारे किया है ।" पर उपाध्यायजी, जब आप स्यात्का अर्थ निश्चित रूपसे 'संशय' नहीं मानते, तब शंकराचार्य के खण्डनका मार्मिकत्व क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व० महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झाके इन वाक्योंको देखें- 'जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्तका खंडन पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है जिसे वेदान्तके आचार्योंने नहीं समझा ।" श्री फणिभूषण अधिकारी तो और स्पष्ट लिखते हैं कि- "जैनधर्मके स्याद्वाद सिद्धान्तको जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं । यहाँ तक कि शंकरा - चार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं । उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया है । यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए क्षम्य हो सकती थी । किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मैं भारतके इस महान् विद्वान् के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ । ऐसा जान पड़ता है उन्होंने इस धर्मके दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थोंके अध्ययनकी परवाह नहीं की ।" जैनदर्शन स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार वस्तुस्थितिके आधारसे समन्वय करता है । जो धर्म वस्तु विद्यमान हैं उन्हींका समन्वय हो सकता है । जैनदर्शनको आप वास्तव बहुत्ववादी लिख आये हैं । अनेक स्वतन्त्र सत् व्यवहार के लिए सद्रूपसे एक कहे जायँ, पर वह काल्पनिक एकत्व वस्तु नहीं हो सकता ? यह कैसे सम्भव है कि वेतन और अचेतन दोनों ही एक सत्के प्रातिभासिक विवर्त हों । जिस काल्पनिक समन्वयकी ओर उपाध्यायजी संकेत करते हैं उस ओर भो जैन दार्शनिकोंने प्रारम्भसे ही दृष्टिपात किया है । परम संग्रहनयकी दृष्टिसे सद्रूपसे यावत् चेतन-अचेतन द्रव्योंका संग्रह करके 'एक सत्' इस शब्दव्यवहारके होनेमें जैन दार्शनिकोंको कोई आपत्ति नहीं है। सैकड़ों काल्पनिक व्यवहार होते हैं, पर इससे मौलिक तत्त्वव्यवस्था नहीं की जा सकती ? एक देश या एक राष्ट्र अपनेमें क्या वस्तु है ? समयसमयपर होनेवाली बुद्धिगत दैशिक एकताके सिवाय एकदेश या एकराष्ट्रका स्वतन्त्र अस्तित्व ही क्या है ? अस्तित्व जुदा-जुदा भूखण्डोंका अपना है । उसमें व्यवहारकी सुविधाके लिए प्रान्त और देश संज्ञाएँ जैसे काल्पनिक हैं, व्यवहारसत्य है, उसी तरह एक सत् या एक ब्रह्म काल्पनिकसत् होकर व्यवहारसत्य बन सकता है और कल्पनाकी दौड़का चरम बिन्दु भी हो सकता है पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थसत् होना नितान्त असम्भव है । आज विज्ञान एटम तकका विश्लेषण कर चुका है और सब मौलिक अणुओंकी पृथक् सत्ता स्वीकार करता है । उनमें अभेद और इतना बड़ा अभेद जिसमें चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि सभी लीन हो जायँ कल्पनासाम्राज्यकी अन्तिम कोटि है । और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न माननेके कारण यदि जैनदर्शनका स्याद्वाद सिद्धान्त आपको मूलभूत तत्त्वके स्वरूप समझाने में नितान्त असमर्थ प्रतीत होता है तो हो, पर वह वस्तुसीमाका उल्लंघन नहीं कर सकता और न कल्पनालोककी लम्बी दौड़ ही लगा सकता है। स्यात् शब्दको उपाध्यायजी संशयका पर्यायवाची नहीं मानते यह तो प्रायः निश्चित है क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं ( पृ० १७३ ) कि - " यह अनेकान्तवाद संशयवादका रूपान्तर नहीं है; " पर आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते हैं । परन्तु स्यात्का अर्थ 'संभवतः ' करना भी न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि संभावना संशय में जो कोटियाँ उपस्थित होती हैं उनकी 'अर्धनिश्चितता' की ओर संकेतमात्र है, निश्चय उससे भिन्न ही है । उपाध्यायजी स्याद्वादको संशयवाद और निश्चयवादके बीच संभावनावादकी जगह रखना Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ चाहते हैं जो एक अनध्यवसायात्मक अनिश्चयके समान है । परन्तु जब स्याद्वाद स्पष्ट रूपसे डंके की चोट यह कह रहा है कि घड़ा 'स्यादस्ति' अर्थात् अपने स्वरूप, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस स्वचतुष्टयकी अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण है । घड़ा स्वसे भिन्न यावत् पर पदार्थोंकी दृष्टिसे नहीं ही है यह भी निश्चित अवधारण है। इस तरह जब दोनों धर्मोंका अपने-अपने दृष्टिकोणसे घड़ा अविरोधी आधार है तब घड़े को हम उभयदृष्टिसे अस्ति नास्ति रूप भी निश्चित ही कहते हैं। पर शब्द में यह सामर्थ्य नहीं है कि घटके पूर्णरूपको - जिसमें 'अस्ति नास्ति' जैसे एक-अनेक, नित्य- अनित्य आदि अनेकों युगल-धर्म लहरा रहे हैं——कह सके अतः समग्रभावसे घड़ा अवक्तव्य है। इस प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे तत्तत् धर्मोके वास्तविक निश्चयकी घोषणा करता है तब इसे सम्भावनावाद में कैसे रखा जा सकता है ? स्यात् शब्दके साथ ही एवकार भी लगा रहता है जो निर्दिष्ट धर्मका अवधारण सूचित करता है तथा स्यात् शब्द उस निर्दिष्ट धर्मसे अतिरिक्त अन्य धर्मोकी निश्चित स्थितिकी सूचना देता है। जिससे श्रोता यह न समझ ले कि वस्तु इसी धर्मरूप है । यह स्याद्वाद कल्पित धर्मोतक व्यवहारके लिए भले ही पहुँच जाय, पर वस्तुव्यवस्थाके लिए वस्तुकी सीमाको नहीं लाँघता । अतः न यह संशयवाद है, न अनिश्चयवाद और न संभावनावाद ही, किन्तु खरा अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद है । इसी तरह डॉ० देवराजजी का पूर्वी और पश्चिमी दर्शन ( पृष्ठ ६५ ) में किया गया स्यात् शब्दका 'कदाचित्' अनुवाद भी भ्रामक है । कदाचित् शब्द कालापेक्ष है । इसका सीधा अर्थ है किसी समय । और - प्रचलित अर्थ में यह संशयकी ओर ही झुकाता है । स्यात्का प्राचीन अर्थ है कथञ्चित् - अर्थात् किसी निश्चित प्रकारसे, स्पष्ट शब्दों में अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे । इस प्रकार अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयवाद ही स्याद्वादका अभ्रान्त वाच्यार्थ है । महापंडित राहुल सांकृत्यायनने तथा इतः पूर्वं प्रो० जैकोबी आदिने स्याद्वादकी उत्पत्तिको संजय वेलट्ठपुत्तके तसे बताने का प्रयत्न किया है। राहुलजीने 'दर्शन दिग्दर्शन ( पृ० ४९६ ) ' में लिखा है कि"आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्याद्वाद है । जो मालूम होता है संजय वेलट्ठिपुत्तके चार अंगवाले अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। संजयने तत्त्वों ( परलोक देवता ) के बारेमें भी निश्चयात्मक रूपसे कहने से इन्कार करते हुए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है कुछ इसकी १ - है ? नहीं कह सकता । २- नहीं है ? नहीं कह सकता । ३ - है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता । ४न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता । तुलना 'कीजिये जैनोंके सात प्रकारके स्याद्वादसे१ - है ? हो सकता स्यादस्ति ) २- नहीं है ? नहीं भी हो सकता है ( स्यान्नास्ति ) ३ है भी और नहीं भी ? है भी और नहीं भी हो सकता ( स्यादस्ति च नास्ति च ) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं ( = वक्तव्य हैं ) ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं४-स्याद् ( हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता ( = वक्तव्य ) है ? नहीं, स्याद् अवक्तव्य है । ५- ' स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ - ' स्याद् नास्ति ' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है । ७- ' स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं 'स्यादस्ति च नास्ति च' अ-वक्तव्य है । ४ / विशिष्ट निबन्ध : ८७ दोनों के मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोंने संजयके पहिलेवाले तीन वाक्यों ( प्रश्न और उत्तर दोनों ) को अलग करके अपने स्याद्वादकी छह भंगियाँ बनाई हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है' को जोड़कर 'स्याद्' भी अवक्तव्य है, यह सातवाँ भंग तैयारकर अपनी सप्तभंगी पूरी की । ..... इस प्रकार एक भी सिद्धान्त = वाद ) की स्थापना न करना जो कि संजयका वाद था, उसीको संजयके अनुयायियों के लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया और उसको चतुभंगी न्यायको सप्तभंगी में परिणत कर दिया । " राहुलजी ने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और स्याद्वाद के नये मतकी सृष्टि की है । यह तो ऐसा हो है जैसे कि चोरसे वह कहे कि मैं नहीं कह सकता कि गया था" और जज जगह गया था । तब शब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जजका फैसला चोरके बयान से निकला है । स्वरूपको न समझकर केवल शब्दसाम्यसे एक "क्या तुम अमुक जगह गये थे ? यह पूछने पर अन्य प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दे कि चोर अमुक संजयवेलट्ठिपुत्त के दर्शनका विवेचन स्वयं राहुलजीने ( पृ० ४९१ ) इन शब्दों में किया है - "यदि आप पूछें— 'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है । परलोक नहीं है । परलोक नहीं नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी है । परलोक न है और न नहीं है ।" संजयके परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तिके सम्बन्धके ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवादके हैं । वह स्पष्ट कहता है कि--"यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ ।” संजयको परलोक मुक्ति आदिके स्वरूपका कुछ भी निश्चय नहीं था इसलिए उसका दर्शन वकौल राहुलजीके मानवकी सहजबुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर भ्रान्त धारणाओंकी पुष्टि ही करना चाहता है । तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादी था । बुद्ध और संजय - बुद्धने "लोक नित्य है', अनित्य है, नित्य-अनित्य है, न नित्य, न अनित्य है; लोक अन्तवान् है', नहीं है, है - नहीं है, न है न नहीं है; निर्वाणके बाद तथागत होते हैं', नहीं होते, होते नहीं होते, न होते न नहीं होते; जीव शरीरसे भिन्न है', जीव शरीरसे भिन्न नहीं है ।" ( माध्यमिक वृत्ति पृ० ४४६ ) इन चौदह वस्तुओंको अव्याकृत कहा है । मज्झिमनिकाय ( २।२।३ ) में इनकी संख्या दश है । इसमें आदिके दो प्रश्नोंमें तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया है । इनके अव्याकृत होनेका कारण बुद्धने बताया है कि इनके बारेमें कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिये उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद निरोध शान्ति या परमज्ञान निर्वाणके लिये आवश्यक है । तात्पर्य यह कि बुद्धकी दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिए आवश्यक नहीं था । दूसरे शब्दों में बुद्ध भी संजयकी तरह, इनके बारेमें कुछ कहकर मानवकी सहज बुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त धारणाओं को पुष्ट ही करना चाहते थे । हाँ, संजय जब अपनी अज्ञानता या अनिश्चयको साफ-साफ शब्दों में कह देता है कि यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, तब बुद्ध अपने जानने-न जाननेका उल्लेख न करके उस रहस्यको शिष्योंके लिए अनुपयोगी बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं । किसी भी तार्किकका यह प्रश्न अभी तक असमाहित ही रह जाता है कि इस Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवादमें क्या अन्तर है? सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की तरह खरीखरी बात कह देता है और बुद्ध बड़े आदमियोंकी शालीनताका निर्वाह करते हैं। बुद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वातावरणमें आत्मा लोक परलोक और मुक्तिके स्वरूपके सम्बन्धमें-'है ( सत् ), नहीं ( असत् ), है-नहीं (सदसत् उभय), न है न नहीं है (अवक्तव्य या अनुभय)।' ये चार कोटियाँ गंज रही थीं। कोई भी प्राश्निक किसी भी तीर्थङ्कर या आचार्यसे बिना किसी संकोचके अपने प्रश्नको एक साँसमें ही उक्त चार कोटियोंमें विभाजित करके ही पूछता था। जिस प्रकार आज कोई भी प्रश्न मजदूर और पूंजीपति शोषक और शोष्यके द्वन्द्वकी छायामें ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समय आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभय-अनिर्वचनीय इस चतुष्कोटिमें आवेष्टित रहते थे। उपनिषद् या ऋग्वेदमें इस चतुष्कोटिके दर्शन होते हैं। विश्वके स्वरूपके सम्बन्धमें असत्से सत् हुआ ? या सत्से सत् हुआ? या सदसत् दोनों रूपसे अनिर्वचनीय है ? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् और वेदमें बराबर उपलब्ध होते है ? ऐसी दशामें राहुलजीका स्याद्वादके विषयमें यह फतवा दे देना कि संजयके प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भङ्गीको तोड़मरोड़कर सप्तभङ्गी बनी-कहाँ तक उचित है, यह वे स्वयं विचारें । बुद्धके समकालीन जो छह तीथिक थे उनमें महावीर निग्गण्ठ नाथपुत्रकी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शीके रूपमें प्रसिद्धि थी। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे या नहीं यह इस समयकी चरचाका विष पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक थे और किसी भी प्रश्नको संजयकी तरह अनिश्चय कोटि या विक्षेप' कोटिमें या बुद्ध की तरह अव्याकृत कोटिमें डालनेवाले नहीं थे और न शिष्योंकी सहज जिज्ञासाको अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमें डुबा देना चाहते थे। उनका विश्वास था कि संघके पँचमेल व्यक्ति जब तक वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते तब तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसबल नहीं आ सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य संघके भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण हतप्रभ रहेंगे और इसका असर उसके जीवन और आचारपर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्योंको पर्देबन्द पद्मनियोंकी तरह जगत्के स्वरूप-विचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना चाहते थे, किन्तु चाहते थे कि प्रत्येक प्राणी अपनी सहज जिज्ञासा और मननशक्तिका वस्तुके यथार्थ स्वरूपके विचारकी ओर लगावे । न उन्हें बुद्धकी तरह यह भय व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धमें 'है' कहते हैं तो शाश्वतवाद अर्थात् उपनिषद्वादियोंकी तरह लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायेंगे और नहीं कहनेसे उच्छेदवाद अर्थात् चार्वाककी तरह नास्तित्वका प्रसंग प्राप्त होगा । अतः इस प्रश्नको अव्याकृत रखना ही श्रेष्ठ है । वे चाहते थे कि मौजूद तर्कोका और संशयोंका समाधान वस्तुस्थितिके आधारसे होना ही चाहिये । अतः उन्होंने वस्तुस्वरूपका अनुभवकर यह बताया कि जगत्का प्रत्येक सत् चाहे वह चेतनजातीय हो या अचेतनजातीय, परिवर्तनशील है। वह निसर्गतः प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है, उसकी पर्याय बदलती रहती है, उसका परिणमन कभी सदृश भी होता है, कभी विसदृश भी । पर परिणमनसामान्यके प्रभावसे कोई भी अछूता नहीं रहता। यह एक मौलिक नियम है कि किसी भी सत्का विश्वसे सर्वथा उच्छेद नहीं हो सकता, यह परिवर्तित होकर भी अपनी मौलिकता या सत्ताको नहीं खो सकता। एक परमाणु है वह हाइड्रोजन बन जाय, जल बन जाय, भाप बन जाय, फिर पानी हो जाय, पथिवी बन जाय, और अनन्त आकृतियाँ या पर्यायोंको धारण कर ले, पर अपने द्रव्यत्व या मौलिकत्वको नहीं खो सकता। किसीकी ताकत नहीं जो उस परमाणुकी हस्ती या अस्तित्वको मिटा सके। तात्पर्य यह कि जगत्में जितने 'सत्' है उतने बने रहेंगे । उनमेंसे एक भी कम नहीं हो सकता, एक-दूसरे में विलीन नहीं १. प्रो० धर्मानन्द कोसाम्बीने संजयके वादको विक्षेपवाद संज्ञा दी है । देखो-भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ४७ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ८९ हो सकता । इसी तरह न कोई नया 'सत्' उत्पन्न हो सकता है। जितने हैं उनका ही आपसी संयोगवियोगोंके आधारसे यह विश्व जगत् ( 'गच्छतीति जगत्' अर्थात् नाना रूपोंका प्राप्त होना) बनता रहता है । तात्पर्य यह कि - विश्वमें जितने सत् हैं उनमें से न तो एक कम हो सकता है और न एक बढ़ सकता है । अनन्त जड़ परमाणु अनन्त आत्माएँ, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश, और असंख्य कालाणु इतने सत् हैं । इनमें धर्म अधर्म आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूपमें सदा विद्यमान रहते हैं, उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता । इसका अर्थ यह नहीं है कि ये कूटस्थ नित्य हैं, किन्तु इनका प्रतिक्षण जो परिणमन होता है वह सदृश स्वाभाविक परिणमन ही होता है । आत्मा और पुद्गल ये दो द्रव्य एक-दूसरेको प्रभावित करते हैं । जिस समय आत्मा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने प्रतिक्षणभावी स्वाभाविक परिणमनका 'स्वामी रहता है, उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती। जब तक आत्मा अशुद्ध है तब तक ही इसके परिणमनपर सजातीय जीवान्तरका और विजातीय पुद्गलका प्रभाव आनेसे विलक्षणता आती है । इसकी नानारूपता प्रत्येकको स्वानुभवसिद्ध है । जड़ पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो सदा सजातीयसे भी प्रभावित होता है और विजातीय चेतनसे भी । इसी पुद्गल द्रव्यका चमत्कार आज विज्ञानके द्वारा हम सबके सामने प्रस्तुत है । इसीके हीनाधिक संयोग-वियोगोंके फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं । विद्युत् शब्द आदि इसीके रूपान्तर हैं, इसीकी शक्तियाँ हैं । जीवकी अशुद्ध दशा इसीके संपर्कसे होती है । अनादिसे जीव और पुद्गलका ऐसा संयोग है जो पर्यायान्तर लेनेपर भी जीव इसके संयोगसे मुक्त नहीं हो पाता और उसमें विभाव परिणमन - राग द्वेष मोह अज्ञानरूप दशाएँ होती रहती हैं । जब यह जीव अपनी चारित्रसाधना द्वारा इतना समर्थ और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता है कि उसपर बाह्य जगत्का कोई भी प्रभाव न पड़ सके तो वह मुक्त हो जाता है और अपने अनन्त चैतन्य में स्थिर हो जाता है । यह मुक्त जीव अपने प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्यमें लीन रहता है । फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होती । अन्ततः पुद्गल परमाणु ही ऐसे हैं जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी भी दशामें दूसरे संयोगके आधारसे नाना आकृतियाँ और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते रहते हैं । इस जगत् व्यवस्था में किसी एक ईश्वर-जैसे नियन्ताका कोई स्थान नहीं है, यह तो अपने-अपने संयोग-वियोगोंसे परिणमनशील है। प्रत्येक पदार्थका अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षणभावी परिणमनचक्र चालू है । यदि कोई दूसरा संयोग आ पड़ा और उस द्रव्यने इसके प्रभावSat आत्मसात किया तो परिणमन तत्प्रभावित हो जायगा, अन्यथा वह अपनी गतिसे बदलता चला जायगा । हाइड्रोजनका एक अणु अपनी गतिसे प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूपमें बदल रहा है। यदि आक्सीजनका अणु उसमें आजुट तो दोनोंका जलरूप परिणमन हो जायगा । वे एक 'बिन्दु' रूपसे सदृश संयुक्त परिणमन कर लेंगे । यदि किसी वैज्ञानिक विश्लेषण प्रयोगका निमित्त मिला तो वे दोनों फिर जुदा-जुदा भी हो सकते हैं । यदि अग्निका संयोग मिल गया भाफ बन जायेंगे । यदि साँपके मुखका संयोग मिला विषबिन्दु हो जायेंगे । तात्पर्यं यह कि यह विश्व साधारणतया पुद्गल और अशुद्ध जोवके निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्धका वास्तविक उद्यान है । परिणमनचक्रपर प्रत्येक द्रव्य चढ़ा हुआ है । वह अपनो अनन्त योग्यताओं के अनुसार अनन्त परिणमनों को क्रमश: धारण करता है । समस्त 'सत्' के समुदायका नाम लोक या विश्व है । इस दृष्टिसे अब आप लोकके शाश्वत और अशाश्वतवाले प्रश्नको विचारिए - १- क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत है । द्रव्योंकी संख्याको दृष्टिसे, अर्थात् जितने सत् इसमें हैं उनमेंका एक भी सत् कम नहीं हो सकता और न उनमें किसी नये सत्की वृद्धि ही हो सकती है । ४-१२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ न एक सत् दूसरेमें विलीन ही हो सकता है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जो इसके अंगभूत द्रव्योंका लोप हो जाय या वे समाप्त हो जायँ । २- क्या लोक अशाश्वत है ? हाँ, लोक अशाश्वत है, अङ्गभूत द्रव्योंके प्रतिक्षणभावी परिणमनोंकी दृष्टि ? अर्थात् जितने सत् हैं वे प्रतिक्षण सदृश या विसदृश परिणमन करते रहते हैं । इसमें दो क्षण तक ठहरनेवाला कोई परिणमन नहीं है । जो हमें अनेक क्षण ठहरनेवाला परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी सदृश परिणमनका स्थूल दृष्टिसे अवलोकनमात्र है । इस तरह सतत परिवर्तनशील संयोग-वियोगों की दृष्टिसे विचार कीजिये तो लोक अशाश्वत है, अनित्य है, प्रतिक्षण परिवर्तित है । ३- क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप है ? हाँ, क्रमशः उपर्युक्त दोनों दृष्टियोंसे विचार कीजिए तो लोक शाश्वत भी है ( द्रव्यदृष्टिसे ), अशाश्वत भी है ( पर्यायदृष्टिसे ) । दोनों दृष्टिकोणोंको क्रमशः प्रयुक्त करनेपर और उन दोनोंपर स्थूल दृष्टिसे विचार करनेपर जगत् उभयरूप ही प्रतिभासित होता है । ४- क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप नहीं है ? आखिर उसका पूर्ण रूप क्या है ? हाँ, लोकका पूर्णरूप अवक्तव्य हैं, नहीं कहा जा सकता । कोई शब्द ऐसा नहीं जो एक साथ शाश्वत और अशाश्वत इन दोनों स्वरूपों को तथा उसमें विद्यमान अन्य अनन्त धर्मोको युगपत् कह सके । अतः शब्दकी असामर्थ्य के कारण जगत्का पूर्णरूप अवक्तव्य है, अनुभय है, वचनातीत है । इस निरूपण में आप देखेंगे कि वस्तुका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है, अनिर्वचनीय या अवक्तव्य है । यह चौथा उत्तर वस्तुके पूर्ण रूपको युगपत् कहने की दृष्टिसे है । पर वही जगत् शाश्वत कहा जाता है द्रव्यदृष्टिसे, अशाश्वत कहा जाता है पर्यायदृष्टिसे । इस तरह मूलतः चौथा, पहिला और दूसरा ये तीन ही प्रश्न मौलिक हैं। तीसरा उभयरूपताका प्रश्न तो प्रथम और द्वितीयके संयोगरूप है । अब आप विचारों कि संजयने जब लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिके बारेमें स्पष्ट कह दिया कि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ और बुद्धने कह दिया कि इनके चक्करमें न पड़ो, इसका जानना उपयोगी नहीं तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुस्थितिके अनुसार यथार्थं उत्तर दिया और शिष्योंकी जिज्ञासाका समाधान कर उनको बौद्धिक दीनतासे त्राण दिया । इन प्रश्नोंका स्वरूप इस प्रकार है— संजय प्रश्न १- क्या लोक शाश्वत है ? २- क्या लोक अशाश्वत है ? मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, ( अनिश्चय, विक्षेप ) ३- क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत है ? 17 बुद्ध इसका जानना अनुपयोगी है ( अव्याकृत, अकथनीय ) 27 महावीर हाँ, लोक द्रव्य-दृष्टिसे शाश्वत है, इसके किसी भी सत्का सर्वथा नाश नहीं हो सकता । हाँ, लोक अपने प्रतिक्षण भावी परिवर्तनों की दृष्टिसे अशाश्वत है, कोई भी पदार्थ दो क्षणस्थायी नहीं । हाँ, दोनों दृष्टिकोणों से क्रमश: विचार करनेपर लोकको शाश्वत भी कहते हैं और अशाश्वत भी । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : ९१ ४-क्या लोक दोनों रूप नहीं है हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं जो अनुभय है ? लोकके परिपूर्ण स्वरूपको एक साथ समग्र भावसे कह सके। उसमें शाश्वत, अशाश्वतके सिवाय भी अनन्त रूप विद्यमान हैं अतः समग्र भावसे वस्तु अनुभय है, अवक्तव्य है, अनिर्वचनीय है। __ संजय और बुद्ध जिन प्रश्नोंका समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कहकर अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हींका वास्तविक युक्तिसंगत समाधान करते हैं। इसपर भी राहुलजी और धर्मानन्द कोसाम्बी आदि यह कहनेका साहस करते हैं कि 'संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर संजयके बादको ही जैनियोंने अपना लिया। यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि भारतमें रही परतन्त्रताको ही परतन्त्रताविधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर भारतीयोंने उसे अपरतन्त्रता (स्वतन्त्रता ) रूपसे अपना लिया है, क्योंकि अपरतन्त्रता भी 'प र तन्त्र ता' ये पाँच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसाको ही बुद्ध और महावीरने उसके अनुयायियोंके लुप्त होनेपर अहिंसारूपसे अपना लिया है, क्योंकि अहिंसामें भी "हिं सा' ये दो अक्षर है ही । यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि-आप ( पृ० ४८४ ) अनिश्चिततावादियोंकी सूचीमें संजयके साथ निग्गंठ नाथपुत्त ( महावीर ) का नाम भी लिख जाते हैं, तथा (पृ० ४९१ ) संजयको अनेकान्तवादी । क्या इसे धर्मकीतिके शब्दोंमें 'धिग व्यापकं तमः' नहीं कहा जा सकता? ___ 'स्यात्' शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको संशय अनिश्चय या संभावनाका भ्रम होता है। पर यह तो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसङ्गकी, जहाँ एक वादका स्थापन नहीं होता । एकाधिक भेद या विकल्पकी सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'स्यात्' पदका प्रयोग भाषाकी शैलीका एक रूप रहा है जैसा कि मज्झिमनिकायके महाराहुलोवाद सुत्तके निम्नलिखित अवतरणसे ज्ञात होता है-“कतमा च राहुल तेजोधातु ? तेजोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा।" अर्थात् तेजो धातु स्यात् आध्यात्मिक है, स्यात् बाह्य है । यहाँ सिया ( स्यात् ) शब्दका प्रयोग तेजो धातुके निश्चित भेदोंकी सूचना देता है, न कि उन भेदोंका संशय अनिश्चय या सम्भावना बताता है। आध्यात्मिक भेदके साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात शब्द इस बातका द्योतन करता है कि तेजो धातु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त बाह्य भी है । इसी तरह 'स्यादस्ति' में अस्तिके साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द सूचित करता है कि 'अस्ति से भिन्न धर्म भी वस्तुमें है केवल 'अस्ति' धर्मरूप हो वस्तु नहीं है । इस तरह 'स्यात्' शब्द न 'शायद' का न अनिश्चय' का और न सम्भावनाका सूचक है किन्तु निर्दिष्ट धर्मके सिवाय अन्य अशेष धर्मोंकी सूचना देता है जिससे श्रोता वस्तुको निर्दिष्ट धर्ममात्र रूप ही न समझ बैठे। सप्तभंगो-वस्तु मलतः अनन्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न विवक्षाओंसे अनन्त धर्म हैं। प्रत्येक धर्मका विरोधी धर्म भी दृष्टिभेदसे वस्तुमें सम्भव है। जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है ही अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादासे । जिस प्रकार घटमें स्वचतुष्टयकी अपेक्षा 'अस्तित्व' धर्म है, उसी तरह घटव्यतिरिक्त अन्य पदार्थोंका 'नास्तित्व' भी घटमें है। यदि घटभिन्न पदार्थोका नास्तित्व घटमें न पाया जाय तो घट और पदार्थ मिलकर एक हो जायँगे । अतः घट स्यादस्ति और स्यान्नास्ति रूप है। इसी तरह वस्तमें Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं द्रव्यदृष्टिसे नित्यत्व, पर्यायदृष्टिसे अनित्यत्व आदि अनेकों विरोधी धर्मयुगल रहते हैं। एक वस्तुमें अनन्त सप्तभङ्ग बनते हैं । जब हम घटके अस्तित्वका विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सात भङ्ग हो सकते हैं। जैसे संजयके प्रश्नोत्तर या बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोत्तरमें हम चार कोटि तो निश्चित रूपसे देखते हैं-सत्, असत्, उभय और अनुभय । उमी तरह गणितके हिसाबसे तीन मूल भंगोंको मिलानेपर अधिकसे अधिक सात अपुनरुक्त भंग हो सकते हैं। जैसे घड़ेके अस्तित्वका विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तित्व धर्म, दूसरा तद्विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तुके पूर्ण रूपकी सूचना देता है कि वस्तु पूर्ण रूपसे वचनके अगोचर है। उसके विराट रूपको शब्द नहीं छू सकते । अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षासे है कि दोनों धर्मोको युगपत् कहनेवाला शब्द संसारमें नहीं है अतः वस्तु यथार्थतः वचनातीत है, अवक्तव्य है। इस तरह मूलमें तीन भङ्ग हैं१-स्यादस्ति घटः २-स्यान्नास्ति घटः ३-स्यादवक्तव्यो घटः अववतव्यके साथ स्यात् पद लगानेका भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्ण रूपमें यदि अवक्तव्य है तो क्रमशः अपने अपूर्ण रूप में वक्तव्य भी है और वह अस्ति-नास्ति आदि रूपसे वचनोंका विषय भी होती है । अतः वस्तु स्याद् वक्तव्य है । जब मूल भंग तोन हैं तब इनके द्विसंयोगी भंग भो तीन होंगे तथा त्रिसंयोगी भंग एक होगा । जिस तरह चतुष्कोटिमें सत् और असत्को मिलाकर प्रश्न होता है कि क्या सत् होकर भी वस्तु असत् है ?' उसी तरह ये भी प्रश्न हो सकते हैं कि-१ क्या सत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? २. क्या असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? ३ क्या सत्-असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान संयोगज चार भंगों में है। अर्थात् ४-अस्ति नास्ति उभय रूप वस्तु है-स्वचतुष्टय और परचतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर । ५-अस्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपर चतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंको सामूहिक विवक्षा रहनेपर । ६-नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें परचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपर चतुष्टयकी क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर । ७-अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय, द्वितीय समयमें परचतुष्टय तथा तृतीय समयमें युगपत् स्व-पर चतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और तीनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर । ब अस्ति और नास्तिकी तरह अवक्तव्य भी वस्तुका धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलाकर चौथा भंग बन जाता है वैसे ही अवक्तव्यके साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्ति-नास्ति मिलकर पांचवें, छठवें और सातवें भंगकी सृष्टि हो जाती है। इस तरह गणितके सिद्धान्तके अनुसार तीन मल वस्तुओंके अधिक-से-अधिक अपुनरुक्त सात ही भंग हो सकते है । तात्पर्य यह कि वस्तुके प्रत्येक धर्म को लेकर सात प्रकारकी जिज्ञासा हो सकती है, सात प्रकारके प्रश्न हो सकते हैं अतः उनके उत्तर भी सात प्रकारके ही होते हैं। दर्शनदिग्दर्शनमें श्री राहुलजीने पाँचवें छठवें और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोडा-मरोडा है वह उनकी अपनी निरो कल्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना चाहते है तो किसी भी दर्शनकी समीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझकर ही करनी चाहिए। वे अवक्तव्य नामक धर्मको जो कि सतके साथ स्वतन्त्रभावसे द्विसंयोगी हुआ है, तोड़कर अ-वक्तव्य करके Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ९३ संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और 'संजयके घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह देते हैं! किमाश्चर्यमतः परम् ? श्री सम्पूर्णानन्दजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना ( पृ० ३ ) में अनेकान्तवादकी ग्राह्यता स्वीकार करके भी सप्तभंगी न्यायको बालकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमें जाना समझते हैं। पर सप्तभंगीको आजसे अढ़ाई हजार वर्ष पहिलेके वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी माँग कहे बिना नहीं रह सकते । अढ़ाई हजार वर्ष पहिले आबाल-गोपाल प्रत्येक प्रश्नको सहज तरीकेसे 'सत् असत् उभय और अनुभय' इन चार कोटियोंमें गूंथकर ही उपस्थित करते थे और उस समयके भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटिका ही, हाँ या ना में देते थे तब जैन तीर्थंकर महावीरने मल तीन भंगोंके गणितके नियमानुसार अधिक-से-अधिक सात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभंगी द्वारा किया जो निश्चितरूपसे वस्तुकी सीमाके भीतर ही रही है। अनेकान्तवादने जगतके वास्तविक अनेक सतका अपलाप नहीं किया और न वह केवल कल्पनाके क्षेत्रमें विचरा है।। मेरा उन दार्शनिकोंसे निवेदन है कि भारतीय परम्परामें जो सत्यकी धारा है उसे 'दर्शनग्रन्थ' लिखते समय भी कायम रखें और समीक्षाका स्तम्भ तो बहुत सावधानी और उत्तरदायित्वके साथ लिखनेकी कृपा करें जिससे दर्शन केवल विवाद और भ्रान्त परम्पराओंका अजायबघर न बने । वह जीवनमें संवाद लावे और दर्शनप्रणेताओंको समुचित न्याय दे सके। इस तरह जैनदर्शनने 'दर्शन' शब्दकी काल्पनिक भूमिकासे निकलकर वस्तु-सीमापर खड़े होकर जगत्में वस्तु-स्थितिके आधारसे संवाद समीकरण और यथार्थतत्वज्ञानकी दृष्टि दी। जिसकी उपासनासे विश्व अपने वास्तविक रूपको समझकर निरर्थक विवादसे बचकर सच्चा संवादी बन सकता है। अनेकान्तदर्शनका सांस्कृतिक आधार भारतीय विचार परम्परामें स्पष्टतः दो धाराएँ है। एक धारा वेदको प्रमाण माननेवाले वैदिक दर्शनोंकी है और दूसरी वेदको प्रमाण न मानकर पुरुषानुभव या पुरुषासाक्षात्कारको प्रमाण माननेवाले श्रमण सन्तोंकी। यद्यपि चार्वाक दर्शन भी वेदको प्रमाण नहीं मानता, किन्तु उसने आत्माका अस्तित्व जन्मसे मरण पर्यन्त हो स्वीकार किया है। उसने परलोक, पुण्य, पाप और मोक्ष जैसे आत्मप्रतिष्ठित तत्त्वोंको तथा आत्मसंशोधक चारित्र आदि की उपयोगिताको स्वीकृत नहीं किया है। अतः अवैदिक होकर भी वह श्रमणधारामें सम्मिलित नहीं किया जा सकता। श्रमणधारा वैदिक परम्पराको न मानकर भी आत्मा, जड़भिन्न ज्ञान-सन्तान, पुण्य-पाप, परलोक, निर्वाण आदिमें विश्वास रखती है, अतः पाणिनिकी परिभाषाके अनुसार आस्तिक है। वेदको या ईश्वरको जगत्कर्ता न माननेके कारण श्रमणधाराको नास्तिक कहना उचित नहीं है । क्योंकि अपनी अमुक परम्पराको न माननेके कारण यदि श्रमण नास्तिक कहे जाते हैं तो श्रमण-परम्पराको न माननेके कारण वैदिक भी मिथ्यादृष्टि आदि विशेषणोंसे पुकारे गये हैं। श्रमणधाराका सारा तत्त्वज्ञान या दर्शनविस्तार जीवन-शोधन या चारित्र्य-वृद्धिके लिए हुआ था। वैदिक परम्परामें तत्त्वज्ञानको मुक्तिका साधन माना है, जब कि श्रमणधारामें चारित्रको । वैदिक-परम्परा वैराग्य आदिसे ज्ञानको पुष्ट करती है, विचारशुद्धि करके मोक्ष मान लेती है; जबकि श्रमण परम्परा कहती १. जैन कथाग्रन्थोंमें महावीरके बालजीवनकी एक घटनाका वर्णन आता है कि-'संजय और विजय नामके दो साधुओंका संशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, इसलिए इनका नाम सन्मति रखा गया था।' सम्भव है यह संजय-विजय संजयवेल ठिपुत्त ही हों और इसीके संशय या अनिश्चयका नाश महावीरके सप्तभंगी न्यायसे हआ हो और वेलपित्त विशेषण ही भ्रष्ट होकर विजय नामका दूसरा साधु बन गया हो । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ है कि उस ज्ञान या उस विचारका कोई मूल्य नहीं जो जीवन में न उतरे। जिसकी सुवाससे जीवनशोधन न हो वह ज्ञान या विचार मस्तिष्कके व्यायामसे अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखते । जैन परम्परामें तत्त्वार्थ सूत्रका आधसूत्र है - " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " ( तत्त्वार्थ सूत्र १1१ ) अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी आत्मपरिणति मोक्षका मार्ग । यहाँ मोक्षका साक्षात् कारण चारित्र है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो उस चारित्रके परिपोषक हैं । बौद्ध परम्पराका अष्टांग मार्ग भी चारित्रका ही विस्तार है । तात्पर्य यह कि श्रमणधारा में ज्ञानकी अपेक्षा चारित्रका ही अन्तिम महत्त्व रहा है और प्रत्येक विचार और ज्ञानका उपयोग चारित्र अर्थात् आत्मशोधन या जीवनमें सामञ्जस्य स्थापित करनेके लिए किया गया है। श्रमण सन्तोंने तप और साधनाके द्वारा वीतरागता प्राप्त की और उसी परम वीतरागता, समता या अहिंसाको उत्कृष्ट ज्योतिको विश्व में प्रचारित करने के लिए विश्वतत्त्वोंका साक्षात्कार किया। इनका साध्य विचार नहीं आचार था, ज्ञान नहीं चारित्र्य था, वाग्विलास या शास्त्रार्थं नहीं, जीवन-शुद्धि और संवाद था । अहिंसाका अन्तिम अर्थ है - जीवमात्रमें ( चाहे वह स्थावर हो या जंगम, पशु हो या मनुष्य, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो या शूद्र, गोरा हो या काला, एतद्देशीय हो या विदेशी ) देश, काल, शरीरकारके आवरणोंसे परे होकर समत्व-दर्शन । प्रत्येक जीव स्वरूपसे चैतन्य शक्तिका अखण्ड शाश्वत आधार है । वह कर्म या वासनाओंके कारण वृक्ष, कीड़ा-मकोड़ा, पशु और मनुष्य आदि शरीरोंको धारण करता है, पर अखण्ड चैतन्यका एक भी अंश उसका नष्ट नहीं होता । वह वासना या रागद्वेषादिके द्वारा विकृत अवश्य हो जाता है । मनुष्य अपने देश, काल आदि निमित्तोंसे गोरे या काले किसी भी शरीरको धारण किए हो, अपनी वृत्ति या कर्मके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी श्रेणीमें उसकी गणना व्यवहारतः की जाती हो, किसी भी देशमें उत्पन्न हुआ हो, किसी भी सन्तका उपासक हो, वह इन व्यावहारिक निमित्तोंसे ऊँच या नीच नहीं हो सकता । किसी वर्णविशेषमें उत्पन्न होनेके कारण ही वह धर्मका ठेकेदार नहीं बन सकता । मानवमात्र के मूलतः समान अधिकार हैं, इतना ही नहीं, किन्तु पशु-पक्षी, कीड़ेमकोड़े, वृक्ष आदि प्राणियोंके भी । अमुक प्रकारकी आजीविका या व्यापारके कारण कोई भी मनुष्य किसी मानवाधिकार से वंचित नहीं हो सकता । यह मानवसमत्त्व भावना, प्राणिमात्र में समता और उत्कृष्ट सत्त्वमैत्री अहिंसाके विकसित रूप हैं । श्रमणसन्तोंने यही कहा है कि - एक मनुष्य किसी भूखण्डपर या अन्य भौतिक साधनों पर अधिकार कर लेनेके कारण जगत्में महान् बनकर दूसरोंके निर्दलनका जन्मसिद्ध अधिकारी नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेषमें उत्पन्न होनेके कारण दूसरोंका शासक या धर्मका ठेकेदार नहीं हो सकता । भौतिक साधनों की प्रतिष्ठा बाह्यमें कदाचित् हो भी पर धर्मक्षेत्रमें प्राणिमात्रको एक ही भूमिपर बैठना होगा । हर एक प्राणीको धर्मकी शीतल छाया में समानभावसे सन्तोषकी साँस लेनेका सुअवसर है । आत्मसमत्त्व, वीतरागत्त्व या अहिंसाके विकाससे ही कोई महान् हो सकता है न कि जगत् में विषमता फैलानेवाले हिंसक परिग्रहके संग्रहसे । आदर्श त्याग है न कि संग्रह । इस प्रकार जाति, वर्ण, रङ्ग, देश, आकार, परिग्रहसंग्रह आदि विषमता और संघर्षके कारणोंसे परे होकर प्राणिमात्रको समत्त्व, अहिंसा और वीतरागताका पावन सन्देश इन श्रमणसन्तोंने उस समय दिया जब यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड एक वर्गविशेषकी जीविकाके साधन बने हुए थे, कुछ गाय, सोना और स्त्रियोंको दक्षिणासे स्वर्गके टिकिट प्राप्त हो जाते थे, धर्मके नामपर गोमेध, अजामेध क्वचित् नरमेध तकका खुला बाजार था, जातिगत उच्चत्त्व-नीचत्त्वका विष समाज - शरीरको दग्ध कर रहा था, अनेक प्रकारसे सत्ताको हथियाने के षड्यन्त्र चालू थे । उस बर्बर युग में मानवसमत्त्व और प्राणिमैत्रीका उदारतम सन्देश इन युगधर्मी सन्तोंने नास्तिकताका मिथ्या लांछन सहते हुए भी दिया और भ्रान्त जनताको सच्ची समाजरचनाका मूलमन्त्र बताया । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ९५ पर, यह अनुभवसिद्ध बात है । अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्ठा मनःशुद्धि और वचनशद्धिके बिना नहीं हो सकती। हम भले ही शरीरसे दूसरे प्राणियोंकी हिंसा न करें, पर यदि वचन-व्यवहार और चित्तगतविचार विषम और विसंवादी हैं तो कायिक अहिंसा पल ही नहीं सकती। अपने मनके विचार अर्थात् मतको पुष्ट करनेके लिए ऊँच नीच शब्द बोले जायेंगे और फलतः हाथापाईका अवसर आए बिना न रहेगा। भारतीय शास्त्रार्थोंका इतिहास अनेक हिंसा-कांडोंके रक्तरंजित पन्नोंसे भरा हुआ है। अतः यह आवश्यक था कि अहिंसाकी सर्वाङ्गीण प्रतिष्ठाके लिए विश्वका यथार्थ तत्त्वज्ञान हो और विचार-शुद्धिमूलक वचनशुद्धिकी जीवन-व्यवहारमें प्रतिष्ठा हो। यह सम्भव ही नहीं है कि एक ही वस्तुके विषयमें परस्पर-विरोधी मतवाद चलते रहें, अपने पक्ष के समर्थनके लिए उचित-अनुचित शास्त्रार्थ होते रहें, पक्ष-प्रतिपक्षोंका संगठन हो, शास्त्रार्थमें हारनेवालेको तलकी जलती कड़ाहीमें जीवित तल देने-जैसी हिंसक होड़ें भी लगें, फिर भी परस्पर अहिंसा बनी रहे। भगवान महावीर एक परम अहिंसक सन्त थे। उनने देखा कि आजका सारा राजकारण धर्म और मतवादियोंके हाथमें है । जब तक इन मतवादोंका वस्तु-स्थितिके आधारसे समन्वय न होगा तब तक हिंसा की जड़ नहीं कट सकती। उनने विश्वके तत्त्वोंका साक्षात्कार किया और बताया कि विश्वका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनन्त धर्मोंका भण्डार है। उसके विराट् स्वरूपको साधारण मानव परिपूर्णरूपमें नहीं जान सकता । उसका क्षुद्र ज्ञान वस्तुके एक-एक अंशको जानकर अपनेमें पूर्णताका दुरभिमान कर बैठा है। विवाद वस्तुमें नहीं है। विवाद तो देखनेवालोंकी दृष्टिमें है। काश, ये वस्तुके विराट् अनन्त-धर्मात्मक या अनेकात्मक स्वरूपकी झाँकी पा सकें । उनने इस अनेकान्तात्मक तत्त्वज्ञानकी ओर मतवादियों का ध्यान खींचा और बताया कि-देखो, प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण पर्याय और धर्मोंका अखण्ड पिण्ड है। यह अपनी अनाद्यनन्त सन्तान-स्थितिकी दृष्टिसे नित्य है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्वके रंगमञ्चसे एक कणका भी समूल विनाश हो जाय । साथ ही प्रतिक्षण उसकी पर्याएँ बदल रही हैं, उसके गुण-धर्मों में भी सदृश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है, अतः वह अनित्य भी है। इसी तरह अनन्तगुण, शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तुकी निजी सम्पत्ति हैं। इनमें से हमारा स्वल्प ज्ञानलव एक-एक अंशको विषय करके क्षुद्र मतवादोंकी सृष्टि कर रहा है। आत्माको नित्य सिद्ध करनेवालोंका पक्ष अपनी सारी शक्ति आत्माको अनित्य सिद्ध करनेवालोंकी उखाड़-पछाड़में लगा रहा है तो अनित्यवादियोंका गुट नित्यवादियोंको भला-बुरा कह रहा है। महावीरको इन मतवादियोंकी बुद्धि और प्रवृत्तिपर तरस आता था। वे बुद्धकी तरह आत्म-नित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदिको अव्याकृत ( अकथनीय ) कहकर बौद्धिक तमकी सृष्टि नहीं करना चाहते थे । उनने इन सभी तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्योंको प्रकाशमें लाकर उन्हें मानस समताकी समभूमि पर ला दिया। उनने बताया कि वस्तुको तुम जिस दृष्टिकोणसे देख रहे हो वस्तु उतनी ही नहीं है, उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखे जानेकी क्षमता है, उसका विराट स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है । तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालम होता है उसका ईमानदारीसे विचार करो, वह भी वस्तुमें विद्यमान है। चित्तसे पक्षपातकी दुरभिसन्धि निकालो और दूसरेके दृष्टिकोणको भी उतनी ही प्रामाणिकतासे वस्तुमें खोजो, वह वहीं लहरा रहा है । हाँ, वस्तुकी सीमा और मर्यादाका उल्लंघन नहीं होना चाहिए । तुम चाहो कि जड़में चेतनत्व खोजा जाय या चेतनमें जड़त्व, तो नहीं मिल सकता । क्योंकि प्रत्येक पदार्थके अपने-अपने निजी धर्म निश्चित हैं । मैं प्रत्येक वस्तुको अनन्त धर्मात्मक कह रहा हूँ, सर्वधर्मात्मक नहीं। अनन्त धर्मों में चेतनके Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सम्भव अनन्त धर्म चेतनमें मिलेंगे तथा अचेतनगत सम्भव धर्म अचेतनमें । चेतनके गुण-धर्म अचेतनमें नहीं पाये जा सकते और न अचेतनके चेतनमें । हाँ, कुछ ऐसे सामान्य धर्म भी है जो चेतन और अचेतन दोनोंमें साधारण रूपसे पाए जाते हैं । तात्पर्य यह कि वस्तुमें बहुत गुजाइश है। वह इतनी विराट् है जो हमारे तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है । एक क्षुद्र-दृष्टिका आग्रह करके दूसरेकी दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तुके स्वरूपकी नासमझीका परिणाम है। हरिभद्रसूरिने लिखा है कि "आग्रही वत निनीपति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा। पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।।"-लोकतत्त्वनिर्णय अर्थात्-आग्रही व्यक्ति अपने मतपोषणके लिए युक्तियाँ हूँढ़ता है, युक्तियोंको अपने मतकी ओर ले जाता है, पर पक्षपातरहित मध्यस्थ व्यक्ति युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपको स्वीकार करने में अपनी मतिकी सफलता मानता है। अनेकान्त दर्शन भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपकी ओर अपने मतको लगाओ न कि अपने निश्चित मतकी ओर वस्तु और युक्तिकी खींचातानी करके उन्हें बिगाड़नेका दुष्प्रयास करो, और न कल्पनाकी उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तुको सीमाको ही लाँघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमताके लिए यह वस्तुस्थितिमलक अनेकान्त तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस नरतनधारीको ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानीमें है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है। और वह किस दुरभिमानसे हिंसक मतवादका सर्जन करके मानवसमाजका अहित कर रहा है। इस मानस-अहिंसात्मक अनेकान्त-दर्शनसे विचारोंमें या दृष्टिकोणोंमें कामचलाऊ समन्वय या ढीलाढाला समझौता नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूपके आधारसे यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक समन्वय-दृष्टि प्राप्त होती है। डॉ० सर राधाकृष्णन् इण्डियन फिलासफी (जिल्द १, पृ० ३०५-६) में स्याद्वादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि-"इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है, स्याद्वादसे हम पूर्ण सत्यको नहीं जान सकते । दूसरे शब्दोंमें-स्याद्वाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मान लेनेकी प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निश्चित-अनिश्चित अर्धसत्योंको मिलाकर एक साथ रख देनेसे वह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता।" आदि । क्या सर राधाकृष्णन् बतानेकी कृपा करेंगे कि स्याद्वादने निश्चित-अनिश्चित अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य माननेकी प्रेरणा कैसे की है ? हाँ, वह वेदान्तकी तरह चेतन और अचेतनके काल्पनिक अभेदको दिमागी दौड़में अवश्य शामिल नहीं हुआ। और न वह किसी ऐसे सिद्धान्तका समन्वय करनेकी सलाह देता है जिसमें वस्तुस्थितिकी उपेक्षा की गई हो। सर राधाकृष्णन्को पूर्णसत्य रूपसे वह काल्पनिक अभेद या ब्रह्म इष्ट है जिसमें चेतन-अचेतन मूर्त-अमूर्त सभी काल्पनिक रीतिसे समा जाते हैं। वे स्याद्वादको समन्वयदृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकना समझते हैं, पर जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक है तब उस वास्तविक नतीजेपर पहुँचनेको अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं ? हाँ, स्याद्वाद उस प्रमाणविरुद्ध काल्पनिक अभेदकी ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टिसे नहीं जा सकता। वैसे, संग्रहनयकी एक चरम अभेदको कल्पना जैनदर्शनकारोंने भी की है और उस परम संग्रहनयकी अभेद दृष्टिसे बताया है कि-'सर्वमेकं सदविशेषत्' अर्थात्-जगत् एक है, सद्रपसे चेतन और अचेतनमें कोई भेद नहीं है। पर यह एक कल्पना है, क्योंकि ऐसा एक सत् नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमें अनुगत रहता हो । अतः यदि सर राधाकृष्णन्को चरम अभेदको कल्पना ही देखनी हो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ९७ तो वे परमसंग्रहनयके दष्टिकोणमें देख सकते हैं, पर वह केवल कल्पना ही होगी, वस्तुस्थिति नहीं । पूर्णसत्य तो वस्तुका अनेकान्तात्मक रूपसे दर्शन ही है, न कि काल्पनिक अभेदका दर्शन । इसी तरह प्रो० बलदेव उपाध्याय इस स्याद्वादसे प्रभावित होकर भी सर राधाकृष्णन्का अनुसरणकर स्याद्वादको मलभततत्त्व (एक ब्रह्म?) के स्वरूपके समझने में नितान्त असमर्थ बतानेका साहस करते हैं । इनने तो यहाँ तक लिख दिया है कि-'इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थ के बीचोबीच तत्त्वविचारको कतिपय क्षणके लिए विस्रम्भ तथा विराम देनेवाले विश्रामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता।" ( भारतीय दर्शन, पृ० १७३)। आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शनको उस काल्पनिक अभेद तक पहँचना चाहिए। पर स्याद्वाद जब वस्तुविचार कर रहा है तब वह परमार्थ सत् वस्तुकी सीमाको लाँघ सकता है ? ब्रह्मकवाद न केवल युक्तिविरुद्ध ही है पर आजके विज्ञानसे उसके एकीकरणका कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता। विज्ञानने एटम तकका विश्लेषण किया है और प्रत्येककी अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है। अतः यदि स्याद्वाद वस्तुकी अनेकान्तात्मक सीमापर पहुँचाकर बुद्धिको विराम देता है तो यह उसका भूषण ही है। दिमागी अभेदसे वास्तविक स्थितिकी उपेक्षा करना मनोरञ्जनसे अधिक महत्त्वको बात नहीं हो सकती। इसी तरह श्रीयुत् हनुमन्तराव एम. ए. ने अपने “Jain Instrumental theory of Knowledge" नामक लेखमें लिखा है कि--"स्याद्वाद सरल समझौतेका मार्ग उपस्थित करता है, वह पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता।" आदि। ये सब एक ही प्रकारके विचार हैं जो स्याद्वादके स्वरूपको न समझनेके या वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करनेके परिणाम है। मैं पहिले लिख चुका हूँ कि--महावीरने देखा कि--वस्तु तो अपने स्थानपर अपने विराट रूपमें प्रतिष्ठित है, उसमें अनन्त धर्म, जो हमें परस्पर विरोधी मालम होते है, अविरुद्ध भावसे विद्यमान हैं, पर हमारी दृष्टिमें विरोध होनेसे हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समझ पा रहे हैं। जैनदर्शन वास्तव-बहुत्ववादी है। वह दो पृथक्सत्ताक वस्तुओंको व्यवहारके लिए कल्पनासे अभिन्न कह भी दे, पर वस्तुकी निजी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करना चाहता। जैनदर्शन एक व्यक्तिका अपने गुण-पर्यायोंसे वास्तविक अभेद तो मानता है, पर दो व्यक्तियोंमें अवास्तविक अभेदको नहीं मानता। इस दर्शनकी यही विशेषता है, जो यह परमार्थ सत् वस्तुकी परिधिको न लाँधकर उसकी सीमामें ही विचार करता है और मनुष्योंको कल्पनाकी उड़ानसे विरतकर वस्तु की ओर देखनेको बाध्य करता है । जिस चरम अभेद तक न पहुँचने के कारण अनेकान्त दर्शनको सर राधाकृष्णन्-जैसे विचारक अर्धसत्योंका समुदाय कहते हैं उस चरम अभेदको भो अनेकान्त दर्शन एक व्यक्तिका एक धर्म मानता है। वह उन अभेदकल्पकोंको कहता है कि वस्तु इससे भी बड़ी है, अभेद तो उसका एक धर्म है। दृष्टिको और उदार तथा विशाल करके वस्तुके पूर्ण रूपको देखो, उसमें अभेद एक कोने में पड़ा होगा और अभेदके अनन्तों भाई-बन्धु उसमें तादात्म्य हो रहे होंगे। अतः इन ज्ञानलवधारियोंको उदारदृष्टि देनेवाले तथा वस्तुको झाँकी दिखानेवाले अनेकान्तदर्शनने वास्तविक विचारकी अन्तिम रेखा खींची है, और यह सब हुआ है मानस-समतामलक तत्त्वज्ञानकी खोजसे । जब इस प्रकार वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनन्तधर्मा त्मिका है तब सहज ही मनुष्य यह सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है उसकी सहानुभूतिसे समीक्षा होनी चाहिये और वस्तुस्थितिमलक समीकरण होना चाहिये । इस स्वीयस्वल्पता और वस्तु-अनन्तधर्मताके वातावरणसे निरर्थक कल्पनाओंका जाल टूटेगा और अहंकारका विनाश होकर मानससमताकी सृष्टि होगी। जो कि अहिंसाका संजीवन बीज है । इस तरह मानस-समताके लिए अनेकान्त दर्शन ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है। जब अनेकान्त दर्शनसे विचारशुद्धि हो जाती है तब स्वभावतः वाणीमें नम्रता और परसमन्वयकी वृत्ति उत्पन्न Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ हो जाती है । वह वस्तुस्थितिको उल्लंघन करनेवाले शब्दका प्रयोग ही नहीं कर सकता । इसीलिए जैनाचार्यों ने वस्तुकी अनेकधर्मात्मकताका द्योतन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दके प्रयोगकी आवश्यकता बताई है। शब्दोंमें यह सामर्थ्य नहीं जो कि वस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कह सके। वह एक समयमें एक ही धर्मको कह सकता है । अतः उसी समय वस्तुमें विद्यमान शेष धर्मोंकी सत्ताका सूचन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । 'स्यात्' का 'सुनिश्चित दृष्टिकोण' या 'निर्णीत अपेक्षा' ही अर्थ है 'शायद', 'सम्भव' 'कदाचित्' आदि नहीं । 'स्यादस्ति' का वाच्यार्थ है-'स्वरूपादिकी अपेक्षासे वस्तु है ही' न कि 'शायद है', 'सम्भव है', 'कदाचित है आदि । संक्षेपतः जहाँ अनेकान्तदर्शन चित्तमें समता, मध्यस्थभाव, वीतरागता, निष्पक्षताका उदय करता है, वहाँ स्याद्वाद वाणीमें निर्दोषता आनेका पूरा अवसर देता है। - इस प्रकार अहिंसाकी परिपूर्णता और स्थोयित्वकी प्रेरणाने मानसशुद्धिके लिए अनेकान्तदर्शन और वचन-शद्धिके लिए स्याद्वाद-जैसी निधियोंको भारतीय संस्कृतिके कोषागारमें दिया है। बोलते समय वक्ताको सदा यह ध्यान रहना चाहिए कि वह जो बोल रहा है उतनी ही वस्तु नहीं है, किन्तु बहुत बड़ी है, उसके पूर्णरूप तक शब्द नहीं पहुँच सकते। इसी भावको जतानेके लिए वक्ता 'स्यात' शब्दका प्रयोग करता है। 'स्यात्' शब्द विधिलिङ्में निष्पन्न होता है, जो अपने वक्तव्यको निश्चित रूपमें उपस्थित करता है न कि संशय रूपमें। जैन तीर्थकरोंने इस तरह सर्वाङ्गीण अहिंसाकी साधनाका वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकारका प्रत्यक्षानुभूत माग बताया है। उनने पदार्थों के स्वरूपका यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही पदार्थों के देखनेका, उनके ज्ञान करनेका और उनके स्वरूपको वचनसे कहनेका नया वस्तुस्पर्शी मार्ग बताया। इस अहिंसक दृष्टिसे यदि भारतीय दर्शनकारोंने वस्तुका निरीक्षण किया होता तो भारतीय जल्पकथाका इतिहास रक्तरंजित न हुआ होता और धर्म तथा दर्शनके नामपर मानवताका निर्दलन नहीं होता। पर और शासन-भावना मानवको दानव बना देती है। उसपर भी धर्म और मतका 'अहम्' तो अति दुनिवार होता है। परन्तु युग-युगमें ऐसे ही दानवोंको मानव बनाने के लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वय दष्टि, इसी समता भाव और इसी सर्वाङ्गीण अहिंसाका सन्देश देते आए हैं। यह जैनदर्शनकी ही विशेषता है जो वह अहिंसाकी तह तक पहुँचने के लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु वास्तविक स्थितिके आधारसे दार्शनिक युक्तियोंको सुलझानेकी 'मौलिक दृष्टि भी खोज सका। न केवल दृष्टि ही किन्तु मन, वचन और काय इन तीनों द्वारोंसे होनेवाली हिंसाको रोकनेका प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित कर सका। डॉ० भगवानदास जैसे मनीषो समन्वय और सब धर्मोकी मौलिक एकताकी आवाज बुलन्द कर रहे हैं । वे वर्षों से कह रहे हैं कि समन्वय दृष्टि प्राप्त हुए बिना स्वराज्य स्थायी नहीं हो सकता, मानव मानव नहीं रह सकता । उन्होंने अपने 'समन्वय' और 'दर्शनका प्रयोजन' आदि ग्रन्थोंमें इसी समन्वय तत्त्वका भूरि-भूरि प्रतिपादन किया है । जैन ऋषियोंने इस समन्वय ( स्याद्वाद ) सिद्धान्तपर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। इनका विश्वास है कि जब तक दृष्टिमें समीचीनता नहीं आयगी तब तक मतभेद और संघर्ष बना ही रहेगा। नए दृष्टिकोणसे वस्तुस्थिति तक पहुँचना ही विसंवादसे हटाकर जीवनको संवादी बना सकता है। जैनदर्शनकी भारतीय संस्कृतिको यही देन है। आज हमें जो स्वातन्त्र्यके दर्शन हुए है वह इसी अहिंसाका पुण्यफल है। कोई यदि विश्वमें भारतका मस्तक ऊँचा रख सकता है तो यह निरुपाधि वर्ण, जाति, रङ्ग, देश आदिकी उपाधियोंसे रहित अहिंसा भावना ही है। इस प्रकार सामान्यतः दर्शन शब्दका अर्थ और उनकी सीमा तथा जैनदर्शनकी भारतीय दर्शनको देनका सामान्य वर्णन करनेके बाद इस भागमें आए हुए ग्रन्थगत प्रमेयका वर्णन संक्षेपमें किया जाता है Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ९९ विषयपरिचय प्रन्थका बाह्यस्वरूप नाम-आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने जैन न्यायका अवतार करनेवाला न्यायावतार ग्रन्थ लिखा है। न्यायावतारमें प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुत इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया गया है। अकलंकदेवने प्रकृत ग्रन्थ न्यायविनिश्चयमें भी प्रत्यक्ष , अनुमान और प्रवचन ये तीन ही प्रस्ताव रखे हैं। धर्मकीर्ति के प्रमाणवातिकमें प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परार्थानुमान इन तीनका विवेचन है। परार्थानुमान और शब्द प्रमाणकी प्रक्रिया लगभग एकसी है । धर्मकीतिका एक प्रमाण विनिश्चय ग्रन्थ भी प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ गद्यपद्यमय रहा है। वादिदेवसूरिने स्याद्वाद रत्नाकर ( पृ० २३ ) में 'धर्मकीर्तिरपि न्यायविनिश्चयस्य...... ' यह उल्लेख करके लिखा है कि न्यायविनिश्चयके तीन परिच्छेदों में क्रमशः प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परार्थानुमानका वर्णन है। यदि धर्मकीर्तिका प्रमाणविनिश्चयके अतिरिक्त न्यायविनिश्चय नामका भी कोई ग्रन्थ रहा है तो अकलंकदेवने नामकी पसन्दगीमें इसका उपयोग कर लिया होगा। अभी तकके अनुसन्धानसे धर्मकीर्ति के न्यायविनिश्चय ग्रन्थका तो पता नहीं चला है । हो सकता है कि वादिदेवसूरिने प्रमाण विनिश्चयका ही 'न्यायविनिश्चयके' नामसे उल्लेख कर दिया हो क्योंकि उसके प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और पर:र्थानुमान परिच्छेद प्रमाणके ही भेदोंके विवेचक हैं । अतः प्रमाणवातिककी तरह प्रमाणविनिश्चय नामकी ही अधिक सम्भावना है। अकलंकदेवने न्यायको कलिदोषसे मलिन हुआ देखकर उसके विनिश्चयार्थ न्यायावतार और प्रमाणविनिश्चयके आद्यन्त पदोंसे ग्रन्थका न्यायविनिश्चय नामकरण किया होगा। न्यायविनिश्चयकी अकलंककर्तृकता-अकलंकदेव अपने ग्रन्थों में कहीं-न-कहीं 'अकलंक' नामका प्रयोग अवश्य करते हैं । यह प्रयोग कहीं जिनेन्द्र के रूपमें, कहीं ग्रन्थके विशेषणके रूपमें और कहीं लक्षणघटक विशेषणके रूप में दृष्टिगोचर होता है। न्यायविनिश्चय ग्रन्थ ( कारिका नं० २८६ ) में "विस्रब्धैरकलंकरत्ननिचयन्यायो विनिश्चीयते” इस कारिकांशके द्वारा अकलंक और न्यायविनिश्चय दोनोंकी हृदयहारिणी रीतिसे स्पष्ट सूचना दे दी है । वादिराजसूरिके पुष्पिका वाक्य, अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चय टीका (प० २०८ B ) का उल्लेख, विद्यानन्दिका आप्तपरीक्षा ( पृ० ४९) गत 'तदुक्तमकलंकदेवः' कहकर उद्धृत की गई न्यायविनिश्चयकी 'इन्द्रजालादिषु' आदि कारिका, न्यायदीपिकाकार धर्मभूषुणयति द्वारा 'तदुक्तं भगवद्भिरकलंकदेवैः न्याय विनिश्चये' लिखकर 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहः' इस तीसरी कारिकाका उद्धृत किया जाना इस ग्रन्थकी अकलंकर्तृककताके प्रबल पोषक प्रमाण है। ग्रन्थगतप्रमेय-न्यायविनिश्चयमें तीन प्रस्ताव है-१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. प्रवचन । इन प्रस्तावोंमें स्थूल रूपसे जिन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है-उनका परिचय इस स्मृतिग्रन्थके खण्ड चारमें 'अकलंक ग्रन्थत्रय और उसके कर्ता' लेखमें दिया गया है। प्रस्तुत न्यायविनिश्चयमें तीन प्रकारके श्लोकोंका संग्रह है-१-वार्तिक २-अन्तरश्लोक ३-संग्रहश्लोक। इस भागमें 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः' आदि तीसरा श्लोक मलवार्तिक है, क्योंकि आगे इसी श्लोकगत पदोंका विस्तृत विवेचन है । वृत्तिके मध्यमें यत्र-तत्र आनेवाले अन्तरश्लोक है। तथा वृत्तिके द्वारा प्रदर्शित मलवातिकके अर्थका संग्रह करानेवाले संग्रहश्लोक है। वादिराजसूरिने (पृ० २२९) स्वयं "निराकारेत्यादयः अन्तरश्लोकाः वृत्तिमध्यवर्तित्वात्" विमुखेत्या दि वार्तिकव्याख्यानवत्तिग्रन्थमध्यवर्तिनः खल्वमी इलोकाः ।...."संग्रहश्लोकास्तु वृत्त्युपदर्शितस्य वार्तिकार्थस्य संग्रहपरा इति विशेषः ।" इन शब्दोंमें अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोककी विशेषता बताई है। वादिराजसूरिकी व्याख्या गद्यभागपर तो नहीं ही है। पद्योंमें भी सम्भवतः कुछ पद्य अव्याख्यात छूट गए हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ कारिका संख्या-न्यायविनिश्चयकी मलकारिकाएँ पृथक्-पृथक् पूर्णरूपसे लिखी हुई नहीं मिलती। इनका उद्धार विवरणगत कारिकांशोंको जोड़कर किया गया है। अतः जहाँ ये कारिकाएँ पूरी नहीं मिलती वहाँ उद्धृत अंशको [ ] इस ब्रकिटमें दे दिया है। अकलङ्कग्रन्थ त्रयमें न्यायविनिश्चय मल प्रकाशित हो चुका है । उसमें प्रथम प्रस्तावमें १६९॥ कारिकाएँ मुद्रित हैं, पर वस्तुतः इस प्रस्तावकी कारिकाओंकी अभ्रान्त संख्या १६८॥ है। अकलङ्कग्रन्थत्रयगत न्यायविनिश्चयमें 'हिताहिताप्ति' ( कारिका नं. ४) कारिका मूलकी समझकर छापी गई है, पर अब यह कारिका वादिराजकी स्वकृत ज्ञात होती है । न्यायविनिश्चयविवरण (पृ० ११५ ) में लिखा है कि-"करिष्यते हि सदसज्ज्ञान इत्यादिना इन्द्रियप्रत्यक्षस्य, परोक्षज्ञान इत्यादिना अनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य, लक्षणं सममित्यादिना चातीन्द्रियप्रत्यक्षसमर्थनम्" इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि तीनों प्रत्यक्षोंका प्रकारान्तरसे समर्थन कारिकाओंमें किया गया है लक्षण नहीं । मल कारिकाओंमें न तो अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण है और न अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका, तब केवल इन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण क्यों किया होगा ? दूसरे पक्षमें इस श्लोककी व्याख्या (पृ० १०५, १११ ) विवरणमें मौजूद है और व्याख्याके आधारोंसे ही उक्त श्लोकको मैंने पहले मूलका माना था। हो सकता है कि वादिराजने स्वकृत श्लोकका ही तात्पर्योद्घाटन किया हो । अथवा वृत्तिमें ही गद्यमें उक्त लक्षण हो और वादिराजने उसे पद्य बद्ध कर दिया हो । जैसा कि लघीयस्त्रय स्ववृत्ति (पृ० २१ ) में "इन्द्रियार्थज्ञानं स्पष्टं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं प्रादेशिकं प्रत्यक्षम्'' यह इन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण मिलता है । अथव. इसे हो वादिराजने पद्यबद्ध कर दिया हो । फलतः हमने इस श्लोकको इस विवरणमें वादिराजकृत ही मानकर छोटे टाइपमें छापा है । अकलङ्कग्रन्थ त्रयकी प्रस्तावनामें इस श्लोकके सम्बन्धमें मैंने पं० कैलाशचन्द्रजीके मतकी चरचा की थी । अनुसन्धानसे उनका मत इस समय उचित मालम होता है। अकलङ्कग्रन्थत्रयमें मुद्रित कारिका नं० ३८ का “ग्राह्यभेदो न संवित्ति भिनत्त्याकारभङ्ग्यपि" यह उत्तरार्ध मूलका नहीं है। कारिका नं० १२९ के पूर्वार्धके बाद "तथा सुनिश्चितस्तैस्तु तत्त्वतो विप्रशंसतः" यह उत्तरार्ध मूलका होना चाहिए। इस तरह इस परिच्छेदकी कारिकाओंकी संख्या १६८॥ रह जाती है। प्रस्तुत विवरणमें छापते समय कारिकाओंके नम्बर देनेमें गड़बड़ी हो गई है। ताडपत्रीय प्रतिमें प्रायः मूल श्लोकोंके पहिले * इसप्रकारका चिह्न बना हुआ है, जहाँ पूरे श्लोक आए है । कारिका नं० ४ पर यह चिह्न नहीं बना है। अकलङ्कग्रन्थत्रयमें मुद्रित प्रथम परिच्छेदकी कारिकाओंमें निम्नलिखित संशोधन होना चाहिएकारिका नं० १६ -शब्दो -शक्तो । कारिका नं० २४ -वन्यचे -वन्त्यचे-। कारिका नं० ३१ न विज्ञाना न हि ज्ञाना-। कारिका नं० ७० -मेष निश्चयः -मेष विनिश्चयः । कारिका नं० ७८ कथन्न तत् कथं ततः । कारिका नं० १०२ द्रुमेप्व ध्रुवेष्व-। कारिका नं० १४० अतदारम्भ अतदाभद्वितीय और तृतीय परिच्छेदमें मुद्रित कारिकाओं में निम्नलिखित कारिकापरिवर्तनादि हैं-कारिका नं० १९४ की रचना-"अतद्धेतुफलापोहः सामान्यं चेदपोहिनाम् । सन्दयते तथा बुद्धया न तथाऽ प्रतिपत्तितः।" इसप्रकार होनी चाहिए । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १०१ कारिका नं० २८३ के ५ पूर्वार्ध के बाद "चित्रचत्तविचित्रा भदृष्टभङ्गप्रसङ्गतः । स नैकः सर्वथा श्लेषात् नानेको भेदरूपतः ।" यह कारिका और होनी चाहिए । कारिका नं० ३७२ का " पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः" यह उत्तरार्ध मूलका नहीं है । कारिका नं० ४३१ के बाद "ततः शब्दार्थयोर्नास्ति सम्बन्धोऽपौरुषेयकः " यह कारिकार्ध और होना चाहिए । कारिका नं० ४७५ के बाद " प्रमा प्रमितिहेतुत्वात् प्रामाण्यमुपगम्यते" यह कारिकार्ध और होना चाहिए । अतः अकलङ्क ग्रन्थत्रयगत न्यायविनिश्चयके अङ्क अनुसार संपूर्ण ग्रन्थ में ४८० ॥ कारिकाएँ फलित होती हैं । न्यायविनिश्चयविवरण - न्यायविनिश्चयके पद्य भागपर प्रबलतार्किक स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरिकृत तात्पर्यविद्योतिनी व्याख्यानरत्नमाला उपलब्ध है । जिसका नाम ' न्यायविनिश्चय-विवरण है, जैसा कि वादिराजकृत इस इलोकसे प्रकट है "प्रणिपत्य स्थिरभक्त्या गुरून् परानष्युदारबुद्धिगुणान् । न्यायविनिश्चयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ॥ " लघीयस्त्रयकी तरह न्यायविनिश्चयविवरण ( प्रथमभाग पृ० २२९ ) में आए हुए 'वृत्तिमध्यवर्तित्वात्', 'वृत्तिचूर्णीनां तु विस्तारभयान्नास्माभिर्व्याख्यानमुपदर्श्यते' इन अवतरणोंसे स्पष्ट है कि न्यायविनिश्चयपर अकलङ्कदेवकी स्ववृत्ति अवश्य रही है । वृत्तिके मध्य में भी श्लोक थे जो अन्तरश्लोकके नामसे प्रसिद्ध थे । इसके सिवाय वृत्तिके द्वारा प्रदर्शित मूलवार्तिक के अर्थको संग्रह करनेवाले संग्रहश्लोक भी थे । वादिराजसूरिने जिन ४८० || श्लोकों का व्याख्यान विवरणमें किया है उनमें अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोक भी शामिल हैं । कितने संग्रहश्लोक हैं और कितने अन्नरश्लोक, इसका ठीक निर्णय बादमें हो सकेगा । पर वादिराजसूरिने वृत्ति या चूर्णिगत सभी श्लोकोंका व्याख्यान नहीं किया । पृ० ३०१ में ' तथा च सूक्तं चूर्णो देवस्य वचनम्' इस उत्थान - वाक्यके साथ "समारोपन्यवच्छेदात् " आदि श्लोक उद्धृत है । यदि वादिराजसूरि न्यायविनिश्चयकी स्ववृत्तिको ही चूर्णिशब्दसे कहते हैं तो कहना होगा कि आपने वृत्ति या चूर्णिगत सभी श्लोकोंका व्याख्यान नहीं किया, क्योंकि 'समारोपव्यवच्छेदात्' श्लोक मूलमें शामिल नहीं किया गया है । १. परम्परागत प्रसिद्धि के अनुसार इसका नाम न्यायकुमुदचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रोदयकी तरह न्यायविनिश्चयालङ्कार रूढ हो गया है । परन्तु वस्तुतः वादिराजके उक्त इलोकगत उल्लेखानुसार इसका मुख्य आख्यान न्यायविनिश्चयविवरण है; दूसरे शब्दों में इसे तात्पर्यावद्योतिनी व्याख्यान रत्नमाला भी कह सकते हैं | पर न्यायविनिश्चयालङ्कार नामका समर्थन किसी भी प्रमाणसे नहीं होता । पं० परमानन्दजी शास्त्री, सरसावाने इसका न्यायविनिश्चयालङ्कार नाम भी मानकर इसके 'प्रमाण निर्णय से पहिले रचे जानेके सम्बन्ध में प्रमाण निर्णय ( पृ० १६ ) गत यह अवतरण एकीभावस्तोत्र की प्रस्तावना ( पृ० १५ ) में उपस्थित किया है"अत एव परामर्शात्मकत्वं स्पाष्टय मेव मानसप्रत्यक्षस्य प्रतिपादितमलङ्कारे - इदमित्यादि यज्ज्ञानमभ्यासात् पुरतः स्थिते । साक्षात्करणतस्तत्र प्रत्यक्षं मानसं मतम् ॥” परन्तु इस अवतरण में 'अलङ्कार' शब्द से न्यायविनिश्चयालङ्कार इष्ट नहीं है, क्योंकि यह श्लोक वादिराजसूरि के न्यायविनिश्चयविवरणका नहीं है, किन्तु प्रज्ञाकरगुप्तकृत प्रमाणवार्तिकालङ्कार ( लिखित पृ० ४ ) का है, और इसे वादिराजने न्यायविनिश्चयविवरण ( पृ० ११९ ) में पूर्वपक्षरूपसे उद्धृत किया है । वादिराज ने स्वयं न्यायविनिश्चयविवरण में बीसों जगह प्रमाणवार्तिकालङ्कारका 'अलङ्कार' नामसे उल्लेख किया है । अतः न्यायविनिश्चयविवरणका न्यायविनिश्चयालङ्कार नाम निर्मूल है और मात्र श्रुतिमाधुर्य निमित्त ही प्रचलित हो गया है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ इस तरह वृत्ति के यावत् गद्यभागकी तो व्याख्या की ही नहीं गई, सम्भवतः कुछ पद्य भी छट गए हैं । जैसा कि सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० १२० A ) के निश्नलिखित उल्लेखोंसे स्पष्ट है "तदुक्तं न्यायविनिश्चये-न चैतद् बहिरेव । किं तर्हि ? बहिर्बहिरिव प्रतिभासते। कुत एतत् ? भ्रान्तेः। तदन्यत्र समानम् । इति ।" सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० ६९ A ) में ही न्यायविनिश्चयके नामसे 'सुखमाल्हादनाकारं' श्लोक उद्धृत है "कथमन्यथा न्यायविनिश्चये सहभुवो गुणा इत्यस्य सुखमालादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्यात् यूनः कान्तासमागमे ।। इति निदर्शनं स्यात् ।' यह श्लोक सिद्धि विनिश्चयटीकाके उल्लेखानुसार न्यायविनिश्चय स्ववृत्तिका होना चाहिए। क्योंकि वह 'गुणपर्ययवद्रव्यं ते सहक्रमवृत्तयः' ( श्लो० १११ ) के गुण शब्दकी वृत्तिमें उदाहरणरूपसे दिया गया यह भी सम्भव है कि अकलङ्कदेवने स्वयं इस श्लोकको वत्तिमें उदधत किया हो क्योंकि वादिराज इसे स्याद्वादमहार्णव ग्रन्थका बताते हैं। यह भी चित्तको लगता है कि न्यायविनिश्चयकी उक्त वृत्ति ही सम्भवतः स्याद्वादमहार्णवके नामसे प्रख्यात रही हो । जो हो, पर अभी यह सब साधक प्रमाणोंका अभाव होनेसे सम्भावनाकोटिमें ही है । न्यायविनिश्चयविवरणकी रचना अत्यन्त प्रसन्न तथा मौलिक है। तत्तत पूर्वपक्षोंको समद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए अगणित ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत किये गये हैं । जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है वादिराजसूरिके ऊपर किसी भी दार्शनिक आचार्यका सीधा प्रभाव नहीं है। वे हरएक विषयको स्वयं आत्मसात करके ही व्यवस्थित ढंगसे युक्तियोंका जाल बिछाते हैं जिससे प्रतिवादीको निकलनेका अवसर ही नहीं मिल पाता । सांख्यके पूर्वपक्षमें (पृ० २३१) योगभाष्यका उल्लेख 'विन्ध्यवासिनी भाष्यम्' शब्दसे किया है। सांख्यकारिकाके एक प्राचीन निबन्धसे ( पृ० २३४) भोगकी परिभाषा उद्धृत की है। बौद्धमतसमीक्षामें धर्मकीर्तिके प्रमाण वार्तिक और प्रज्ञाकरके वार्तिकालङ्कारकी इतनी गहरी और विस्तत आलोचना अन्यत्र देखने में नहीं आई। वार्तिकालङ्कारका तो आधा-सा भाग इसमें आलोचित है। धर्मोत्तर, शान्तभद्र, अर्चट आदि प्रमुख बौद्ध ग्रन्थकार इनकी तीखी आलोचनासे नहीं छूटे हैं। मीमांसादर्शनकी समालोचनामें शबर, उम्बेक, प्रभाकर, मण्डन, कुमारिल आदिका गम्भीर पर्यालोचन है। इसी तरह न्यायवैशेषिक मतमें व्योमशिव, आत्रेय, भासर्वज्ञ, विश्वरूप आदि प्राचीन आचार्योंके मत उनके ग्रन्थोंसे उद्धृत करके आलोचित हुए हैं । उपनिषदोंका 'वेदमस्तक' शब्दसे उल्लेख किया गया है। इस तरह जितना परपक्षसमीक्षणका भाग है वह उन-उन मतोंके प्राचीनतम ग्रन्थोंसे लेकर ही पूर्वपक्ष में स्थापित करके आलोचित किया गया है। स्वपक्षसंस्थापनमें समन्तभद्रादि आचार्यों के प्रमाणवाक्योंसे पक्षका समर्थन परिपुष्ट रीतिसे किया है। जब वादिराज कारिकाओंका व्याख्यान करते हैं तो उनको अपूर्व वैयाकरणचुञ्चता चित्तको विस्मित कर देती है। किसी-किसी कारिकाके पाँच-पाँच अर्थ तक इन्होंने किए हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकाओंके दृष्टिगोचर होते हैं । काव्यछटा और साहित्यसर्जकता तो इनकी पद-पदपर अपनी आभासे न्यायभारतीको समुज्ज्वल बनाती हुई सहृदयोंके हृदयको आह्वादित करती है। सारे विवरणमें करीब २००० Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १०३ २५०० पद्य स्वयं वादिराजके ही द्वारा रचे गए हैं जो इनकी काव्य-चातुरीको प्रत्येक पृष्ठपर मत किए हए हैं। इनकी तर्कणाशक्ति अपनी मौलिक है। क्या पूर्वपक्ष और क्या उत्तरपक्ष, दोनोंका बन्धान प्रसाद ओज और माधुर्यसे समलकृत होकर तर्कप्रवणताका उच्च अधिष्ठान है। इस श्लोकमें कितने ओजके साथ यमकमें अचर्टका उपहास किया है "अर्चतचटक, तदस्मादुपरम दुस्तर्कपक्षबलचलनात् । स्याद्वादाचलविदलनचञ्चुन तवास्ति नयचञ्चुः ॥” (पृ० ४४९ ) इस तरह समग्र ग्रन्थका कोई भी पृष्ठ वादिराजकी साहित्यप्रवणता, शब्दनिष्णातता और दार्शनिकताकी युगपत प्रतीति करा सकता है। एकीभावस्तोत्रके अन्तमें पाया जानेवाला यह पद्य वादिराजका भूतगणोद्भावक है मात्र स्तुतिपरक नहीं __ "वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः। वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ॥" वादिराजका 'एकीभावस्तोत्र' उस निष्ठावान् और भक्ति-विभोरमानसका परिस्पदन है जिसकी साधनासे भव्य अपना चरम लक्ष्य पा सकता है। इस तरह वादिराज तार्किक होकर भी भक्त थे, वैयाकरणचणप होकर भी काव्यकलाके हृदयाह लादक लीलाधाम थे और थे अकलङ्कन्यायके सफल व्याख्याकार। जैनदर्शनके ग्रन्थागारमें वादिराजका न्यायविनिश्चयविवरण अपनी मौलिकता, गम्भीरता, अनुच्छिष्टता, युक्तिप्रवणता, प्रमाणसंग्रहता आदिका अद्वितीय उदाहरण है। इसके प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्तावका संक्षिप्त विषयपरिचय इस प्रकार हैप्रत्यक्ष परिच्छेद न्यायविनिश्चय ग्रन्थके तीन परिच्छेद हैं-१-प्रत्यक्ष २-अनुमान और ३-प्रवचन । इस ग्रन्थ में अकलंकदेवने न्यायके विनिश्चय करनेकी प्रतिज्ञा की है। वे न्याय अर्थात स्याद्वादमद्रांकित जैन आम्नायको कलिकाल दोषसे गणद्वेषो व्यक्तियों द्वारा मलिन किया हुआ देखकर विचलित हो उठते हैं और भव्य परुषों की हितकामनासे सम्यग्ज्ञान-वचन रूपी जलसे उस न्यायपर आए हुए मलको दूर करके उसको निर्मल बनानेके लिए कृतसंकल्प होते हैं। जिसके द्वारा वस्तु-स्वरूपका निर्णय किया जाय उसे न्याय कहते हैं। अर्थात न्याय उन उपायोंको कहते हैं जिनसे वस्तु-तत्त्वका निश्चय हो। ऐसे उपाय तत्त्वार्थसूत्र (११६) में प्रमाण और नय दो ही निर्दिष्ट हैं । आत्माके अनन्त गुणोंमें उपयोग ही एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा आत्माको लक्षित किया जा सकता है। उपयोग अर्थात् चितिशक्ति । उपयोग दो प्रकारका है, एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग । एक ही उपयोग जब परपदार्थोके जानने के कारण साकार बनता है तब ज्ञान कहलाता है । वही उपयोग जब बाह्यपदार्थोंमें उपयुक्त न रहकर मात्र चैतन्यरूप रहता है तब निराकार अवस्थामें दर्शन कहलाता है। यद्यपि दार्शनिकक्षेत्रमें दर्शनकी व्याख्या बदली है और वह चैतन्याकारकी परिधिको लांघकर पदार्थोके सामान्यावलोकन तक जा पहुँची है परन्तु सिद्धान्त ग्रन्थोंमें दर्शनका 'अनुपयुक्त आदर्शतलवत्' ही वर्णन है। सिद्धान्त ग्रंथोंमें स्पष्टतया विषय और विषयीके सन्निपातके पहिले 'दर्शन' का काल बताया है। जब तक आत्मा एकपदार्थविषयज्ञानोपयोगसे च्युत होकर दूसरे पदार्थविषयक उपयोगमें प्रवृत्त नहीं हआ तब तक बीचकी निराकार अवस्था दर्शन कही जाती है। इस अवस्थामें चैतन्य निराकार या चैतन्याकार रहता है। दार्शनिक ग्रन्थोंमें 'दर्शन' विषयविषयीके सन्निपातके अनन्तर वस्तुके सामान्यावलोकन रूपमें वर्णित है। और वह है बौद्धसम्मत निर्विकल्पज्ञान और नैयायिकादिसम्मत सन्निकर्ष ज्ञानकी प्रमाणताका निराकरण Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ करनेके लिए । इसका यही तात्पर्य है कि बौद्धादि जिस निर्विकल्पकको प्रमाण मानते हैं जैन उसे दर्शनकोटिमें गिनते हैं और वह प्रमाणकी सीमासे बहिर्भूत है । अस्तु । उपायतत्त्वमें ज्ञान ही आता है । जब ज्ञान वस्तु के पूर्णरूपको जानता है तब प्रमाण कहा जाता है तथा जब देशको जानता है तब नय। प्रमाणका लक्षण साधारणतया 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' यह सर्व-स्वीकृत है। विवाद यह है कि करण कौन हो? नैयायिक सन्निकर्ष और ज्ञान दोनोंका करण रूपसे निर्देश करते है । परन्तु जैन परम्परामें अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमितिका करण ज्ञानको मानते हैं। आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनने प्रमाणके लक्षणमें 'स्वपरावभासक' पदका समावेश किया है। इस पदका तात्पर्य है कि प्रमाणको 'स्व' और 'पर' दोनोंका निश्चय करानेवाला होना चाहिए । यद्यपि अकलंकदेव और माणिक्यनन्दीने प्रमाणके लक्षणमें 'अनधिगतार्थ ग्राही' और 'अपूर्वार्थव्यवसायात्मक' पदोंका निवेश किया है, पर यह सर्वस्वीकृत नहीं हआ । आचार्य हेमचन्द्रने तो 'स्वावभासक' पद भी प्रमाणके लक्षणमें अनावश्यक समझा है। उनका कहना है कि स्वावभासकत्व ज्ञानसामान्यका धर्म है । ज्ञान चाहे प्रमाण हो या अप्रमाण, वह स्वसंवेदी होगा ही। तात्पर्य यह है कि जैन परम्परामें ऐसा स्वसंवेदी ज्ञान प्रमाण होगा जो पर-पदार्थ-निर्णय करनेवाला हो। प्रमाण सकलादेशी होता है, वह एक गुणके द्वारा भी पूरी वस्तुको विषय करता है। नय विकलादेशी होता है, क्योंकि वह जिस धर्मका स्पर्श करता है उसे हो मुख्य भावसे विषय करता है। प्रमाणके भेद-सामान्यतया प्राचीन कालसे जैन परम्परामें प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्विवाद रूपसे स्वीकृत चले आ रहे हैं । आत्ममात्र-सापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं तथा जिस ज्ञानमें इन्द्रिय मन प्रकाश आदि परसाधनोंकी अपेक्षा हो वह ज्ञान परोक्ष कहा जाता है । प्रत्यक्ष और परोक्षकी यह परिभाषा जैन परम्पराकी अपनी है । जैन परम्परामें प्रत्येक वस्तु अपने परिणमनमें स्वयं उपादान होती है। जितने परनिमित्तक परिणमन है, सब व्यवहारमूलक हैं। जितने मात्र स्वनिमित्तक परिणमन हैं वे परमार्थ हैं, निश्चयनयके विषय हैं। प्रत्यक्ष और परोक्षके लक्षणमें भी वही स्वाभिमख दृष्टि कार्य कर रही है। और उसके निर्वाहके लिए अक्ष शब्दका अर्थ ( अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा) आत्मा किया गया । प्रत्यक्षके लोकप्रसिद्ध अर्थके निर्वाहके लिए इन्द्रियजन्य ज्ञानको सांव्यवहारिक संज्ञा दी। यद्यपि शास्त्रीय परमार्थ व्याख्याके अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान परसापेक्ष होनेसे परोक्ष है किन्तु लोकव्यवहारमें इनको प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्धि होने के कारण इन्हें संव्यवहार प्रत्यक्ष कह दिया जाता है। जैनदष्टिमें उपादानयं विशेष भार दिया गया है, निमित्तसे यद्यपि उपादान-योग्यता विकसित होती है, पर निमित्ताधीन परिणमन उत्कृष्ट या शुद्ध नहीं समझे जाते। इसीलिए प्रत्यक्ष-जैसे उत्कृष्ट ज्ञानमें इन्द्रिय और मन-जैसे निकटतम साधनोंकी अपेक्षा भी स्वीकार नहीं की गई। प्रत्यक्ष व्यवहारका कारण भी आत्ममात्रसापेक्षता ही निरूपितकी गई है और परोक्ष व्यवहारके लिए इन्द्रिय मन आदि परपदार्थों की अपेक्षा रखना। यह तो जैनदृष्टिका अपना आध्यात्मिक निरूपण है। उस प्रत्यक्ष ज्ञानकी परिभाषा करते हए अकलंकदेवने कहा है कि "प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टः साकारमञ्जसा। द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥" अर्थात-जो ज्ञान परमार्थतः स्पष्ट हो, साकार हो, द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्यविशेषात्मक अर्थको विषय करनेवाला हो और आत्मवेदी हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इस लक्षणमें अकलंकदेवने निम्नलिखित मुद्दे विचारकोटिके लायक रखे हैं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निवन्ध १०५ १-ज्ञान आत्मवेदी होता है। २-ज्ञान साकार होता है। ३-ज्ञान अर्थको जानता है। ४-अर्थ सामान्यविशेषात्मक है। ५-अर्थ द्रव्यपर्यायात्मक है। ६-वह ज्ञान प्रत्यक्ष होगा जो परमार्थतः स्पष्ट हो। ज्ञानका आत्मवेदित्व-ज्ञान आत्माका गुण है या नहीं' यह प्रश्न भी दार्शनिकोंकी चर्चाका विषय रहा है। भूतचैतन्यवादी चार्वाक ज्ञानको पृथ्वी आदि भ तोंका ही धर्म मानता है। वह स्थूल या दृश्य भूतोंका धर्म स्वीकार न करके सूक्ष्म और अदृश्य भूतोंके विलक्षणसंयोगसे उत्पन्न होनेवाले अवस्थाविशेषको ज्ञान कहता है । सांख्य चैतन्यको पुरुषधर्म स्वीकार करके भी ज्ञान या बुद्धिको प्रकृतिका धर्म मानता है । सांख्यके मतसे चैतन्य और ज्ञान जुदा-जुदा हैं । पुरुषगत चैतन्य बाह्यपदार्थोंको नहीं जानता । बाह्यपदार्थोको जाननेवाला बुद्धितत्त्व जिसे 'महत्तत्व भी कहते हैं प्रकृतिका ही परिणाम है। यह बुद्धि उभयतः प्रतिबिम्बी दर्पणके समान है। इसमें एक ओर पुरुषगत चैतन्य प्रतिफलित होता है और दूसरी ओर पदार्थों के आकार । इस बुद्धि मध्यमके द्वारा ही पुरुषको “मैं घटको जानता हूँ" यह मिथ्या अहंकार होने लगता है। न्याय-वैशेषक-ज्ञानको आत्माका गुण मानते अवश्य है, पर इनके मतमें आत्मा द्रव्यपदार्थ पृथक है तथा ज्ञान गुणपदार्थ जुदा । यह आत्माका यावद्रव्यभावी अर्थात् जब तक आत्मा है तब तक उसमें अवश्य रहनेवाला-गुण नहीं है किन्तु आत्ममनःसंयोग, मन-इन्द्रिय-पदार्थ सन्निकर्ष आदि कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला विशेष गुण है । जब तक ये निमित्त मिलेंगे, ज्ञान उत्पन्न होगा, न मिलेंगे न होगा। मुक्त अवस्थामें मन इन्द्रिय आदिका सम्बन्ध न रहनेके कारण ज्ञानकी धारा उच्छिन्न हो जाती है। इस अवस्थामें आत्मा स्वरूपमात्रमग्न रहता है । तात्पर्य यह कि बुद्धि सुख दुःख आदि विशेष गुण औपाधिक है, स्वभावतः आत्मा ज्ञानशून्य है । ईश्वर नामकी एक आत्मा ऐसी है जो अनाद्यनन्त नित्यज्ञानवाली है। परमात्माके सिवाय अन्य सभी जीवात्माएँ स्वभावतः ज्ञानशून्य है। वेदान्ती ज्ञान और चैतन्यको जुदा-जुदा मानकर चैतन्यका आश्रय ब्रह्म को तथा ज्ञानका आश्रय अन्तःकरणको मानते हैं । शद्ध ब्रह्ममें विषयपरिच्छेदक ज्ञानका कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता। मीमांसक ज्ञानको आत्माका ही गुण मानते हैं । इनके यहाँ ज्ञान और आत्मामें तादात्म्य माना गया है। बौद्ध परम्परामें ज्ञान नाम या चित्तरूप है। मक्त अवस्था में चित्तसन्तति निरास्रव हो जाती है। इस अवस्थामें यह चित्तसन्तति घटपटादि बाह्यपदार्थोंको नहीं जानती। जैनपरम्परा ज्ञानको अनाद्यनन्त स्वाभाविक गुण मानती है जो मोक्ष दशामें अपनी पूर्ण अवस्थामें रहता है। 'संसार दशामें ज्ञान आत्मगत धर्म है' इस विषयमें चार्वाक और सांख्यके सिवाय प्रायः सभी वादी एकमत हैं । पर विचारणीय बात यह है कि जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह दीपककी तरह स्वपरप्रकाशी उत्पन्न होता है या नहीं ? इस सम्बन्धमें अनेक मत हैं-१. मीमांसक ज्ञानको परोक्ष कहता है । उसका कहना है कि ज्ञान परोक्ष ही उत्पन्न होता है। जब उसके द्वारा पदार्थका बोध हो जाता है तब अनुमानसे ज्ञानको जाना जाता है-चूंकि पदार्थका बोध हुआ है और क्रिया बिना करण के हो नहीं सकती अतः करणभूत ज्ञान होना चाहिए । मीमांसकको ज्ञानको परोक्ष माननेका यही कारण है कि इसने अतीन्द्रिय पदार्थका ज्ञान वेदके द्वारा ही माना है । धर्भ आदि अतीन्द्रिय पदार्थोका प्रत्यक्ष किसी व्यक्ति विशेषको नहीं हो सकता । उसका ज्ञान वेदके द्वारा ही हो सकता है। फलतः ज्ञान जब अतीन्द्रिय है तब उसे परोक्ष होना ही चाहिए । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ दूसरा मत नैयायिकों का है । इनके मतसे भी ज्ञान परोक्ष ही उत्पन्न होता है और उसका ज्ञान द्वितीय ज्ञानसे होता है और द्वितीयका तृतीयसे । अनवस्था दूषणका परिहार जब ज्ञान विषयान्तरको जानने लगता है तब इस ज्ञानकी धारा रुक जानेके कारण हो जाता है । इनका मत ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद के नामसे प्रसिद्ध है । नैयायिकके मत से ज्ञानका प्रत्यक्ष संयुक्तसमवायसन्निकर्षसे होता है । मन आत्मासे संयुक्त होता है और आत्मामें ज्ञानका समवाय होता है । इस प्रकार ज्ञानके उत्पन्न होनेपर सन्निकर्षजन्य द्वितीय मानसज्ञान प्रथम ज्ञानका प्रत्यक्ष करता है । सांख्य ने पुरुषको स्वसंचेतक स्वीकार किया है । इसके मत में बुद्धि या ज्ञान प्रकृतिका विकार है । इसे महत्तत्व कहते हैं । यह स्वयं अचेतन है । बुद्धि उभयमुखप्रतिबिम्बी दर्पण के समान है । इसमें एक ओर पुरुष प्रतिफलित होता है तथा दूसरी ओर पदार्थ । इस बुद्धि-प्रतिबिम्बित पुरुषके द्वारा for प्रत्यक्ष होता है, स्वयं नहीं । वेदान्ती के मत में ब्रह्म स्वप्रकाश है अतः स्वभावतः ब्रह्मका विवर्त ज्ञान स्वप्रकाशी होना ही चाहिए । प्रभाकर के मत में संवित्त स्वप्रकाशिनी है, वह संवित्त रूपसे स्वयं जानी जाती है । इस तरह ज्ञानको अनात्मवेदी या अस्वसंवेदी माननेवाले मुख्यतया मीमांसक और नैयायिक ही हैं । अकलंकदेवने इसकी मीमांसा करते हुए लिखा है कि- यदि ज्ञान स्वयं अप्रत्यक्ष हो अर्थात् अपने स्वरूपको न जानता हो तो उसके द्वारा पदार्थका ज्ञान हमें नहीं हो सकता । देवदत्त अपने ज्ञान के द्वारा ही पदार्थों को क्यों जानता है, यज्ञदत्तके ज्ञानके द्वारा क्यों नहीं जानता ? या प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञानके द्वारा ही अर्थ परिज्ञान करते हैं आत्मान्तरके ज्ञानसे नहीं । इसका सीधा और स्पष्ट कारण यही है कि देवदत्तका ज्ञान स्वयं अपनेको जानता है और इसलिये तदभिन्न देवदत्तकी आत्माको ज्ञात है कि अमुक ज्ञान मुझमें उत्पन्न हुआ है । यज्ञदत्तमें ज्ञान उत्पन्न हो जाय पर देवदत्तको उसका पता ही नहीं चलता । अतः यज्ञदत्त के ज्ञानके द्वारा देवदत्त अर्थबोध नहीं कर पाता । यदि जैसे यज्ञदत्तका ज्ञान उत्पन्न होनेपर भी देवदत्तको परोक्ष रहता है, उसी प्रकार देवदत्तको स्वयं अपना ज्ञान परोक्ष हो अर्थात् उत्पन्न होनेपर भी स्वयं अपना परिज्ञान न करता हो तो देवदत्त के लिए अपना ज्ञान यज्ञदत्त के ज्ञानको तरह ही पराया हो गया और उससे अर्थबोध नहीं होना चाहिए। वह ज्ञान हमारे आत्मासे सम्बन्ध रखता है इतने मात्रसे हम उसके द्वारा पदार्थबोधके अधिकारी नहीं हो सकते जब तक कि वह स्वयं हमारे प्रत्यक्ष अर्थात् स्वयं अपने ही प्रत्यक्ष नहीं हो जाता । अपने ही द्वितीय ज्ञानके द्वारा उसका प्रत्यक्ष मानकर उससे अर्थबोध करनेकी कल्पना इसलिए उचित नहीं है कि कोई भी योगी अपने योगज प्रत्यक्ष के द्वारा हमारे ज्ञानको प्रत्यक्ष कर सकता है जैसे कि हम स्वयं अपने द्वितीय ज्ञानके द्वारा प्रथम ज्ञानका, पर इतने मात्रसे वह योगी हमारे ज्ञानसे पदार्थोंका बोध नहीं कर लेता । उसे तो जो भी बोध होगा स्वयं अपने ही ज्ञान द्वारा होगा। तात्पर्य यह कि हमारे ज्ञानमें यही स्वकीयत्व है जो वह स्वयं अपना बोध करता है और अपने आधारभूत आत्मासे तादात्म्य रखता है । यह संभव ही नहीं हैं कि ज्ञान उत्पन्न हो जाय अर्थात् अपनी उपयोग दशामें आ जाय और आत्माको या स्वयं उसे ज्ञानका ही पता न चले। वह तो दोपक या सूर्यकी तरह स्वयंप्रकाशो ही उत्पन्न होता है । वह पदार्थ के बोधके साथ ही साथ अपना संवेदन स्वयं करता है । इसमें न तो क्षणभेद है और न परोक्षता ही । ज्ञानके स्वप्रकाशी होने में यह बाधा भी कि वह घटादि पदार्थोंकी तरह ज्ञेय हो जायगा नहीं हो सकती; क्योंकि ज्ञान घटको ज्ञेयत्वेन जानता है तथा अपने स्वरूपको ज्ञानरूपसे । अतः उसमें ज्ञेयरूपताका प्रसङ्ग नहीं आ सकता । इसके लिए Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १०७ दीपकसे बढ़कर समदृष्टान्त दूसरा नहीं हो सकता। दीपकके देखनेके लिए दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं होती, भले ही वह पदार्थोंको मन्द या अस्पष्ट दिखावे पर अपने रूपको तो जैसेका तैसा प्रकाशित करता ही है । ज्ञान चाहे संशयरूप हो या विपर्ययरूप या अनध्यवसायात्मक स्वयं अपने ज्ञानरूपका प्रकाशक होता ही है। ज्ञानमें संशयरूपता, विपर्ययरूपता या प्रमाणताका निश्चय बाह्यपदार्थके यथार्थप्रकाशकत्व और अयथार्थप्रकाशकत्वके अधीन है पर ज्ञानरूपता या प्रकाशरूपताका निश्चय तो उसका स्वाधीन ही है उसमें ज्ञानान्तरकी आवश्यकता नहीं होती और न वह अज्ञात रह सकता है । तात्पर्य यह कि-कोई भी ज्ञान जब उपयोग अवस्थामें आता है तब अज्ञात होकर नहीं रह सकता। हाँ, लब्धि वा शक्ति रूपमें वह जात न हो यह जदी बात है क्योंकि शक्तिका परिज्ञान करना विशिष्टज्ञानका कार्य है। पर यहाँ तो प्रश्न उपयोगात्मक ज्ञानका है । कोई भी उपयोगात्मक ज्ञान अज्ञात नहीं रह सकता, वह तो जगाता हुआ ही उत्पन्न होता है, उसे अपना ज्ञान करानेके लिए किसी ज्ञानान्तरकी अपेक्षा नहीं है। यदि ज्ञानको परोक्ष माना जाय तो उसका सद्भाव सिद्ध करना कठिन हो जायगा। 'अर्थप्रकाश' रूप हेतुसे उसकी सिद्धि करनेमें निम्नलिखित बाधाएँ है-पहिले तो अर्थप्रकाश स्वयं ज्ञान है, अतः जब तक अर्थप्रकाश अज्ञात है तब तक उसके द्वारा मूलज्ञानकी सिद्धि नहीं हो सकती। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि-"अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थ सिद्धि : प्रसिध्यति"-अर्थात् अप्रत्यक्ष-अज्ञात ज्ञानके द्वारा अर्थसिद्धि नहीं होती । "नाज्ञातं ज्ञापकं नाम"- स्वयं अज्ञात दूसरेका ज्ञापक नहीं हो सकता, यह भी सर्वसम्मत न्याय है। फलतः यह आवश्यक है कि पहिले अर्थप्रकाशका ज्ञान हो जाय । यदि अर्थप्रकाशके ज्ञानके लिये अन्यज्ञान अपेक्षित हो तो उस अन्यज्ञानके लिए तदन्यज्ञान इस तरह अनवस्था नामका दूषण आता है और इस अनन्तज्ञानपरम्पराकी कल्पना करते रहनेमें आद्यज्ञान अज्ञात ही बना रहेगा। यदि अर्थप्रकाश स्ववेदी है तो प्रथमज्ञानको स्ववेदी मानने में क्या बाधा है ? स्ववेदी अर्थप्रकाशसे ही अर्थबोध हो जानेपर मल ज्ञानकी कल्पना ही निरर्थक हो जाती है । दूसरी बात यह है कि जब तक ज्ञान और अर्थप्रकाशका अविनाभाव सम्बन्ध गृहीत नहीं होगा तब तक उससे ज्ञानका अनुमान नहीं किया जा सकता। यह अविनाभाव ग्रहण अपनी आत्मामें तो इसलिए नहीं बन सकता कि अभी तक ज्ञान ही अज्ञात है तथा अन्य आत्माके ज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । अतः अविनाभावका ग्रहण न होने के कारण अनुमानसे भी ज्ञानकी सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। इसी तरह पदार्थ, इन्द्रियाँ, मानसिक उपयोग आदिसे भी मूलज्ञानका अनुमान नहीं हो सकता । कारण इनका ज्ञानके साथ कोई अविनाभाव नहीं है । पदार्थ आदि रहते हैं पर कभी-कभी ज्ञान नहीं होता । कदाचित् अविनाभाव हो भी तो उसका ग्रहण नहीं हो सकता। आहलादनाकार परिणत ज्ञानको ही सुख कहते हैं। सातसंवेदनको सुख और असातसंवेदनको दुःख सभी वादियोंने माना है । यदि ज्ञानको स्वसंवेदी नहीं मानकर परोक्ष मानते हैं, तो परोक्ष सुख दःखसे आत्माको हर्ष विषादादि नहीं होना चाहिए । यदि अपने सुखको अनुमानग्राह्य या ज्ञानान्तरग्राह्य माना जाय और उससे आत्मामें हर्षविषादादिकी सम्भावना की जाय, तो अन्य सुखी आत्माके सुखका अनुमान करके हमें हर्ष होना चाहिए। अथवा केवलीको, जिसे सभी जीवोंके सुखदुःखादिका प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है, हमारे सुखदुःखसे हर्ष विषादादि उत्पन्न होने चाहिए। चूंकि हमारे सुखदुःखसे हमें ही हर्षविषादादि होते हैं, अन्य किसी अनुमान करनेवाले या प्रत्यक्ष करनेवाले आत्मान्तरको नहीं, अतः यह मानना ही होगा कि वे हमारे स्वयंप्रत्यक्ष हैं अर्थात् वे स्वप्रकाशी हैं। यदि ज्ञानको परोक्ष माना जाता है तो आत्मान्तरकी बुद्धिका अनुमान नहीं किया जा सकता । पहिले हम स्वयं अपनी आत्मा ही जब तक बुद्धि और वचनादि व्यापारोंका अविनाभाव ग्रहण नहीं करेंगे तब तक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं वचनादि चेष्टाओंसे अन्यत्र बुद्धिका अनुमान कैसे कर सकते हैं और अपनी आत्मामें जब तक बुद्धिका स्वयं साक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक अविनाभावका ग्रहण असम्भव ही है। अन्य आत्माओंमें तो बुद्धि अभी असिद्ध ही है। आत्मान्तरमें बुद्धिका अनुमान नहीं होनेपर समस्त गुरु-शिष्य देनलेन आदि व्यवस्थाओंका लोप हो जायगा। यदि अज्ञात या अप्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा अर्थ-बोध माना जाता है, तो सर्वज्ञके ज्ञानके द्वारा हमें सर्वार्थज्ञान होना चाहिए। हमें ही क्यों, सबको सबके ज्ञानके द्वारा अर्थबोध हो जाना चाहिये । अतः ज्ञानको स्वसंवेदी माने बिना ज्ञानका सद्भाव तथा उसके द्वारा प्रतिनियत अर्थबोध नहीं हो सकता । अतः यह आवश्यक है कि उसमें अनुभवसिद्ध आत्मसंवेदित्व स्वीकार किया जाय । २-नैयायिकका ज्ञानको ज्ञानान्तरवेद्य मानना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनवस्था नामका महान् दूषण आता है । जबतक एक भी ज्ञान स्वसंवेदी नहीं माना जाता तब तक पूर्व-पूर्व ज्ञानोंका बोध करने लिये उत्तर-उत्तर ज्ञानोंकी कल्पना करनो हो होगी। क्योंकि जो भी ज्ञानव्यक्ति अज्ञात रहेगी वह स्वपूर्व ज्ञानव्यक्तिकी वेदिका नहीं हो सकती । और इस तरह प्रथम ज्ञानके अज्ञात रहनेपर उसके द्वारा पदार्थका बोध नहीं हो सकेगा । एक ज्ञानके जाननेके लिए ही जब इस तरह अनन्त ज्ञानप्रवाह चलेगा तब अन्य पदार्थोका ज्ञान कब उत्पन्न होगा ? थक करके या अरुचिसे या अन्य पदार्थके सम्पर्कसे पहिली ज्ञानाधाराको अधूरी छोड़कर अनवस्थाका वारण करना इसलिये युक्तियुक्त नहीं है कि जो दशा प्रथम ज्ञानकी हुई है और जैसे वह बीच में ही अज्ञात दशामें लटक रहा है वही दशा अन्य ज्ञानोंकी भी होगी । ईश्वरका ज्ञान यदि अस्वसंवेदी माना जाता है तो उसमें सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी, क्योंकि एक तो उसने अपने स्वरूपको ही स्वयं नहीं जाना दूसरे अप्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा वह जगत्का परिज्ञान नहीं कर सकता । ईश्वरके दो नित्य ज्ञान इसलिए मानना कि-एकसे वह जगत्को जानेगा तथा दूसरेसे ज्ञानको-निरर्थक है; क्योंकि दो ज्ञान एक साथ उपयोग दशामें नहीं रह सकते। दूसरे यदि वह ज्ञानको जाननेवाला द्वितीय ज्ञान स्वयं अपने स्वरूपका प्रत्यक्ष नहीं करता तो उससे प्रथम अर्थज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। यदि प्रत्यक्ष किसी तृतीय ज्ञानसे माना जाय तो अनवस्था दूषण होगा। यदि द्वितीय ज्ञानको स्वसंवेदी मानते हैं तो प्रथम ज्ञानको ही स्वसंवेदी मानने में क्या बाधा है ? ३-सांख्यके मतमें यदि ज्ञान प्रकृतिका विकार होनेसे अचेतन है, वह अपने स्वरूपको नहीं जानता, उसका अनुभव पुरुष संचेतनके द्वारा होता है तो ऐसे अचेतन ज्ञानकी कल्पनाका क्या प्रयोजन है ? जो पुरुषका संचेतन ज्ञानके स्वरूपका संवेदन करता है वही पदार्थों को भी जान सकता है। पुरुषका संचेतन यदि स्वसंवेदी नहीं है तो इस अकिचित्कर ज्ञानको सत्ता भी किससे सिद्ध की जायगी? अतः स्वार्थसंवेदक पुरुषानुभवसे भिन्न किसी प्रकृतिविकारात्मक अचेतन ज्ञानकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। करण या माध्यमके लिए इन्द्रियाँ और मन मौजूद हैं । वस्तुतः 'ज्ञान और पुरुषगतसंचेतन' ये दो जुदा है ही नहीं। पुरुष, जिसे सांख्य कूटस्थ नित्य मानता है, स्वयं परिणामी है, पूर्वपर्यायको छोड़कर उत्तरपर्यायको धारण करता है । संचेतना ऐसे परिणामीनित्य पुरुषका ही धर्म हो सकती है। इससे पृथक् किसी अचेतन ज्ञानकी आवश्यकता ही नहीं है । अतः ज्ञानमात्र स्वसंवेदी है। वह अपने जाननेके लिए किसी अन्य ज्ञानकी अपेक्षा नहीं करता। ज्ञानकी साकारता-ज्ञानकी साकारताका साधारण अर्थ यह समझ लिया जाता है कि जैसे दर्पणमें घट-पट आदि पदार्थोंका प्रतिबिम्ब आता है और दर्पणका अमुक भाग घटछायाक्रान्त हो जाता है उसी तरह ज्ञान भी घटाकार हो जाता है अर्थात् घटका प्रतिबिम्ब ज्ञानमें पहुँच जाता है। पर वास्तव बात ऐसी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १०९ नहीं है । घट और दर्पण दोनों मर्त और जड़ पदार्थ हैं, उनमें एकका प्रतिबिम्ब दूसरेमें पड़ सकता है, किन्तु चेतन और अमर्त ज्ञान में मर्त जड़ पदार्थका प्रतिबिम्ब नहीं आ सकता और न अन्य चेतनान्तरका ही। ज्ञानके घटाकार होनेका अर्थ है-ज्ञानका घटको जानने के लिए उपयुक्त होना अर्थात् उसका निश्चय करना। तत्त्वार्थवार्तिक (११६ ) में घटके स्वचतुष्टयका विचार करते हुए लिखा है कि-घट शब्द सुननेके बाद उत्पन्न होनेवाले घट-ज्ञानमें जो घटविषयक उपयोगाकार है वह घटका स्वात्मा है और बाह्यघटाकार परात्मा। यहाँ जो उपयोगाकार है उसका अर्थ घटकी ओर ज्ञानके व्यापारका होना है न कि ज्ञानका घट-जैसा लम्बा चौड़ा या वजनदार होना । आगे फिर लिखा है कि-"चैतन्यशक्तावाकारी ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकारः, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकारः । तत्र ज्ञेयाकारः स्वात्मा ।" अर्यात् चैतन्यशक्तिके दो आकार होते हैं एक ज्ञानाकार और दूसरा ज्ञेयाकार । ज्ञानाकार प्रतिबिम्बशून्य शुद्ध दर्पणके समान पदार्थविषयक व्यापारसे रहित होता है । ज्ञेयाकार सप्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह पदार्थविषयक व्यापारसे सहित होता है । साकारताके सम्बन्धमें जो दर्पणका दृष्टान्त दिया जाता है उसीसे यह भ्रम हो जाता है कि-ज्ञानमें दर्पणके समान लम्बा चौड़ा काला प्रतिबिम्ब पदार्थका आता है और इसी कारण ज्ञान साकार कहलाता है। दृष्टान्त जिस अंशको समझाने के लिए दिया जाता है उसको उसी अंशके लिए लागू करना चाहिए। यहाँ 'दर्पण' दृष्टान्तका इतना ही प्रयोजन है कि चैतन्यधारा ज्ञेयको जाननेके समय ज्ञेयाकार होती है, शेष समयमें ज्ञानाकार । धवला (प्र० पु० पृ० ३८० ) तथा जयधवला (प्र० पु० पू० ३३७) में दर्शन और ज्ञानमें निराकारता और साकारता-प्रयुक्त भेद बताते हुए स्पष्ट लिखा है कि-जहाँ ज्ञानसे पृथक् वस्तु कर्म अर्थात् विषय हो वह साकार है और जहाँ अन्तरङ्ग वस्तु अर्थात् चैतन्य स्वयं चैतन्य रूप ही हो वह निराकार । निराकार दर्शन, इन्द्रिय और पदार्थके सम्पर्क के पहिले होता है जब कि साकार ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निपातके बाद । अन्तरङ्गविषयक अर्थात् स्वावभासी उपयोगको अनाकार तथा बाह्यावभासी अर्थात् स्वसे भिन्न अर्थको विषय करनेवाला उपयोग साकार कहलाता है। उपयोगकी ज्ञानसंज्ञा वहाँसे प्रारम्भ होती है जहाँसे वह स्वव्यतिरिक्त अन्य पदार्थको विषय करता है । जब तक वह मात्र स्वप्रकाश-निमग्न है तब तक वह दर्शन-निराकार कहलाता है । इसीलिए ज्ञान में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व ये दो विभाग होते हैं । जो ज्ञान पदार्थकी यथार्थ उपलब्धि कराता है यह प्रमाण है अन्य अप्रमाण । पर दर्शन सदा एकविध रहता है उसमें कोई दर्शन प्रमाण कोई दर्शन अप्रमाण ऐसा जातिभेद नहीं होता। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन आदि भेद तो आगे होनेवाली तत्तत् ज्ञानपर्यायोंकी अपेक्षा है। स्वरूपकी अपेक्षा उनमें इतना ही भेद है कि एक उपयोग अपने चाक्षुपज्ञानोत्पादकशक्तिरूप स्वरूपमें मग्न है तो दूसरा अन्य स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानके जनक स्वरूप में लीन है, तो अन्य अवधिज्ञानोत्पादक स्वरूपमें और अन्य केवलज्ञानसहभावी मग्न है । तात्पर्य यह कि-उपयोगका स्वसे भिन्न किसी भी पदार्थको विषय करना ही साकार होना है, न कि दर्पणकी तरह प्रतिबिम्बाकार होना । निराकार और साकार या ज्ञान और दर्शनका यह सैद्धान्तिक स्वरूपविश्लेषण दार्शनिक युगमें अपनी उस सीमाको लाँघकर 'बाह्यपदार्थके सामान्यावलोकनका नाम दर्शन और विशेष परिज्ञानकका नाम ज्ञान' इस बाह्यपरिधिमें आ गया। इस सीमोल्लंघनका दार्शनिक प्रयोजन बौद्धादि-सम्मत निर्विकल्पककी प्रमाणताका निराकरण करना ही है । अकलङ्कदेवने विशद ज्ञानको प्रत्यक्ष बताते हुए जो ज्ञानका 'साकार' विशेषण दिया है यह उपर्यक्त अर्थको द्योतन करनेके ही लिए । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ . . बौद्ध क्षणिक परमाणु रूप चित्त या जड़-क्षणोंको स्वलक्षण मानते है। यही उनके मतमें परमार्थसत है, यही वास्तविक अर्थ है। यह स्वलक्षण शब्दशून्य है, शब्दके अगोचर है। शब्दका वाच्य इनके मतसे बुद्धिगत अभेदांश ही होता है। इन्द्रिय और पदार्थके सम्बन्धके अनन्तर निर्विकल्पक दर्शन उत्पन्न होता है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण है । इसके अनन्तर शब्दसंकेत और विकल्पवासना आदिका सहकार पाकर शब्दसंसर्गी सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। शब्दसंसर्ग न होनेपर भी शब्दसंसर्गकी योग्यता जिस ज्ञानमें आ जाय उसे विकल्प कहते हैं। किसी भी पदार्थको देखनेके बाद पूर्वदृष्ट तत्सदश पदार्थका स्मरण होता है, तदनन्तर तद्वाचक शब्दका स्मरण, फिर उस शब्दके साथ वस्तुका योजन, तब यह 'घट' है इत्यादि शब्दका प्रयोग । वस्तु-दर्शनके बाद होनेवाले--पूर्वदृष्ट-स्मरण आदि सभी व्यापार सविकल्पककी सीमामें आते हैं । तात्पर्य यह कि-निर्विकल्पक दर्शन वस्तुके यथार्थ स्वरूपका अवभासक होनेसे प्रमाण है। सविकल्पक ज्ञान शब्दवासनासे उत्पन्न होनेके कारण, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको स्पर्श नहीं करता, अतएव अप्रमाण है। इस निर्विकल्पकके द्वारा वस्तुके समग्ररूपका दर्शन हो जाता है, परन्तु निश्चय यथासम्भव सविकल्पक ज्ञान और अनुमानके द्वारा ही होता है। अकलंकदेव इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं कि किसी भी ऐसे निर्विकल्पक ज्ञानका अनुभव नहीं होता जो निश्चयात्मक न हो। सौत्रान्तिक बाह्यार्थवादी हैं। इनका कहना है कि यदि ज्ञान पदार्थ के आकार न हो तो प्रतिकर्मव्यवस्था अर्थात् घटज्ञान का विषय घट ही होता है पट नहीं-नहीं हो सकेगी। सभी पदार्थ एक ज्ञानके विषय या सभी ज्ञान सभी पदार्थोको विषय करनेवाले हो जायेंगे । अत: ज्ञानको साकार मानना आवश्यक है। यदि साकारता नहीं मानी जाती तो विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञानमें कोई भेद नहीं रहेगा। इनमें यही भेद है कि एक मात्रविषयके आकार है तथा दूसरा विषय और विषयज्ञान दोके आकार है। विषयकी सत्ता सिद्ध करने के लिए ज्ञानको साकार मानना नितान्त आवश्यक है। अकलंकदेवने साकारताके इस प्रयोजनका खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि विषय-प्रतिनियम ज्ञानकी अपनी शक्ति या क्षयोपशमके अनुसार होता है। जिस ज्ञानमें पदार्थको जाननेकी जैसी योग्यता है वह उसके अनुसार पदार्थको जानता है। तदाकारता माननेपर भी यह प्रश्न ज्यों-का-त्यों बना रहता है कि ज्ञान अमुक पदार्थ के हो आकारको क्यों ग्रहण करता है ? अन्य पदार्थोके आकारको क्यों नहीं ? अन्तमें ज्ञानगत शक्ति ही विषयप्रतिनियम करा सकती है, तदाकारता आदि नहीं । 'जो ज्ञान जिस पदार्थसे उत्पन्न हआ है वह उसके आकार होता है इस प्रकार तदत्पत्तिसे भी आकारनियम नहीं बन सकता; क्योंकि ज्ञान जिस प्रकार पदार्थसे उत्पन्न होता है उसी तरह प्रकाश और इन्द्रियोंसे भी। यदि तदुत्पत्तिसे साकारता आती है तो जिस प्रकार ज्ञान घटाकार होता है उसी प्रकार उसे इन्द्रिय तथा प्रकाशके आकार भी होना चाहिये । अपने उपादानभूत पूर्वज्ञानके आकारको तो उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये । जिस प्रकार ज्ञान घट के घटाकारको धारण करता है उसी प्रकार वह उसकी जड़ता को क्यों नहीं धारण करता? यदि घटके आकारको धारण करनेपर भी जड़ता अगृहीत रहती है तो घट और उसके जड़त्वमें भेद हो जायगा । यदि घटकी जड़ता अदताकार ज्ञानसे जानी जाती है तो उसी प्रकार घट भी अतदाकार ज्ञानसे जाना जाय । वस्तुमात्रको निरंश माननेवाले बौद्धके मतमें वस्तुका खण्डशः भाग तो नहीं ही होना चाहिये । समानकालीन पदार्थ कदाचित् ज्ञानमें अपना आकार अर्पित भी कर दें, पर अतीत और अनागत आदि अविद्यमान अर्थ ज्ञानमें अपना आकार कैसे दे सकते है ? Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : १११ विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञानमें भी अन्तर ज्ञानकी अपनी योग्यतासे ही हो सकता है। आकार माननेपर भी अन्ततः स्वयोग्यता स्वीकार करनी ही पड़ती है। अतः बौद्धपरिकल्पित साकारता अनेक दूषणोंसे दूषित होनेके कारण ज्ञानका धर्म नहीं हो सकती । ज्ञानकी साकारताका अर्थ है ज्ञानका उस पदार्थका निश्चय करना या उस पदार्थकी ओर उपयुक्त होना । निर्विकल्पक अर्थात् शब्द-संसर्गकी योग्यतासे भी रहित कोई ज्ञान हो सकता है यह अनुभवसिद्ध नहीं है । ज्ञान अर्थको जानता है-मुख्यतया दो विचारधाराएँ इस सम्बन्धमें हैं। एक यह कि-ज्ञान अपनेसे भिन्न सत्ता रखनेवाले जड़ और चेतन पदार्थों को जानता है। इस विचारधाराके अनुसार जगत्में अनन्त चेतन और अनन्त अचेतन पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता है। दूसरी विचारधारा बाह्य जड़ पदार्थों की पारमार्थिक सत्ता नहीं मानती, किन्तु उनका प्रातिभासिक अस्तित्व स्वीकार करती है। इनका मत है कि घटपटादि बाह्य पदार्थ अनादिकालीन विचित्र वासनाओंके कारण या माया अविद्या आदिके कारण विचित्र रूपमें प्रतिभासित होते हैं। जिस प्रकार स्वप्न या इन्द्रजालमें बाह्य पदार्थों का अस्तित्व न होनेपर भी अनेकविध अर्थक्रियाकारी पदार्थोंका सत्यवत् प्रतिभास होता है, उसी तरह अविद्यावासनाके कारण नानाविध विचित्र अर्थाका प्रतिभास हो जाता है। इनके मतसे मात्र चेतनतत्त्वकी ही पारमार्थिक सत्ता है। इसमें भी अनेक मतभेद हैं । वेदान्ती एक नित्य व्यापक ब्रह्मका ही पारमार्थिक अस्तित्व स्वीकार करते हैं। यही ब्रह्म नानाविध जीवात्माओं और अनेक प्रकारके घटपटादिरूप बाह्य अर्थोके रूपमें प्रतिभासित होता है। संवेदनाद्वैतवादी क्षणिक परमाणुरूप अनेक ज्ञानक्षणोंका पारमार्थिक अस्तित्व मानते हैं। इनके मतसे अनेक ज्ञानसन्ताने पृथक-पृथक पारमाथिक अस्तित्व रखती हैं। अपनी-अपनी वासनाओंके अनुसार ज्ञानक्षण नाना पदार्थोंके रूप में भासित होता है। पहिली विचारधाराका अनेकविध विस्तार न्यायवैशेषिक, सांख्ययोग, जैन, सौत्रान्तिक बौद्ध आदि दर्शनोंमें देखा जाता है। बाह्यार्थलोपकी दूसरी विचारधाराका आधार यह मालूम होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी कल्पनाके अनुसार पदार्थोंमें संकेत करके व्यवहार करता है । जैसे एक पुस्तकको देखकर उस धर्मका अनुयायी उसे धर्मग्रन्थ समझकर पूज्य मानता है। पुस्तकालयाध्यक्ष उसे अन्य पुस्तकोंकी तरह सामान्य पुस्तक समझता है, तो दुकानदार उसे रद्दीके भाव खरीदकर पुड़िया बाँधता है। भंगी उसे कूड़ा-कचरा मानकर झाड़ सकता है। गाय-भैंस आदि पशुमात्र उसे पुद्गलोंका पुंज समझकर घासकी तरह खा सकते हैं तो दीमक आदि कीड़ोंको उसमें पुस्तक यह कल्पना ही नहीं होगी। अब आप विचार कीजिए कि पुस्तकमें, धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी, कचरा, घासकी तरह खाद्य आदि संज्ञाएँ तत्तदव्यक्तियोंके ज्ञानसे ही आई हैं अर्थात् धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिका सद्भाव उन व्यक्तियोंके ज्ञानमें है, बाहिर नहीं । इस तरह धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिकी व्यवहारसत्ता है, परमार्थसत्ता नहीं। यदि धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिकी परमार्थ सत्ता होती तो वह प्राणिमात्रगाय, भैंसको भी धर्मग्रन्थ या पुस्तक दिखनी चाहिये थी। अतः जगत् केवल कल्पनामात्र है, उसका वास्तविक अस्तित्व नहीं। इसी तरह घट एक है या अनेक । परमाणुओंका संयोग एकदेशसे होता है या सर्वदेशसे । यदि एकदेशसे, तो छह परमाणुओंसे संयोग करनेवाले मध्य परमाणु में छह अंश मानने पड़ेंगे। यदि दो परमाणओंका सर्वदेशसे संयोग होता है, तो अणुओंका पिंड अणुमात्र हो जायगा । इस तरह जैसे-जैसे बाह्य पदार्थोंका विचार करते हैं वैसे-वैसे उनका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। बाह्य पदार्थोंका अस्तित्व तदाकार ज्ञानसे सिद्ध किया जाता है । यदि नीलाकार ज्ञान है तो नील नामके बाह्य पदार्थकी क्या आवश्यकता? यदि नीलाकार ज्ञान Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ नहीं तो नीलकी सत्ता ही कैसे सिद्ध की जा सकती है ? अतः ज्ञान ही बाह्य और आन्तर ग्राह्य और ग्राहक रूपमें स्वयं प्रकाशमान है, कोई बाह्यार्थ नहीं। पदार्थ और ज्ञानका सहोपलम्भ नियम है, अतः दोनों अभिन्न हैं। अकलङ्कदेवने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि-अद्वय तत्त्व स्वतः प्रतिभासित होता है या परतः ? यदि स्वतः, तो किमीको विवाद नहीं होना चाहिए। नित्य ब्रह्मवादीकी तरह क्षणिक विज्ञानवादी भी अपने तत्त्वका स्वतः प्रतिभास कहते है। इनमें कौन सत्य समझा जाय ? परतः प्रतिभासपरके बिना नहीं हो सकता । परको स्वीकार करनेपर अद्वैत तत्त्व नहीं रह सकता। विज्ञानवादी इन्द्रजाल या स्वप्नका दृष्टान्त देकर बाह्य पदार्थका लोप करना चाहते हैं। किन्तु इन्द्रजालप्रतिभासित घट और बाह्य सत् घटमें अन्तर तो स्त्री बाल गोपाल आदि भी कर लेते हैं । वे घट-पट आदि बाह्य पदार्थों में अपनी इष्ट अर्थक्रियाके द्वारा आकांक्षाओंको शान्त कर सन्तोषका अनुभव करते हैं जब कि इंद्रजाल या मायादृष्ट पदार्थोंसे न तो अर्थक्रिया ही होती है और न तज्जन्य सन्तोषानुभव हो । उनका काल्पनिकपना तो प्रतिभास काल में ही ज्ञात हो जाता है । धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी आदि संज्ञाएँ मनुष्यकृत और काल्पनिक हो सकती है पर जिस वजनवाले रूपरसगन्धस्पर्शवाले स्थूल पदार्थमें ये संज्ञाएँ की जाती है वह तो काल्पनिक नहीं है। वह तो ठोस, वजनदार, सप्रतिघ, रूपरसादिगुणोंका आधार परमार्थसत् पदार्थ है। उस पदार्थको अपने-अपने संकेतके अनसार कोई धर्मग्रन्थ कहे, कोई पुस्तक, कोई बक, कोई किताब या अन्य कुछ कहे । ये संकेत व्यवहा लिए अपनी परम्परा और वासनाओंके अनुसार होते हैं, उसमें कोई आपत्ति नहीं है । दृष्टिसृष्टिका अर्थ भी यही है कि-सामने रखे हुए परमार्थसत् ठोस पदार्थमें अपनी दृष्टिके अनुसार जगत् व्यवहार करता है। उसकी व्यवहारसंज्ञाएँ प्रातिभासिक हो सकती हैं पर वह पदार्थ जिसमें वे संज्ञाएँ की जाती है, ब्रह्म या विज्ञान की तरह ही परमार्थसत् है । नीलाकार ज्ञानसे तो कपड़ा नहीं रँगा जा सकता ? कपड़ा रँगनेके लिए ठोस परमार्थसत् जड़ नील चाहिए जो ऐसे ही कपड़ेके प्रत्येकतन्तुको नीला बनायगा। यदि कोई परमार्थसत 'नील' अर्थ न हो, तो नीलाकार वासना कहाँसे उत्पन्न हुई ? वासना तो पूर्वानुभवकी उत्तर दशा है। यदि जगतमें नील अर्थ नहीं है तो ज्ञानमें नीलाकार कहाँसे आया ? वासना नीलाकार कैसे बन गई ? तात्पर्य यह कि व्यवहारके लिए की जानेवाली संज्ञाएँ, इष्ट-अनिष्ट, सुन्दर-असुन्दर, आदि कल्पनाएँ भले ही विकल्पकल्पित हों और दृष्टिसृष्टिको सीमामें हों, पर जिस आधारपर ये सब कल्पनाएँ कल्पित होती हैं वह आधार ठोस और सत्य है । विषके ज्ञानसे मरण नहीं हो सकता। विषका खानेवाला और विष दोनों ही परमार्थसत् हैं तथा विषके संयोगसे होनेवाले शरीरगत रासायनिक परिणमन भी। पर्वत, मकान, नदी आदि पदार्थ यदि ज्ञानात्मक ही हैं तो उनमें मर्तत्व, स्थूलत्व, सप्रतिघत्व आदि धर्म कैसे आ सकते हैं ? ज्ञानस्वरूप नदीमें स्नान या ज्ञानात्मक जलसे तृषाशान्ति अथवा ज्ञानात्मक पत्थरसे सिर तो नहीं फूट सकता?' यदि अद्वयज्ञान ही है तो शास्त्रोपदेश आदि निरर्थक हो जायँगे। परप्रतिपत्तिके लिए ज्ञानसे अतिरिक्त वचनकी सत्ता आवश्यक है । अद्वयज्ञानमें प्रतिपत्ता, प्रमाण, विचार आदि प्रतिभासकी सामग्री तो माननी ही पड़ेगी, अन्यथा प्रतिभास कैसे होगा ? अद्वयज्ञानमें अर्थ-अनर्थ, तत्त्व-अत्तत्त्व आदिकी व्यवस्था न होनेसे तद्ग्राही ज्ञानोंमें प्रमाणता या अप्रमाणताका निश्चय कैसे किया जा सकेगा? ज्ञानाद्वैतकी सिद्धिके लिए अनुमानके अंगभूत साध्य, साधन, दृष्टान्त आदि तो स्वीकार करने ही होंगे, अन्यथा अनुमान कैसे हो सकेगा? सहोपलम्भ-एक साथ उपलब्ध होना–से अभेद सिद्ध नहीं किया जा सकता; कारण, दो भिन्नसत्ताक पदार्थों में ही एक साथ उपलब्ध होना कहा जा सकता है। ज्ञान अन्तरंगमें चेतन रूपसे तथा अर्थ बहिरंगमें जड़रूपसे अनुभवमें आता है, अतः इनका सहोपलम्भ असिद्ध भी हैं । अर्थशून्य ज्ञान स्वाकारतया तथा ज्ञानशून्य अर्थ अपने अर्थरूपमें अस्तित्व Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ११३ रखते ही हैं, भले ही हमें वे अज्ञात हो । यदि हम बाह्यपदार्थोंका इदमित्थंरूप निरूपण या निर्वचन नहीं कर सकते तो इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन पदार्थोंका अस्तित्व ही नहीं है। अनन्तधर्मात्मक पदार्थका पूर्ण निरूपण तो सम्भव ही नहीं है । शब्द या ज्ञानकी अशक्तिके कारण पदार्थोका लोप नहीं किया जा सकता। नीलाकारज्ञान रहनेपर भी कपड़ा रँगने को नीलपदार्थ की नितान्त आवश्यकता है। ज्ञानमें नीलाकार भी बिना नीलके नहीं आ सकता। अनेक परमाणुओंसे जो स्कन्ध बनता है उस स्कन्धका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, उन्हीं परमाणुओंका कथन्चित्तादात्म्य सम्बन्ध अर्थात् रासायनिक मिश्रण होनेपर परस्पर बन्न हो जाता है और वह स्कन्ध स्थूल और इन्द्रियग्राह्य होता है। यही अनुभवसिद्ध है। न तो उसका एकदेशसे सम्बन्ध होता है और न सर्वदेशसे, किन्तु जड़ पदार्थों का स्निग्ध और रूक्षताके कारण कियत्काल स्थायी विलक्षणबन्ध हो जाता है। जिस प्रकार एक ज्ञान स्वयं ज्ञानाकार, ज्ञेयाकार और ज्ञप्तिस्वरूप अनुभवमें आता है, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्मों का आधार होता है इसमें विरोध आदि दूषणोंका कोई प्रमङ्ग नहीं है। इस तरह अन्तरङ्गजानसे पृथक्, स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाले बाह्य जड़पदार्थ हैं । इन्हीं ज्ञेयोंको ज्ञान जानता है । अतः अकलङ्देवने प्रत्यक्षके स्वरूपनिरूपणमें ज्ञानका अर्थवेदन विशेषण दिया है जो ज्ञानको आत्मवेदीके साथ ही साथ अर्थवेदी सिद्ध करता है । इस तरह ज्ञान स्वभावसे स्वपरवेदी है, स्वार्थसंवेदक है। ५. अर्थ-सामान्यविशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक है ज्ञान अर्थको विषय करता है यह विवेचन हो चुकनेपर विचारणीय मुद्दा यह है कि अर्थका क्या स्वरूप है ? जैन दृष्टिसे प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है या संक्षेपसे सामान्यविशेषात्मक है। वस्तुमें दो प्रकारके अस्तित्व है-एक स्वरूपास्तित्व और दूसरा सादृश्यास्तित्व । एक द्रव्यको अन्य सजातीय या विजातीय किसी भी द्रव्यसे अपङ्कीर्ण रखने वाला स्वरूपास्तित्व है। इसके कारण एक द्रव्यकी पर्यायें दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यसे अमङ्कीर्ण पृथक् अस्तित्व रखती हैं। यह स्वरूपास्तित्व जहाँ इतरद्रव्योंसे व्यावृत्ति कराता है वहाँ अपनी पर्यायोंमें अनुगत भी रहता है। अतः इस स्वरूपास्तित्वसे अपनी पयायोंमें अनुगत प्रत्यय उत्पन्न होता है और इतरद्रव्योंसे व्यावृत्त प्रत्यय । इस स्वरूपास्तित्वको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं । इसे ही द्रव्य कहते हैं। क्योंकि यही अपनी क्रमिक पर्यायोंमें द्रवित होता है, क्रमशः प्राप्त होता है। दूसरा सादृश्यास्तित्व है जो विभिन्न अनेक द्रव्यों में गौ-गौ इत्यादि प्रकारका अनुगत व्यवहार कराता है । इसे तिर्यक्सामान्य कहते हैं। तात्पर्य यह कि अपनी दो पर्यायों में अनुगत व्यवहार करानेवाला स्वरूपास्तित्व होता है। इसे ही ऊर्खतासामान्य और द्रव्य कहते हैं। तथा विभिन्न दो द्रव्योंमें अनुगत व्यवहार करानेवाला सादृश्यास्तित्व होता है। इसे तिर्यक्सामान्य या सादृश्यसामान्य कहते हैं। इसी तरह, दो द्रव्योंमें व्यावृत्त प्रत्यय करानेवाला व्यतिरेक जातिका विशेष होता है तथा अपनी ही दो पर्यायों में विलक्षण प्रत्यय करानेवाला पर्याय नामका विशेष होता है। निष्कर्ष यह कि एकद्रव्यकी पर्यायोंमें अनुगत प्रत्यय ऊर्ध्वतासामान्य या द्रव्यसे होता है तथा व्यावृत्तप्रत्यय पर्याय-विशेषसे होता है। दो विभिन्न द्रव्योंमें अनुगतप्रत्यय सादृश्यसामान्य या तिर्यक्सामान्यसे होता है और व्यावृत्तप्रत्यय व्य तिरेकविशेषसे होता है। इस तरह प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक होता है। यद्यपि सामान्यविशेषात्मक कहनेसे द्रव्यपर्यायात्मकत्वका बोत्र हो जाता, पर द्रव्यपर्यायात्मकके पृथक् कहनेका प्रयोजन यह है कि पदार्थ न केवल द्रव्यरूप है और न पर्यायरूप, किन्तु प्रत्येक सत् उत्पाद-व्ययध्रौव्यवाला है । इनमें उत्पाद और व्यय पर्याय का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा ध्रौव्य द्रव्यका । पदार्थ सामान्यविशेषात्मक तो उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् न होकर भी हो सकता है, अतः उसके निज स्वरूपका पृथक् भान करानेके लिए द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण दिया है। ४-१५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सामान्य विशेषात्मक विशेषण धर्मरूप है, जो अनुगतप्रत्यय और व्यावृत्तप्रत्ययका विषय होता है । द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण परिणमनसे सम्बन्ध रखता है। प्रत्येक वस्तु अपनी पर्यायधारामें परिणत होती हुई भविष्य वर्तमान और वर्तमानसे अतीत क्षणको प्राप्त करती है । वह वर्तमानको अतीत और भविष्यको वर्तमान बनाती रहती है। प्रतिक्षण परिणमन करनेपर भी अतीतके यावत् संस्कारपुज इसके वर्तमानको प्रभावित करते हैं या यों कहिए कि इसका वर्तमान अतीतसंस्कारपुंजका कार्य है और वर्तमान कारणके अनुसार भविष्य प्रभावित होता है । इस तरह यद्यपि परिणमन करनेपर कोई अपरिवर्तित या कटस्थ नित्य अंश वस्तमें शेष नहीं रहता जो त्रिकालावस्थायी हो, पर इनना विच्छिन्न परिणमन भी नहीं होता कि अतीत, वर्तमान और भविष्य बिलकूल असम्बद्ध और अतिविच्छिन्न हों। वर्तमानके प्रति अतीतका उपादान कारण होना और वर्तमानका भविष्यके प्रति, यह सिद्ध करता है कि तीनों क्षणोंकी अविच्छिन्न कार्यकारणपरम्परा है। न तो वस्तुका स्वरूप सदा स्थायी नित्य ही है और न इतना विलक्षण परिणमन करनेवाला जिससे पूर्व और उत्तर भिन्नसन्तानकी तरह अतिविच्छिन्न हों। भदन्त नागसेनने 'मिलिन्द प्रश्न' में जो कर्म और पुनर्जन्मका विवेचन किया है ( दर्शनदिग्दर्शन, पृ० ५५१) उसका तात्पर्य यही है कि पूर्वक्षणको 'प्रतीत्य' अर्थात् उपादान कारण बनाकर उत्तरक्षणका 'समुत्पाद' होता है। मज्झिमनिकाय में "अस्मिन् सति इदं भवति" इसके होनेपर यह होता है, जो इस आशयका वाक्य है उसका स्पष्ट अर्थ यही हो सकता है कि क्षणसन्तति प्रवाहित है, उसमें पूर्वक्षण उत्तरक्षण बनता जाता है । जैसे वर्तमान अतीतसंस्कारपुंजका फल है वैसे ही भविष्यक्षणका कारण भी। श्री राहुल सांकृत्यायनने दर्शन-दिग्दर्शन ( पृ० ५१२ ) में प्रतीत्यसमुत्पादका विवेचन करते हुए लिखा है कि-'प्रतीत्यसमुत्पाद कार्यकारण नियमको अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह बतलाता है। प्रतीत्यसमुत्पादके इसी विच्छिन्न प्रवाहको लेकर आगे नागार्जुनने अपने शून्यवादको विकसित किया।" इनके मतसे प्रतीत्यसमुत्पाद विच्छिन्न प्रवाहरूप है और पूर्वक्षणका उत्तरक्षणसे कोई सम्बन्ध नहीं है। पर ये प्रतीत्य शब्दके 'हेतुं कृत्वा' अर्थात् पूर्वक्षणको कारण बनाकर इस सहज अर्थको भूल जाते हैं। पूर्वक्षणको हेतु बनाए बिना यदि उत्तरका नया ही उत्पाद होता है तो भदन्त नागसेनकी कर्म और पुनर्जन्मकी सारी व्याख्या आधारशून्य हो जाती है। क्या द्वादशाङ्ग प्रतीत्यसमुत्पादमें विच्छिन्नप्रवाह युक्तिसिद्ध है ? यदि अविद्याके कारण संस्कार उत्पन्न होता है और संस्कारके कारण विज्ञान आदि, तो पूर्व और उत्तरका प्रवाह विच्छिन्न कहाँ हुआ? एक चित्तक्षणकी अविद्या उसी चित्तक्षणमें ही संस्कार उत्पन्न करती है अन्य चित्तक्षणमें नहीं, इसका नियामक वही प्रतीत्य है । जिसको प्रतीत्य जिसका समुत्पाद हुआ है उन दोनोंमें अतिविच्छेद कहाँ हुआ? राहुलजी वहीं (१० ५१२ ) अनित्यवादकी "बुद्ध का अनित्यवाद भी 'दसरा ही उत्पन्न होता है । दसरा ही नष्ट होता है' के कहे अनुसार किसी एक मौलिक तत्त्वका बाहरी परिवर्तनमात्र नहीं, बल्कि एकका बिलकुल नाश और दूसरेका बिलकुल नया उत्पाद है । बुद्ध कार्यकारणकी निरन्तर या अविच्छिन्न सन्ततिको नहीं मानते ।" इन शब्दों में व्याख्या करते हैं। राहुलजी यहाँ भी केवल समुत्पादको ही ध्यानमें रखते हैं, उसके मलरूप 'प्रतीत्य'को सर्वथा भुला देते हैं। कर्म और पुनर्जन्मकी सिद्धिके लिये प्रयुक्त "महाराज, यदि फिर भी जन्म नहीं ग्रहण करे तो मुक्त हो गया; किन्तु चूंकि वह फिर भी जन्म ग्रहण करता है इसलिए ( मुक्त) नहीं हुआ।" इस सन्दर्भ में 'वह फिर भी' शब्द क्या अविच्छिन्न प्रवाहको सिद्ध नहीं कर रहे हैं। बौद्धदर्शनका 'अभौतिक अनात्मवादो' नामकरण केवल भौतिकवादी चार्वाक और आत्मनित्यवादी औपनिषदोंके निराकरणके लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिये, पर वस्तुतः बुद्ध क्षणिक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ११५ चित्तवादी थे । क्षणिकचित्तको भी अविच्छिन्न सन्तति मानते थे न कि विच्छिन्नप्रवाह । आचार्य कमलशोलने तत्त्वसंग्रहपंजिका (पृ० १८२ ) में कर्तृकर्मसम्बन्धपरीक्षा करते हुए इस प्राचीन श्लोकके भावको उद्धृत किया है "यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना। फलं तत्रैव सन्धत्ते कासेि रक्तता यथा ॥" अर्थात्-जिस सन्तानमें कर्मवासना प्राप्त हुई है उसका फल भी उसी सन्तानमें होता है । जो लाखके रङ्ग से रँगा गया है उसी कपास-बीजसे उत्पन्न होनेवाली रूई लाल होती है, अन्य नहीं। राहलजी इस परम्पराका विचार करें और फिर बुद्धको विच्छिन्नप्रवाही बतानेका प्रयास करें! हाँ, यह अवश्य था किवे अनन्त क्षणोंमें शाश्वत सत्ता रखनेवाला कूटस्थ नित्य पदार्थ स्वीकार नहीं करते थे। पर वर्तमान क्षण अनन्त अतीतके संस्कारोंका परिवर्तित पुंज स्वगर्भ में लिए हैं और उपादेय भविष्यक्षण उससे प्रभावित होता है, इस प्रकारके कालिक सम्बन्धको वे मानते थे। यह बात बौद्ध दर्शनके कार्यकारणभावके अभ्यासीको सहज ही समझ में आ सकती है।। निर्वाणके सम्बन्ध में राहलजी सर राधाकृष्णन्की आलोचना करते समय (पृ० ५२९ ) बड़े आत्मविश्वासके साथ लिख जाते हैं कि-"किन्तु बौद्ध-निर्वाणको अभावात्मक छोड़ भावात्मक माना ही नहीं जा सकता।" कृपाकर वे आचार्य कमलशीलके द्वारा तत्त्वसंग्रहपंजिका (१० १०४) में उद्धृत इस प्राचीनश्लोकके अर्थका मनन करें "चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैविनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थात्-चित्त जब रागादिदोष और क्लेश संस्कार से संयुक्त रहता है तब संसार कहा जाता है और जब तदेव--वही चित्त रागादिवलेश वासनाओंसे रहित होकर निरास्रवचित्त बन जाता है तब उसे भवान्त अर्थात् निर्वाण कहते हैं । शान्तरक्षित तो (तत्त्वसं० पृ० १८४ ) बहुत स्पष्ट लिखते हैं कि "मुवितनिर्मलता धियः" अर्थात्-चित्तकी निर्मलताको मुक्ति कहते हैं। इस श्लोकमें किस निर्वाणकी सूचना है ? वही चित्त रागादिप्रवाहसे वासित रहकर संसार बना और वही रागादिसे शून्य होकर मोक्ष बन गया। राहुलजी माध्यमिकवृत्ति (पृ० ५१९ ) गत इस निर्वाणके पूर्वपक्षको भी ध्यानसे देखें "इह हि उषितब्रह्मचर्याणां तथागतशासनप्रतिपन्नानां धर्मानुधर्मप्रतिपत्तियुक्तानां पुद्गलानां द्विविधनिर्वाणमपणितम्-सोपधिशेषं निरुपधिशेषं च। तत्र निरवशेषस्य अविद्यारागादिकस्य क्लेशगणस्य प्रहाणात् सोपधिशेष निर्वाणमिप्यते । तत्र 'उपधीयते अस्मिन् आत्मस्नेह इत्युपधिः । उपधिशब्देन आत्मप्रज्ञप्तिनिमित्ताः पञ्चोपादानस्कन्धा उच्यन्ते । शिष्यते इति शेषः, उपधिरेव शेषः उपधिशेषः-सह उपधिशेषेण वर्तत इति सोपधिशेषम् । कि तत् ? निर्वाणम् । तच्च स्कन्धमात्रकमेव केवलं सत्कायदृष्ट्यादि-क्लेशतस्कररहितमवशिष्यते निहताशेषचौरगणग्राममात्रावस्थानसाधम्र्येण तत् सोपधिशेषं निर्वाणम् । यत्र तु निर्वाणे स्कन्धमात्रकमपि नास्ति तन्निरुपधिशेष निर्वाणम् । निर्गत उपधिशेषोऽस्मिन्निति कृत्वा । निहताशेषचौरगणस्यग्राममात्रस्यापि विनाशसाधर्येण ।" अर्थात् निर्वाण दो प्रकारका है-१-सोपधिशेष २-निरुपधिशेष । सोपधिशेषमें रागादिका नाश होकर जिन्हें आत्मा कहते हैं ऐसे पाँचस्कन्ध निरास्रव दशामें रहते हैं। दूसरे निरुपधिशेष निर्वाणमें स्कन्ध भी नष्ट हो जाते हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थं बौद्ध परम्परामें इस सोपधिशेष निर्वाणको भावात्मक स्वीकार किया गया है। यह जोवन्मुक्त आखिर बौद्धदर्शन में ये दो परम्पराएँ निर्वाणके सम्बन्धमें क्यों प्रचलित हुईं ? इसका उत्तर हमें बुद्धकी अव्याकृत सूचीसे मिल जाता है । बुद्धने निर्वाणके बादकी अवस्था सम्बन्धी इन चार प्रश्नोंको अव्याकरणीय अर्थात् उत्तर देनेके अयोग्य बताया। “१ - क्या मरनेके बाद तथागत ( बुद्ध ) होते हैं ? २ -क्या मरनेके बाद तथागत नहीं होते ? ३ - क्या मरनेके बाद तथागत होते भी हैं नहीं भी होते हैं ? ४ - क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं न नहीं होते हैं ?" माँलुक्यपुत्रके प्रश्नपर बुद्धने वहा कि इनका जानना सार्थक नहीं है क्योंकि इनके बारेमें कहना भिक्षुचर्या निर्वेद या परमज्ञानके लिए उपयोगी नहीं है । यदि बुद्ध स्वयं निर्वाण स्वरूपके सम्बन्धमें अपना सुनिश्चित मत रखते होते तो वे अन्य सैकड़ों लौकिक अलौfor प्रश्नोंकी तरह इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें न डालते । और यही कारण है जो निर्वाणके विषय में दो धाराएँ बौद्ध दर्शनमें प्रचलित हो गईं हैं । दशाका वर्णन नहीं है किन्तु निर्वाणावस्थाका | इसी तरह बुद्धने जीव और शरोरकी भिन्नता और अभिन्नता को अव्याकृत कोटिमें डालकर श्री राहुलजीको बौद्धदर्शनके 'अभौतिक अनात्मवाद' जैसे उभयप्रतिषेधक नामकरणका अवसर दिया । बुद्ध अपने जीवन में देह और आत्माके जुदापन और निर्वाणोत्तर जीवन आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंके शतराहेपर अपने शिष्यको खड़ाकर लक्ष्यच्युत नहीं करना चाहते थे । इसलिए लोक क्या है ? आत्मा क्या है ? और निर्वाणोत्तर जीवन कैसा है ? इन जीवन्त प्रश्नोंको भी उनने अव्याकरणीय करार दिया। उनकी विचारधारा और साधनाका केन्द्रबिन्दु वर्तमान दुःखकी निवृत्ति ही रहा है। राहुलजो एक ओर तो विच्छिन्न प्रवाह मानते हैं और दूसरी ओर पुनर्जन्म । वे इतनी बड़ी असङ्गतिको कैसे पी जाते हैं कि यदि पूर्व और उत्तर क्षण विच्छिन्न हैं तो पुनर्जन्म कैसा और किसका ? क्या बुद्धवाक्योंकी ऐसी असंगत व्याख्याको सम्हानेका प्रयत्न शान्तरक्षित और कमलशील- जैसे दार्शनिकोंने किया है, जो एक अविच्छिन्न कार्यकारण प्रवाह मानते हैं ? अविच्छिन्नका अर्थ है कार्यकारणभाववाली । जैन दर्शन की दृष्टि में प्रत्येक सत् परिणामी है और वह परिणमन प्रतिक्षणभावी स्वाभाविक है । उसमें किसी अन्य हेतुकी आवश्यकता नहीं है । यदि अन्य कारण मिले तो वे उस परिणमनको प्रभावित कर सकते हैं पर उपादान कारण तो पूर्वपर्याय ही होगी और उसमें जो कुछ है सब अखण्डरूप ही है । अतः द्वितीय क्षण में वह अखण्डका अखण्ड उत्तरपर्याय बन जाता है। चूँकि पुराना क्षण ही वर्तमान बना है और भविष्यको अपने में शक्ति या उपादान रूपसे छिपाए है अतः स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि व्यवहार सोपपत्तिक और समूल बन जाते हैं । परिणामीका अर्थ है उत्पाद और व्यय होते हुए भी ध्रौव्य रहना । आपाततः यह मालूम होता है कि जो उत्पादविनाशवाला है वह ध्रुव कैसे रह सकता है ? पर ध्रौव्यका अर्थ सदा स्थायी कूटस्थ नित्य नहीं है और न यह विवक्षित है कि वस्तुके कुछ अंश उत्पाद - विनाशके कारण परिवर्तित होते हैं तथा कुछ अंश उस परिवर्तन से अछूते ध्रुव बने रहते हैं, और न परिवर्तनका यह स्थूल अर्थ ही है कि जो प्रथमक्षण में है, दूसरे क्षण में वह बिलकुल बदल जाता है या विलक्षण हो जाता है। परिवर्तन सदृश भी होता है, विसदृश भी । शुद्ध चेतनद्रव्य मुक्त अवस्था में प्रतिक्षण परिवर्तित रहनेपर भी कभी विलक्षण परिवर्तन नहीं करता, उसका सदा सदृश परिवर्तन हो होता रहता है। इसी तरह आकाश, काल, धर्म और अधर्मद्रव्य सदा स्वभावपरिणमन करते हैं । उनमें परिवर्तन करते रहनेपर भो कहने लायक कोई विलक्षणता नहीं आती । यों समझाने के लिए परद्रव्यों के परिवर्तनके अनुसार इनमें भी परप्रत्यय विलक्षणता दिखाई जा सकती है पर न तो इनमें देशभेद होता है न आकारभेद और न स्वरूपविलक्षणता ही । इनका स्वाभाविक परिणमन तो अगुरुलघु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ११७ गुणकृत ही है । रह जाता है पुद्गलद्रव्य, जिसका शुद्ध परिणमन कोई निश्चित नहीं है । कारण यह है कि शुद्ध जीवको न तो जीवान्तरका सम्पर्क विकारी बना सकता है और न किसी पुद्गलद्रव्यका संयोग ही, पर पुद्गलमें तो पुद्गल और जीव दोनोंके निमित्तसे विकृति उत्पन्न होती है । लोकमें ऐसा कोई प्रदेश भी नहीं है जहाँ अन्य पुद्गल या जीवके सम्पर्क से विवक्षित पुद्गलाणु अछूता रह सकता हो । अतः कदाचित् पुद्गल अपनी शुद्ध - अणु अवस्थामें भी पहुँच जाय, पर उसके गुण और धर्म शुद्ध होंगे या द्वितीयक्षणमें शुद्ध रह सकते हैं, इसका कोई नियामक नहीं है । अनेक पुद्गलद्रव्य मिलकर स्कन्ध दशामें एक संयुक्त बद्ध पर्याय भी बनाते हैं, पर अनेक जीव मिलकर एक संयुक्तपर्याय नहीं बना सकते । सबका परिणमन अपना जुदा-जुदा है । स्कन्धगत परमाणुओंमें भी प्रत्येकशः अपना सदृश या विसदृश परिणमन होता रहता है और उन सब परिणमनों की औसत से ही स्कन्धका वजन, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श व्यवहारमें आता है । स्कन्धगत परमाणुओं में क्षेत्रकृत और आकारकृत सादृश्य होनेपर भी उनका मौलिकत्व सुरक्षित रहता है । लोकसे एक भी परमाणु अनन्त परिवर्तन करनेपर भी निःसत्त्व -सत्ताशून्य अर्थात् असत् नहीं हो सकता । अतः परिणमन में विलक्षणता अनुभूत न होनेपर भी स्वभावभूत परिवर्तन प्रतिक्षण होता ही रहता है । द्रव्य एक नदी के समान अतीत वर्तमान और भविष्य पर्यायोंका कल्पित प्रवाह नहीं है । क्योंकि नदी विभिन्न सत्ताक जलकणोंका एकत्र समुदाय है जो क्षेत्रभेद करके आगे बढ़ता जाता है । किन्तु भविष्य, पर्याय एक-एक क्षणमें क्रमशः वर्तमान होतो हुई इस समय एकक्षणवर्ती वर्तमान के रूपमें है । अतीत पर्यायोंका कोई पर्याय- अस्तित्व नहीं है पर जो वर्तमान है वह अतीतका कार्य है, और यही भविष्यका कारण है । सत्ता एकसमयमात्र वर्तमानपर्यायकी है । भविष्य और अतीत क्रमशः अनुत्पन्न और विनष्ट हैं । अन्ततः धौव्य इतना ही है कि एक द्रव्यकी पूर्वपर्याय द्रव्यान्तरको उत्तर पर्याय नहीं बनती और न वहीं समाप्त होती है । इस तरह द्रव्यान्तरसे असाङ्कर्यका नियामक ही ध्रौव्य है । इसके कारण प्रत्येक द्रव्यकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और नियत कारणकार्य परम्परा चालू रहती है । वह न विच्छिन्न होती है और न संकर ही । यह भी अतिसुनिश्चित है कि किसी भी नये द्रव्यका उत्पाद नहीं होता और न मौजूदका अत्यन्त विनाश हो । केवल परिवर्तन, सो भी प्रतिक्षण निराबाध गतिसे । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है। वह अनन्त गुण और अनन्त शक्तियोंका धनी है । पर्यायानुसार कुछ शक्तियाँ आविभूत होती हैं कुछ तिरोभूत । जैनदर्शनमें इस सत्का एक लक्षण तो "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्", दूसरा है "सद् द्रव्यलक्षणम्" । इन दोनों लक्षणोंका मथितार्थ यही है कि द्रव्यको सत् कहना चाहिए और वह द्रव्य प्रतिक्षण उत्पाद, व्ययके साथ-ही-साथ अपने अविच्छिन्नता रूप व्यको धारण करता है । द्रव्यका लक्षण है - "गुणपर्यंयवद् द्रव्यम्" अर्थात् गुण और पर्यायवाला द्रव्य होता है । गुण सहभावी और अनेक शक्तियोंके प्रतिरूप होते हैं जब कि पर्याय क्रमभावी और एक होती है। द्रव्यका प्रतिक्षण परिणमन एक होता है । उस परिणमनको हम उन उन गुणोंके द्वारा अनेक रूपसे वर्णन कर सकते हैं । एक पुद्गलाणु द्वितीय समय में परिवर्तित हुआ तो उस एक परिणमनका विभिन्न रूपरसादि गुणोंके द्वारा अनेक रूपमें वर्णन हो सकता है । विभिन्न गुणोंकी द्रव्यमें स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे स्वतन्त्र परिणमन नहीं माने जा सकते । अकलंकदेवने प्रत्यक्ष के ग्राह्य अर्थका वर्णन करते समय द्रव्य पर्याय - सामान्य- विशेष इस प्रकार जो चार विशेषण दिए हैं वे पदार्थ की उपर्युक्त स्थितिको सूचित करनेके लिए ही हैं । द्रव्य और पर्याय पदार्थकी परिणतिको सूचित करते हैं तथा सामान्य और विशेष अनुगत और व्यावृत्त व्यवहारके विषयभूत धर्मोकी सूचना देते हैं । नैयायिक वैशेषिक प्रत्ययके अनुसार वस्तुकी व्यवस्था करते हैं । इन्होंने जितने प्रकारके ज्ञान Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ और शब्द-व्यवहार होते हैं उनका वर्गीकरण करके असाङ्कर्यभावसे उतने पदार्थ माननेका प्रयत्न किया है । इसीलिए इन्हें 'संप्रत्ययोपाध्याय' कहा जाता है। पर प्रत्यय अर्थात् ज्ञान और शब्द व्यवहार इतने अपरिपूर्ण और लचर हैं कि इनपर पूरा-पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। ये तो वस्तुस्वरूपकी ओर इशारामात्र हो कर सकते हैं । 'द्रव्यम् द्रव्यम्' ऐसा प्रत्यय हुआ एक द्रव्य पदार्थ मान लिया । 'गुण गुण' प्रत्यय हुआ गुण पदार्थ मान लिया । 'कर्म कर्म' ऐसा प्रत्यय हुआ कर्म पदार्थ मान लिया। इस तरह इनके सात पदार्थोंhttथति प्रत्ययके आधीन है । परन्तु प्रत्ययसे मौलिक पदार्थ की स्थिति स्वीकार नहीं की जा सकती । पदार्थ तो अपना अखण्ड ठोस स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है, वह अपने परिणमनके अनुसार अनेक प्रत्ययोंका विषय हो सकता है । गुण क्रिया सम्बन्ध आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं, ये तो द्रव्यकी अवस्थाओंके विभिन्न व्यवहार हैं । इसी तरह सामान्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है जो नित्य और एक होकर अनेक स्वतन्त्रसत्ताक व्यक्तियोंमें मोतियों में सूतकी तरह पिरोया गया | पदार्थों के परिणमन कुछ सदृश भी होते हैं और कुछ विसदृश भी । दो विभिन्नसत्ताक व्यक्तियोंमें भूयः साम्य देखकर अनुगत व्यवहार होने लगता है । अनेक आत्माएँ अपने विभिन्न शरीरोंमें वर्तमान हैं, पर जिनकी अवयवरचना अमुक प्रकारकी सदृश है उनमें 'मनुष्यः मनुष्यः ' ऐसा सामान्य व्यवहार किया जाता है तथा जिनकी घोड़ों-जैसी उनमें 'अश्वः अश्वः' यह व्यवहार | जिन आत्माओंमें सादृश्यके आधारसे मनुष्य-व्यवहार हुआ है उनमें मनुष्यत्व नामका कोई सामान्य पदार्थ, जो कि अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है, आकर समत्रायनामक सम्बन्ध पदार्थ से रहता है यह कल्पना पदार्थस्थितिके विरुद्ध है । 'सत् सत्' 'द्रव्यम् द्रव्यम्' इत्यादि प्रकारके सभी अनुगत व्यवहार सादृश्यके आधारसे ही होते हैं । सादृश्य भी उभयनिष्ठ कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । किन्तु वह बहुत अवयवोंकी समानता रूप ही है । तत्तद् अवयव उन-उन व्यक्तियोंमें रहते ही हैं । उनमें समानता देखकर द्रष्टा उस रूपसे अनुगत व्यवहार करने लगता है । वह सामान्य नित्य एक और निरंश होकर यदि सर्वगत है तो उसे विभिन्न देशस्थ स्वव्यक्तियों में खण्डशः रहना होगा; क्योंकि एक वस्तु एक साथ भिन्न देशमें पूर्णरूपसे नहीं रह सकती । नित्य निरंश सामान्य जिस समय एक व्यक्तिमें प्रकट होता है उसी समय उसे सर्वत्र व्यक्तियोंके अन्तरालमें भी प्रकट होना चाहिए | अन्यथा ' क्वचित् व्यक्त' और 'क्वचित् अव्यक्त' रूपसे स्वरूपभेद होनेपर अनित्यत्व और सांशत्वका प्रसङ्ग प्राप्त होगा । यदि सामान्य पदार्थ अन्य किसी सत्तासम्बन्धके अभाव में भी स्वतः सत् है तो उसी तरह द्रव्य गुण आदि पदार्थ भी स्वतः सत् ही क्यों न माने जायँ ? अतः सामान्य स्वतन्त्र पदार्थं न होकर द्रव्योंके सदृश परिणमनरूप ही है । वैशेषिक तुल्य आकृति तुल्य गुणवाले सम परमाणुओंमें परस्पर भेद प्रत्यय करानेके निमित्त स्वतो विभिन्न विशेष पदार्थ की सत्ता मानते हैं । वे मुक्त आत्माओंमें मुक्त आत्माके मनों में विशेष प्रत्ययके निमित्त विशेष पदार्थ मानना आवश्यक समझते हैं । परन्तु प्रत्ययके आधारसे पदार्थ व्यवस्था माननेका सिद्धान्त ही गलत है । जितने प्रकारके प्रत्यय होते जायँ उतने स्वतन्त्र पदार्थ यदि माने जायें तो पदार्थोंकी कोई सीमा ही नहीं रहेगी । जिस प्रकार विशेष पदार्थ स्वतः परस्पर भिन्न हो सकते हैं उसी तरह परमाणु आदि भी स्वस्वरूपसे ही परस्पर भिन्न हो सकते हैं । इसके लिए किसी स्वतन्त्र 'विशेष' पदार्थकी कोई आवश्यकता नहीं है । व्यक्तियाँ स्वयं ही विशेष हैं। प्रमाणका कार्य है स्वतः सिद्ध पदार्थकी असंकर व्याख्या करना । बौद्ध सदृशपरिणमनरूप समानधर्म स्वीकार न करके सामान्यको अन्यापोह रूप मानते हैं । उनका अभिप्राय है कि - परस्पर भिन्न वस्तुओं को देखने के बाद जो बुद्धिमें अभेदभान होता है उस बुद्धिप्रतिबिम्बित अभेदको ही सामान्य कहते हैं । यह अभेद भी विध्यात्मक न होकर अतद्व्यावृत्तिरूप है । सभी पदार्थ किसीन-किसी कारण से उत्पन्न होते हैं तथा कोई-न-कोई कार्य उत्पन्न भी करते हैं । तो जिन पदार्थोंमें अतत्कारण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ११९ व्यावृत्ति और अतत्कार्यव्यावृत्ति पाई जाती है उनमें अनुगत व्यवहार कर दिया जाता है । जैसे जो व्यक्तियाँ मनुष्यरूप कारणसे उत्पन्न हुई हैं और आगे मनुष्यरूप कार्यं उत्पन्न करेंगी उनमें अमनुष्यकारण- कार्यव्यावृत्तिको निमित्त लेकर 'मनुष्य मनुष्य' ऐसा अनुगत व्यवहार कर दिया जाता है । कोई वास्तविक मनुष्यत्व विध्यात्मक नहीं है । जिस प्रकार चक्षु आलोक और रूप आदि परस्पर अत्यन्त भिन्न पदार्थ भी अरूपज्ञानजनन व्यावृत्ति के कारण 'रूपज्ञानजनक' व्यपदेशको प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार सर्वत्र अतद्व्यावृत्तिसे ही समानाकार प्रत्यय हो सकता है । ये शब्दका वाच्य इसी अपोहरूप सामान्यको ही स्वीकार करते हैं । विकल्पज्ञानका विषय भी यही अपोहरूप सामान्य है । अकलङ्कदेवने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि-सादृश्य माने बिना अमुक व्यक्तियों में ही अपोहका नियम कैसे बन सकता है ? यदि शाबलेय गौव्यक्ति बाहुलेय गौव्यक्ति से उतनी ही भिन्न है जितनी कि किसी अश्वादिव्यक्तिसे, तो क्या कारण है कि शाबलेय और बाहुलेयमें ही अतद्व्यावृत्ति मानी जाय, अश्वमें नहीं । यदि अश्वसे कुछ कम विलक्षणता है तो यह अर्थात् ही मानना होगा कि उनमें ऐसी समानता है जो अश्वके साथ नहीं है । अतः सादृश्य ही व्यवहारका सीधा नियामक सकता है । यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है कि वस्तु समान और असमान उभयविध धर्मोका आधार होती है । समानधर्मो के आधारसे अनुगत व्यवहार किया जाता है और असमान धर्मके आधारसे व्यावृत्त व्यवहार । अन्य नहीं, 'अतद्व्यावृत्ति' यही एक समान धर्म तत्तद्व्यक्तियों में स्वीकार करना होगा । बौद्ध जब स्वयं अपरापर क्षणों में सादृश्यके कारण एकत्वभान तथा सीपमें सादृश्यके ही कारण रजतभ्रम स्वीकार करते हैं तब अनुगत व्यवहारके लिए सादृश्यको स्वीकार करने में उन्हें क्या बाधा है ? अतद्व्यावृत्ति और बुद्धिगत अभेद प्रतिबिम्बका निर्वाह भी सादृश्यके बिना नहीं हो सकता । अतः सदृश परिणामरूप ही सामान्य मानना चाहिए। शब्द और विकल्पज्ञान भी सामान्यविशेषात्मक वस्तुको ही विषय करते हैं, न केवल सामान्यात्मकको और न केवल विशेषात्मकको ही । सामान्यतया कल्पनाओं का लक्ष्य द्विमुखी होता है - एक तो अभेदकी ओर दूसरा भेदकी ओर । जगत्में अभेदकी ओर चरम कल्पना वेदान्त दर्शनने की है । वह इतना अभेदकी ओर बढ़ा कि वास्तविक स्थितिको लाँघकर कल्पनालोकमें ही जा पहुँचा । चेतन-अचेतनका स्थूल भेद भी मायारूप बन गया । एक ही तत्त्वका प्रतिभास चेतन और अचेतन रूपमें माना गया। इस तरह देश काल और स्वरूप, हर प्रकारसे चरम अभेदकी कोटि वेदान्त दर्शन है । बौद्धदर्शन प्रत्येक चित्-अचित् स्वलक्षणोंकी वास्तव स्वतन्त्र सत्ता मानकर ही चुप नहीं रहता । वह उनमें कालिक भेद भो क्षणपर्याय तक स्वीकार करता है । यहाँ तक तो उसका पारमार्थिक भेद है । जो प्रथमक्षण में है वह द्वितीयमें नहीं, जो जहाँ जिस समय जैसे है वह वहीं उसी समय वैसे ही है, द्वितीयक्षणमें नहीं । दो देशों में रहनेवाली दो क्षणोंमें रहनेवाली कोई वस्तु नहीं है । इस तरह देश काल और स्वरूपकी दृष्टिसे अन्तिम भेद बौद्धदर्शनका लक्ष्य है । पर अभेदकी तरफ वेदान्त दर्शन और भेदकी ओर बौद्धदर्शन वास्तववादसे काल्पनिकता या अवास्तववादकी ओर पहुँच जाते हैं । बौद्धदर्शनमें विज्ञानवादी, विभ्रमवादी, शून्यवादी सभी काल्पनिक भेदके उपासक हैं। उनने बाह्यजगत्‌का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया । किसीने उसे सांवृत कहा तो किसीने उसे अविद्यानिर्मित कहा, तो किसीने उसे प्रत्ययमात्र । जैनदर्शनने भेद और अभेदका अन्तिम विचार तो किया, पर वास्तवसीमाको लाँघा नहीं है । उसने दो प्रकारके अभेदप्रयोजक सामान्य धर्म माने तथा दो प्रकारके विशेष, जो भेद- कल्पनाके विषय होते हैं । दो विभिन्नसत्ताक द्रव्योंमें अभेद-व्यवहार सादृश्यसे ही हो सकता है, एकत्वसे नहीं । इसलिए परम संग्रहनय यद्यपि वेदान्तकी परसत्ताको विषय करता है और कह देता है कि 'सद्रूपेण चेतनाचेतनानां भेदाभावात् अर्थात सद्रूपसे चेतन और अचेतनमें कोई भेद नहीं है' पर वह व्यवहारनयके विषयभूत वास्तव भेदका लोप नहीं Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ करता। वह स्पष्ट घोषणा करता है कि चेतन और अचेतनमें सत्-सादृश्य रूपसे अनुगतव्यवहार हो सकता है, पर कोई ऐसा एक सत् नहीं जो दोनोंमें वास्तव अनुगत सत्ता रखता हो, सिवाय इसके कि दोनोंमें 'सत् सत्' ऐसा समान प्रत्यय होता है और 'सत् सत्' ऐसा शब्द-प्रयोग होता है। एक द्रव्यकी कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें जो अनुगतव्यवहार होता है वह परमार्थसत् एकद्रव्यमलक है। यद्यपि द्वितीयक्षणमें अविभक्तद्रव्य अखण्डका अखण्ड बदलता है-परिवर्तित होता है पर उस सत्का, जो कि परिवर्तित हुआ है अस्तित्व दुनियासे नष्ट नहीं किया जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता । जो वर्तमानक्षणमें अमुक दशामे है वही अखण्डका अखण्ड पूर्वक्षणमें अतीतदशामें था, वही बदलकर आगेके क्षणमें तीसरा रूप लेगा, पर अपने स्वरूपसत्त्वको नहीं छोड़ सकता, सर्वथा महाविनाशके गर्तमें प्रलीन नहीं हो सकता। इसका यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि उसमें कोई शाश्वत कूटस्थ अंश है, किन्तु बदलनेपर भी उसका सन्तानप्रवाह चाल रहता है, कभी भी उच्छिन्न नहीं होता और न दूसरेमें विलीन होता है। अतः एक द्रव्यकी अपनी पर्यायोंमें होनेवाला अनुगत व्यवहार ऊध्र्वतासामान्य या द्रव्यमलक है । यह अपनेमें वस्तुसत् है। पूर्व पर्यायका अखण्ड निचोड़ उत्तरपर्याय है और उत्तरपर्याय अपने निचोड़भूत आगेकी पर्यायको जन्म देती है। इस तरह जैसे अतीत और वर्तमानका उपादानोपादेय सम्बन्ध है उसी तरह वर्तमान और भविष्यका भी। परन्तु सत्ता वर्तमान क्षणमात्रकी है। पर यह वर्तमान परम्परासे अनन्त अतीतोंका उत्तराधिकारी है और परम्परासे अनन्त भविष्यका उपादान भी बनेगा । इसी दृष्टिसे द्रव्यको कालत्रयवर्ती कहते हैं । शब्द इतने लचर होते हैं कि वस्तुके शतप्रतिशत स्वरूपको अभ्रान्त रूपसे उपस्थित करने में सर्वत्र समर्थ नहीं होते । यदि वर्तमानका अतीतसे बिलकुल सम्बन्ध न हो तभी निरन्वय क्षणिकत्वका प्रसङ्ग हो सकता है, परन्तु जब वर्तमान अतीतका ही परिवर्तित रूप है तब वह एक दृष्टिसे सान्वय ही हुआ। वह केवल पंक्ति और सेनाकी तरह व्यवहारार्थ किया जातेवाला संकेत नहीं है किन्तु कार्यकारणभूत और खासकर उपादानोपादेयमूलक तत्त्व है। वर्तमान जलबिन्दु एक ऑक्सिजन और एक हाइड्रोजनके परमाणुओंका परिवर्तनमात्र है, अर्थात् ऑक्सिजनको निमित्त पाकर हाइड्रोजन परमाणु और हाइड्रोजनको निमित्त पाकर ऑक्सिजन परमाण दोनोंने ही जल पर्याय प्राप्त कर ली है । इस द्विपरमाणुक जलबिन्दुके प्रत्येक जलाणका विश्लेषण कीजिए तो ज्ञात होगा कि जो एटम ऑक्सिजन अवस्थाको धारण किए था वह समचा बदलकर जल बन गया है। उसका और पूर्व ऑक्सिजनका यही सम्बन्ध है कि यह उसका परिणाम है। वह जिस समय जल नहीं बनता और ऑक्सिनका ऑक्सिजन ही रहता है उस समय भी प्रतिक्षण परिवर्तन सजातीय रूप होता ही रहता है। यही विश्वके समस्त चेतन और अचेतन द्रव्योंकी स्थिति है। इस तरह एक धाराकी पर्यायोंमें अनुगत व्यवहारका कारण सादृश्यसामान्य न होकर ऊर्ध्वतासामान्य ध्रौव्य सन्तान या द्रव्य होना है। इसी तरह विभिन्न द्रव्योंमें भेदका प्रयोजक व्यतिरेक विशेष होता है जो तव्यक्तित्व रूप है। एक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें भेद व्यवहार कराने वाला पर्याय नामक विशेष है। जैनदर्शनने उन सभी कल्पनाओंके ग्राहक नय तो बताए हैं जो वस्तुसीमाको लाँधकर अधारतवादकी ओर जाती है । पर साथ ही स्पष्ट कह दिया है कि ये सब वक्ताके अभिप्राय है, उसके संकल्पके प्रकार हैं, वस्तुस्थितिके ग्राहक नहीं हैं । गुण और धर्म-वस्तुमें गुण भी होते है और धर्म भी। गुण स्वभावभूत हैं और इनकी प्रतीति परनिरपेक्ष होती है । धर्मोकी प्रतीति परसापेक्ष होती है और व्यवहारार्थ इनकी अभिव्यक्ति वस्तुकी योग्यताके अनुसार होती रहती है। धर्म अनन्त होते हैं। गुण गिने हुए है। यथा-जीवके असाधारण गुण-ज्ञान, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १२१ दर्शन, सुख, वीर्य आदि हैं । साधारण गुण वस्तुत्व प्रमेयत्व सत्त्व आदि । पुद्गलके रूप रस गन्ध स्पर्श आदि असाधारण गुण हैं । धर्मद्रव्यका गतिहेतुत्व, अधर्मद्रव्यका स्थितिहेतुत्व, आकाशका अवगाहननिमित्तत्व और कालका वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण हैं । साधारण गुण वस्तुत्व सत्त्व अभिधेयत्व प्रमेयत्व आदि । जीवमें ज्ञानादि सत्ता और प्रतीति निरपेक्ष है, स्वाभाविक है । पर छोटा बड़ा, पितृत्व, पुत्रत्व, गुरुत्व, शिष्यत्व आदि धर्म सापेक्ष हैं । यद्यपि इनकी योग्यता जीव में है, पर ज्ञानादिके समान ये स्वरसतः गुण नहीं हैं । इसी तरह पुद्गलमें रूप रस गन्ध और स्पर्श ये तो स्वाभाविक परनिरपेक्ष गुण हैं परन्तु छोटा बड़ा, एक दो तीन आदि संख्या, संकेतके अनुसार होनेवाली वाच्यता आदि ऐसे धर्म हैं जिनकी अभिव्यक्ति व्यवहारार्थं होती है | गुण परनिरपेक्ष स्वतः प्रतीत होते हैं तथा धर्म परापेक्ष होकर । वस्तु में योग्यता दोनोंकी है। सामान्यविवक्षासे सभी वस्तुके स्वभाव माने जाते हैं । सप्तभङ्गीमें धर्मोकी कल्पना वक्ताके प्रश्नोंके अनुसार की जाती है । एक धर्मको केन्द्र में माननेपर उसका प्रतिपक्षी धर्म आ जाता है । फिर दोनों रूपको एकसाथ शब्दसे कहने का प्रयत्न सम्भव नहीं है, अतः वस्तुका निजरूप अवक्तव्य उपस्थित हो जाता है । इस तरह सत् असत् और अवक्तव्य इन तीन धर्मोको लेकर अधिकसे अधिक सात ही प्रश्न हो सकते हैं । अतः सप्तभङ्गीका निरूपण अधिक-से-अधिक सात प्रश्नोंकी सम्भावनाका उत्तर है । प्रश्न मात हो सकते हैं इसका कारण सात प्रकार की जिज्ञासाका होना है । जिज्ञासाका सात प्रकारका होना सात प्रकारके संशयोंके अधीन है । तथा संशय सात इसलिए होते हैं कि वस्तुके धर्म ही सात प्रकारके हैं । ६. विशदज्ञान प्रत्यक्ष — इस तरह ज्ञान द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्यविशेषात्मक अर्थको विषय करता है । केवल सामान्यात्मक या विशेषात्मक कोई पदार्थ नहीं है और न केवल द्रव्यात्मक या पर्यायात्मक ही । इसीलिए अकलङ्कदेवने प्रत्यक्षका लक्षण करते समय वार्तिकमें द्रव्य पर्याय सामान्य और विशेष ये चार विशेषण अर्थके दिए हैं। इनकी सार्थकता उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट हो जाती है । ज्ञानके लिए उनने लिखा है कि उसे साकार और स्वसंवेदी होना चाहिए । यहाँ तक साकार स्वसंवेदी और द्रव्यपर्याय - सामान्यविशेपार्थवेदी ज्ञानका निरूपण हुआ । ऐसा ज्ञान जब 'अंजसा स्पष्ट' अर्थात् परमार्थतः विशद हो तब उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। साधारणतया दर्शनान्तरोंमें तथा लोकव्यवहारमें इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष माना गया है । तथा इन्द्रियके परे रहनेवाले पदार्थका बोध परोक्ष कहा जाता है। पर जैनदर्शनका प्रत्यक्ष और परोक्षका अपना स्वोपज्ञ विचार है । वह इन्द्रिय आदि पर पदार्थोंकी अपेक्षा रखनेवाले ज्ञानको परोक्ष अर्थात् परतन्त्र ज्ञान मानता है, तथा इन्द्रियादि-निरपेक्ष आत्ममात्रोत्थ ज्ञानको प्रत्यक्ष | यह प्रत्यक्षका कारणमूलक विवेचन है । पर स्वरूपमें जो ज्ञान विशद हो वह प्रत्यक्ष कहलाता है । यह विशदता व्यवहारमें अंशतः इन्द्रियजन्य ज्ञानमें भी पाई जाती है, अतः इन्द्रियजन्य ज्ञानको संव्यवहार प्रत्यक्ष कहते हैं । यद्यपि आगमों में इन्द्रियजन्य मतिको परोक्ष कहा है और वह आगमिक परिभाषामें उचित भी है पर लोकव्यवहारके निर्वाहार्थं वैशद्यांशका सद्भाव होनेसे उसे संव्यवहार प्रत्यक्ष भी कहा गया है। वैशद्यका लक्षण अकलङ्कदेवने स्वयं लघीयस्त्रय ( कारिका नं ० ४ ) में यह किया है "अनुमानाद्यतिरेकेण विशेष प्रतिभासनम् । तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमतः परम् ॥” अर्थात् अनुमान आदिकसे अधिक, नियत देश काल और आकार रूपसे प्रचुरतर विशेषोंके प्रतिभासनको वैशद्य कहते हैं । दूसरे शब्दों में जिस ज्ञानमें अन्य किसी ज्ञानकी सहायता अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है । जिस तरह अनुमान आदि ज्ञान अपनी उत्पत्ति में लिंगज्ञान आदि ज्ञानान्तरकी अपेक्षा ४–१६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ करते हैं उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्तिमें किसी अन्य ज्ञानकी आवश्यकता नहीं रखता। यही अनुमानादिसे प्रत्यक्षमें अतिरेक-अधिकता है । यद्यपि आगमिक दृष्टिसे इन्द्रिय आलोक या ज्ञानान्तर किसी भी कारणकी अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान परोक्ष है और आत्ममात्रसापेक्ष ही ज्ञान प्रत्यक्ष, पर दार्शनिक क्षेत्रमें अकलंकदेवके सामने प्रमाणविभागकी समस्या थी जिसे उन्होंने बड़ी व्यवस्थित रीतिसे सुलझाया है । तत्त्वार्थसूत्रमें मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानोंको परोक्ष कहा है और वही मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोधको अनर्थान्तर बताया है । अनर्थान्तर कहनेका तात्पर्य इतना ही है कि ये सब मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होते हैं । मतिमें इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले अवग्रह ईहा अवाय और धारणा ज्ञान सम्मिलित हैं । अकलंकदेवने मतिको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर लोकप्रसिद्ध इन्द्रियज्ञानकी प्रत्यक्षताका निर्वाह किया और स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और श्रुति इन सबको परोक्ष प्रमाण रूपसे परिगणित किया। आगममें मति और श्रुत परोक्ष थे ही । स्मृति आदि मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान थे ही, इसलिए इनका परोक्षत्व भी सिद्ध था । मात्र इन्द्रिय और मनोजन्य मतिको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बना देनेसे समस्त प्रमाणव्यवस्था जम गई और लोक प्रसिद्धिका निर्वाह भी हो गया । यद्यपि अकलंकदेवने लघीयस्त्रयमें स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानको भी मनोमति कहा है और सम्भवतः वे इन्हें भी प्रादेशिक प्रत्यक्षकोटिमें लाना चाहते थे, पर यह प्रयास आगेके आचार्योंके द्वारा समर्थित नहीं हुआ। इस तरह अकलंकदेवने विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहकर श्री सिद्धसेन दिवाकरके 'अपरोक्ष ग्राहक प्रत्यक्ष' इस प्रत्यक्ष-लक्षणकी कमोको दूर कर दिया। उत्तरकालीन समस्त जैनाचार्योंने अकलंकोपज्ञ इस लक्षण और प्रमाणव्यवस्थाको स्वीकार किया है। यद्यपि बौद्ध भी विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं फिर भी प्रत्यक्षके लक्षणमें अकलंकदेवके द्वारा विशद पदके साथ ही प्रयुक्त 'साकार' और 'अंजसा' पद खास महत्त्व रखते हैं। बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। यह निर्विकल्पक ज्ञान जैनदार्शनिक परम्परामें प्रसिद्ध विषयविषयीसन्निपातके बाद होने वाले सामान्यावभासी अनाकार दर्शनके समान है । अकलंकदेवकी दृष्टिमें जब निर्विकल्पक दर्शन प्रमाणकोटिसे ही बहिभत है तब उसे प्रत्यक्ष तो कहा ही नहीं जा सकता था। इसी बातकी सूचनाके लिए उन्होंने प्रत्यक्ष के लक्षणमें साकार पद दिया है, जो निराकार दर्शन तथा बौद्धसम्मत निर्विकल्पक-प्रत्यक्षका निराकरण कर निश्चयात्मक विशदज्ञानको ही प्रत्यक्ष कोटिमें रखता है। बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्षके बाद होनेवाले 'नीलमिदम' इत्यादि प्रत्यक्षज विकल्पोंको भी संव्यवहारसे प्रमाण मान लेते हैं । इसका कारण यह है कि प्रत्यक्षकेविषयभूत दृश्य स्वलक्षणमें विकल्पके विषयभूत विकल्प सामान्यका एकत्वाध्यवसाय करके प्रवृत्ति करनेपर स्वलक्षण ही प्राप्त होता है, अतः विकल्प ज्ञान भी संव्यवहारसे प्रमाण बन जाता है। इन विकल्पमें निर्विकल्पककी ही विशदता आती है। इसका कारण है निर्विकल्पक और सविकल्पकका अतिशीघ्र उत्पन्न होना या एक साथ होना । तात्पर्य यह कि बौद्धके मतसे सविकल्पकमें न तो अपना वैशद्य है और न प्रमाणत्व । इसका निरास करने के लिए अकलंकदेवने अंजसा विशेषण दिया है और सूचित किया है कि विकल्पज्ञान अंजसा विशद है, संव्यवहारसे नहीं। परपरिकल्पित प्रत्यक्ष लक्षण निरास बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञानको प्रत्यक्ष मानते हैं । कल्पनापोढ और अभ्रान्तज्ञान उन्हें प्रत्यक्ष इष्ट है। शब्दसंसष्ट 'ज्ञान 'विकल्प' कहलाता है। निर्विकल्पक शब्दसंसर्गसे शन्य होता है । निर्विकल्पक परमार्थसत् स्वलक्षण अर्थसे उत्पन्न होता है । इसके चार भेद होते हैं-इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्वसंवेदनप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १२३ निर्विकल्पक स्वयं व्यवहारमाधक नहीं होता, व्यवहार निर्विकल्पकजन्य सविकल्पकसे होता है। सविकल्पक ज्ञान निर्मल नहीं होता । विकल्प ज्ञानकी विशदता विकल्पमें झलकती है। ज्ञात होता है कि वेदकी प्रमाकताका खण्डन करनेके विचारसे बौद्धोंने शब्दका अर्थ के साथ वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं माना और यावत् शब्दसंसर्गी ज्ञानोंको, जिनका समर्थन निर्विकल्पकसे नहीं होता, अप्रमाण घोषित कर दिया है। इनने उन्हीं ज्ञानोंको प्रमाण माना जो साक्षात् या परम्परासे अर्थसामर्थ्यजन्य हैं । निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा यद्यपि अर्थमें रहनेवाले क्षणिकत्व आदि सभी धर्मोंका अनुभव हो जाता है, पर उनका निश्चय यथासंभव विकल्पकज्ञान और अनुमानसे ही होता है। नील निर्विकल्पक नीलांशका 'नीलमिदम्' इस विकल्पज्ञान द्वारा निश्चय करता है और व्यवहारसाधक होता है तथा क्षणिकांशका 'सर्वं क्षणिक सत्त्वात्' इस अनुमानके द्वारा । चूंकि निर्विकल्पक 'नीलमिदम्' आदि विकल्पोंका उत्पादक है और अर्थस्वलक्षणसे उत्पन्न हुआ है अतः प्रमाण है। विकल्पज्ञान अस्पष्ट है, क्योंकि वह परमार्थसत् स्वलक्षणसे उत्पन्न नहीं हुआ है । सर्वप्रथम अर्थसे निर्विकल्पक ही उत्पन्न होता है। उस निर्विकल्पावस्थामें किसी विकल्पका अनुभव नहीं होता। विकल्प कल्पितसामान्यको विषय करनेके कारण तथा निर्विकल्पकके द्वारा गृहोत अर्थको ग्रहण करनेके कारण प्रत्यक्षाभास है। अकलंङ्गदेव इसकी आलोचना इस प्रकार करते हैं-अर्थक्रियार्थी पुरुष प्रमाणका अन्वेषण करते हैं । जब व्यवहारमें साक्षात् अर्थक्रियासाधकता सविकल्पकमें ही है तब क्यों न उसे ही प्रमाण माना जाय ? निर्विकल्पकमें प्रमाणता लानेको आखिर आपको सविकल्पक ज्ञान तो मानना ही पड़ता है। यदि निविकल्पके द्वारा गहीत नीलाद्यंशको विषय करनेसे विकल्पज्ञान अप्रमाण है; तब तो अनुमान भी प्रत्यक्षके द्वारा गृहीत क्षणिकत्वादिको विषय करनेके कारण प्रमाण नहीं हो सकेगा। निर्विकल्पसे जिस प्रकार नीलाद्यशोंमें 'नीलमिदम' इत्यादि विकल्प उत्पन्न होते है, उसी प्रकार क्षणिकत्वादि अंशोंमें भी 'क्षणिकमिदम' इत्यादि विकल्पज्ञान उत्पन्न होना चाहिये। अतः व्यवहारसाधक सविकल्पज्ञान ही प्रत्यक्ष कहा जाने योग्य है। विकल्पज्ञान ही विशदरूपसे प्रत्येक प्राणीके अनुभवमें आता है, जब कि निर्विकल्पज्ञान अनुभवसिद्ध नहीं है। प्रत्यक्षसे तो स्थिर स्थूल अर्थ ही अनुभवमें आते हैं, अतः क्षणिक परमाणुका प्रतिभास कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है। निर्विकल्पकको स्पष्ट होनेसे तथा सविकल्पकको अस्पष्ट होनेसे विषयभेद भी मानना ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही वृक्ष दूरवर्ती पुरुषको अस्पष्ट तथा समीपवर्तीको स्पष्ट दीखता है। आद्य-प्रत्यक्षकालमें भी कल्पनाएँ बराबर उत्पन्न तथा विनष्ट तो होती ही रहती हैं, भले ही वे अनुपलक्षित रहें। निर्विकल्पसे सविकल्पकी उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यदि अशब्द निर्विकल्पकसे सशब्द विकल्पज्ञान उत्पन्न हो सकता है तो शब्दशन्य अर्थसे ही विकल्पककी उत्पत्ति मानने में क्या बाधा है ? अतः मति, स्मति, संज्ञा, चिन्तादि यावद्विकल्पज्ञान संवादी होनेसे प्रमाण है । जहाँ ये विसंवादी हों वहीं इन्हें अप्रमाण कह सकते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें अर्थक्रियास्थिति अर्थात अर्थक्रियासाधकत्व रूप अविसंवादका लक्षण भी नहीं पाया जाता, अतः उसे प्रमाण कैसे कह सकते हैं ? शब्दसंसृष्ट ज्ञानको विकल्प मानकर अप्रमाण कहनेसे शास्त्रोपदेशसे क्षणिकत्वादिकी सिद्धि नहीं हो सकेगी। मानस प्रत्यक्ष निरास-बौद्ध इन्द्रियज्ञानके अनन्तर उत्पन्न होनेवाले विशदज्ञानको, जो कि उसी इन्द्रियज्ञानके द्वारा ग्राह्य अर्थके अनन्तरभावी द्वितीयक्षणको जानता है, मानस प्रत्यक्ष कहते हैं। अकलंकदेव कहते है कि-एक ही निश्चयात्मक अर्थसाक्षात्कारी ज्ञान अनुभवमें आता है। आपके द्वारा बताये गये मानस प्रत्यक्षका तो प्रतिभास ही नहीं होता। 'नीलमिदम्' यह विकल्प ज्ञान भी मानस प्रत्यक्षका असाधक है क्योंकि ऐसा विकल्प ज्ञान तो इन्द्रिय प्रत्यक्षसे ही उत्पन्न हो सकता है, इसके लिये मानस प्रत्यक्ष माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। बड़ी और गरम जलेबी खाते समय जितनी इन्द्रियबुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं उतने Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ ही तदनन्तरभावी अर्थको विषय करनेवाले मानस प्रत्यक्ष मानना होंगे; क्योंकि बादमें उतने ही प्रकारके विकल्पज्ञान उत्पन्न होते हैं । इस तरह अनेक मानस प्रत्यक्ष माननेपर सन्तानभेद हो जाने के कारण 'जो मैं खाने वाला हूँ वही मैं सूंघ रहा हूँ' यह प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा । यदि समस्त रूपादिको विषय करनेवाला एक ही मानस प्रत्यक्ष माना जाय; तब तो उसीसे रूपादिका परिज्ञान भी हो हो जायगा, फिर इन्द्रियबुद्धियाँ किसलिये स्वीकार की जायें ? धर्मोत्तरने मानस प्रत्यक्षको 'आगमप्रसिद्ध' कहा है । अकलंकदेवने उसकी भी आलोचना की है कि जब वह मात्र आगमप्रसिद्ध ही है, तब उसके लक्षणका परीक्षण ही निरर्थक है । स्वसंवेदन प्रत्यक्ष खण्डन - यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है तो निद्रा तथा मूच्र्छादि अवस्थाओं में ऐसे निर्विकल्पक प्रत्यक्षको माननेमें क्या बाधा है ? सुषुप्त आदि अवस्थाओं में अनुभवसिद्ध ज्ञानका निषेध तो किया ही नहीं जा सकता। यदि उक्त अवस्थाओं में ज्ञानका अभाव हो तो उस समय योगियोंको चतुः सत्यविषयक भावनाओंका भी विच्छेद मानना पड़ेगा । बौद्ध सम्मत विकल्पके लक्षणका निरास - बौद्ध 'अभिलापवती प्रतीतिः कल्पना' अर्थात् जो ज्ञान शब्दसंसर्ग के योग्य हो उस ज्ञानको कल्पना या विकल्प ज्ञान कहते हैं । अकलङ्कदेवने उनके इस लक्षणका खण्डन करते हुए लिखा है कि यदि शब्दके द्वारा कहे जाने लायक ज्ञानका नाम कल्पना है तथा बिना शब्दसंश्रयके कोई भी विकल्पज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता; तब शब्द तथा शब्दांशोंके स्मरणात्मक विकल्पके लिये तद्वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग मानना होगा, उन अन्य शब्दोंके स्मरणके लिए भी तद्वाचक अन्य शब्द स्वीकार करना होंगे, इस तरह दूसरे दूसरे शब्दोंकी कल्पना करनेसे अनवस्था नामका दूषण आता है । अतः जब विकल्पज्ञान ही सिद्ध नहीं हो पाता तत्र विकल्पज्ञानरूप साधकके अभाव में निर्विकल्पक भी असिद्ध ही रह जायगा और निर्विकल्पक तथा सविकल्पकरूप प्रमाणद्वयके अभाव में साधक प्रमाण न होनेसे सकल प्रमेयका भी अभाव ही प्राप्त होगा । यदि शब्द तथा शद्वांशोंका स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक शब्दप्रयोगके बिना हो होता है तो विकल्पका अभिलाषवत्त्व लक्षण अव्याप्त हो जायगा और जिस तरह शब्द तथा शब्दांशों का स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक अन्य शब्दके प्रयोगके बिना ही हो जाता है उसी तरह 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प भी शब्दप्रयोगकी योग्यता के बिना ही हो जायेंगे, तथा चक्षुरादिबुद्धियाँ शब्द प्रयोग के बिना ही नीलपीतादि पदार्थों का निश्चय करनेके कारण स्वतः व्यवसायात्मक सिद्ध हो जायँगी । अतः विकल्पका अभिलापवत्त्व लक्षण दूषित है । विकल्पका निर्दोष लक्षण है - समारोपविरोधी ग्रहण या निश्चयात्मकत्व । सांख्य श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । अकलङ्कदेव कहते हैं कि-श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ तो तैमिरिक रोगीको होनेवाले द्विचन्द्रज्ञान तथा अन्य संशयादिज्ञानोंमें भी प्रयोजक होती हैं, पर वे सभी ज्ञान प्रमाण तो नहीं हैं । न्यायिक इन्द्रियों और अर्थ के सन्निकर्षको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । इसे भी अकलंकदेवने सर्वज्ञके ज्ञानमें अव्याप्त बताते हुये लिखा है कि- त्रिकाल - त्रिलोकवर्ती यावत् पदार्थोंको विषय करनेवाला सर्वज्ञका ज्ञान प्रतिनियत शक्तिवाली इन्द्रियोंसे तो उत्पन्न नहीं हो सकता, पर प्रत्यक्ष तो अवश्य है । अतः सन्निकर्ष अव्याप्त है । चक्षुके द्वारा रूपका प्रत्यक्ष सन्निकर्षके बिना ही हो जाता है । चाक्षुष प्रत्यक्ष में सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं है । काँच आदिसे व्यवहित पदार्थका ज्ञान सन्निकर्षकी अनावश्यकता सिद्ध कर है। प्रत्यक्ष के भेद - अकलंकदेवने प्रत्यक्षके तीन भेद किये हैं- १ - इन्द्रिय प्रत्यक्ष २ - अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 / विशिष्ट निबन्ध : 125 ३-अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष / चक्षु आदि इन्द्रियोंसे रूपादिकका स्पष्ट ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। मनके द्वारा सुख आदिकी अनुभूति मानस प्रत्यक्ष है / अकलंकदेवने लघीयस्त्रयस्ववृत्ति में स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोधको अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है। इसका अभिप्राय इतना ही है कि-मति स्मति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध ये सब मतिज्ञान हैं, मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे इनकी उत्पत्ति होती है। मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है। इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको जब संव्यवहारमें प्रत्यक्ष रूपसे प्रसिद्धि होनेके कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष मान लिया, तब उसी तरह मनोमति रूप स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानको भी प्रत्यक्ष ही कहना चाहिये / परन्तु संव्यवहार इन्द्रियजन्य मतिको तो प्रत्यक्ष मानता है, पर स्मरण आदिको नहीं। अतः अकलङ्ककी स्मरण आदिको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष माननेकी व्याख्या उन्हीं तक सीमित रही। वे शब्दयोजनाके पहिले स्मरण आदिको मतिज्ञान और शब्दयोजनाके बाद इन्हींको श्रुतज्ञान भी कहते हैं। पर उत्तरकालमें असंकीर्ण प्रमाण विभागके लिए-इन्द्रिय और मनोमति सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति आदि परोक्ष, श्रत परोक्ष और अवधि मनःपर्यय तथा केवलज्ञान ये तीन ज्ञान परमार्थप्रत्यक्ष' यही व्यवस्था सर्वस्वीकृत हुई। परमार्थप्रत्यक्ष आत्ममात्रसे उत्पन्न होता है। अवधि और मनःपर्ययज्ञान सीमित विषयवाले हैं तथा केवलज्ञान सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्ट आदि समस्त पदार्थोंको जानता है। परमार्थप्रत्यक्ष की सिद्धिके लिए अकलंकदेवका निम्नलिखित युक्तिवाद अन्तिम है "ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते / अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थानवलोकते॥"-न्यायवि० श्लो० 465-66 / अर्थात-ज्ञस्वभाव आत्माके ज्ञानावरण कर्मके सर्वथा नष्ट हो जानेपर कोई ज्ञेय शेष नहीं रह जाता जो उस ज्ञानका विषय न हो सके / चूँकि ज्ञान स्वभावतः अप्राप्यकारी है अतः उसे पदार्थके पास या पदार्थोंको ज्ञानके पास आनेकी भी आवश्यकता नहीं है / अतः ऐसे निरावरण अप्राप्यकारी पूर्णज्ञानसे समस्त पदार्थोंका बोध होना ही चाहिए। सबसे बड़ी बाधा ज्ञानावरणकी थी, सो जब वह समल नष्ट हो गया तो निरावरण ज्ञान स्वज्ञेयको जानेगा ही। ___ इस तरह इस प्रत्यक्ष प्रस्तावमें प्रत्यक्ष का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। भट्टाकलंकदेव न्यायविनिश्चय मूलग्रन्थके प्रणेता जैनन्यायवाङ्मयके अमर प्रतिष्ठापक, उद्भटवादी, जैनशासनके चिरस्मरणीय प्रभावक, अनेकान्तवादके उपस्तोता आचार्यवर भट्टाकलंकदेव हैं। जिनके पुण्यगणोंका स्मरण, जिनके त्यागको पूतगाथा आज भी जीवनमें प्रेरणा और स्फूर्ति देती है। जो न केवल जैन सम्प्रदायके ही अमररत्न थे, किन्तु भारतमाताका मुकूट जिन इनेगिने नररत्नोंसे आलोकित है उनमें अग्रणी थे। वे भारतीके भालकी शोभा थे। शास्त्रार्थों में जिन्हें दैवीबल भी परास्त नहीं कर सकता था उन शब्दअर्थके धनी, पर अकिञ्चन अकलंकब्रह्म के मुख्य ग्रन्थ न्यायविनिश्चयका तदनुरूप व्याख्याकार वादिराजसरिके विवरणके साथ प्रथमबार प्रकाशन किया जाता है। ग्रन्थके प्रत्यक्ष प्रस्तावका संक्षिप्त पहिले लिखा जा चुका है। ग्रन्थकारोंके विषयमें, खासकर उनके समय आदिका, ज्ञात परिचय कराना अवसरप्राप्त है। अकलंकदेवके समय आदिके विषयमें 'अकलंकग्रन्थत्रय और उसके कर्ता' लेखमें विस्तारसे प्रकाश डाला गया है। यह लेख इसी स्मृति ग्रंथके खण्ड 4 में प्रकाशित है उसमें ग्रन्थोंके आन्तर परीक्षणके Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ आधारसे इनका समय सन् 720 से 780 तक निश्चित किया है। धर्मकीर्ति तथा उनके शिष्यपरिवारके समयकी अवधिके जो दशक निश्चित किए गए हैं, श्री राहुल सांकृत्यायनकी सूचनानुसार उनमें संशोधनकी गंजाइश है। निशोथर्णिमें दर्शनप्रभावक ग्रन्थोंमें जो सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख पाया जाता है, वह सिद्धिविनिश्चय निश्चयतः अकलंककृत ही है और निशीथचूणिके कर्ता वे ही जिनदासगणि महत्तर हैं जिनने शकसं० 598 अर्थात सन् 676 में नन्दीचूर्णिकी रचना की थी। ऐसी दशामें सन् 676 के आसपास रची गई निशीथचूणिमें अकलंकके सिद्धि विनिश्चयका उल्लेख एक ऐसा मूल प्रमाण बन सकता है जिसके आधारसे न केवल अकलंकका ही समय निश्चित किया जा सकता है, अपितु इस युगके अनेक बौद्धाचार्य और वैदिक आचार्योंके समयपर भी मौलिक प्रकाश डाला जा सकता है। वादिराजसरिका समय सुनिश्चित है। उनने अपना पार्श्वनाथचरित्र शक सं० 947 कार्तिक सुदी 3 को बनाया था। ये उस समय चौलुक्यचक्रवर्ती जयसिंहदेवकी राजधानीमें निवास करते थे। उनके इस समयकी पुष्टि अन्य ऐतिहासिक प्रमाणोंसे भी होती है। अतः सन् 1025 के आसपास ही इस ग्रन्थकी रचना हुई होगी। जैन समाजके सुप्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ पं० नाथूराम जी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थमें वादिराजसूरिपर साङ्गोपाङ्ग लिखा है जो दृष्टव्य है / इस तरह ग्रन्थ और ग्रंथकारके सम्बन्धमें कुछ खास ज्ञातव्य मुद्दों का निर्देश किया गया है।