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१२४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
ही तदनन्तरभावी अर्थको विषय करनेवाले मानस प्रत्यक्ष मानना होंगे; क्योंकि बादमें उतने ही प्रकारके विकल्पज्ञान उत्पन्न होते हैं । इस तरह अनेक मानस प्रत्यक्ष माननेपर सन्तानभेद हो जाने के कारण 'जो मैं खाने वाला हूँ वही मैं सूंघ रहा हूँ' यह प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा । यदि समस्त रूपादिको विषय करनेवाला एक ही मानस प्रत्यक्ष माना जाय; तब तो उसीसे रूपादिका परिज्ञान भी हो हो जायगा, फिर इन्द्रियबुद्धियाँ किसलिये स्वीकार की जायें ? धर्मोत्तरने मानस प्रत्यक्षको 'आगमप्रसिद्ध' कहा है । अकलंकदेवने उसकी भी आलोचना की है कि जब वह मात्र आगमप्रसिद्ध ही है, तब उसके लक्षणका परीक्षण ही निरर्थक है ।
स्वसंवेदन प्रत्यक्ष खण्डन - यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है तो निद्रा तथा मूच्र्छादि अवस्थाओं में ऐसे निर्विकल्पक प्रत्यक्षको माननेमें क्या बाधा है ? सुषुप्त आदि अवस्थाओं में अनुभवसिद्ध ज्ञानका निषेध तो किया ही नहीं जा सकता। यदि उक्त अवस्थाओं में ज्ञानका अभाव हो तो उस समय योगियोंको चतुः सत्यविषयक भावनाओंका भी विच्छेद मानना पड़ेगा ।
बौद्ध सम्मत विकल्पके लक्षणका निरास - बौद्ध 'अभिलापवती प्रतीतिः कल्पना' अर्थात् जो ज्ञान शब्दसंसर्ग के योग्य हो उस ज्ञानको कल्पना या विकल्प ज्ञान कहते हैं । अकलङ्कदेवने उनके इस लक्षणका खण्डन करते हुए लिखा है कि यदि शब्दके द्वारा कहे जाने लायक ज्ञानका नाम कल्पना है तथा बिना शब्दसंश्रयके कोई भी विकल्पज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता; तब शब्द तथा शब्दांशोंके स्मरणात्मक विकल्पके लिये तद्वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग मानना होगा, उन अन्य शब्दोंके स्मरणके लिए भी तद्वाचक अन्य शब्द स्वीकार करना होंगे, इस तरह दूसरे दूसरे शब्दोंकी कल्पना करनेसे अनवस्था नामका दूषण आता है । अतः जब विकल्पज्ञान ही सिद्ध नहीं हो पाता तत्र विकल्पज्ञानरूप साधकके अभाव में निर्विकल्पक भी असिद्ध ही रह जायगा और निर्विकल्पक तथा सविकल्पकरूप प्रमाणद्वयके अभाव में साधक प्रमाण न होनेसे सकल प्रमेयका भी अभाव ही प्राप्त होगा । यदि शब्द तथा शद्वांशोंका स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक शब्दप्रयोगके बिना हो होता है तो विकल्पका अभिलाषवत्त्व लक्षण अव्याप्त हो जायगा और जिस तरह शब्द तथा शब्दांशों का स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक अन्य शब्दके प्रयोगके बिना ही हो जाता है उसी तरह 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प भी शब्दप्रयोगकी योग्यता के बिना ही हो जायेंगे, तथा चक्षुरादिबुद्धियाँ शब्द प्रयोग के बिना ही नीलपीतादि पदार्थों का निश्चय करनेके कारण स्वतः व्यवसायात्मक सिद्ध हो जायँगी । अतः विकल्पका अभिलापवत्त्व लक्षण दूषित है । विकल्पका निर्दोष लक्षण है - समारोपविरोधी ग्रहण या निश्चयात्मकत्व ।
सांख्य श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं । अकलङ्कदेव कहते हैं कि-श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ तो तैमिरिक रोगीको होनेवाले द्विचन्द्रज्ञान तथा अन्य संशयादिज्ञानोंमें भी प्रयोजक होती हैं, पर वे सभी ज्ञान प्रमाण तो नहीं हैं ।
न्यायिक इन्द्रियों और अर्थ के सन्निकर्षको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । इसे भी अकलंकदेवने सर्वज्ञके ज्ञानमें अव्याप्त बताते हुये लिखा है कि- त्रिकाल - त्रिलोकवर्ती यावत् पदार्थोंको विषय करनेवाला सर्वज्ञका ज्ञान प्रतिनियत शक्तिवाली इन्द्रियोंसे तो उत्पन्न नहीं हो सकता, पर प्रत्यक्ष तो अवश्य है । अतः सन्निकर्ष अव्याप्त है । चक्षुके द्वारा रूपका प्रत्यक्ष सन्निकर्षके बिना ही हो जाता है । चाक्षुष प्रत्यक्ष में सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं है । काँच आदिसे व्यवहित पदार्थका ज्ञान सन्निकर्षकी अनावश्यकता सिद्ध कर
है।
प्रत्यक्ष के भेद - अकलंकदेवने प्रत्यक्षके तीन भेद किये हैं- १ - इन्द्रिय प्रत्यक्ष २ - अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष
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