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४ / विशिष्ट निबन्ध : ९३ संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और 'संजयके घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह देते हैं! किमाश्चर्यमतः परम् ?
श्री सम्पूर्णानन्दजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना ( पृ० ३ ) में अनेकान्तवादकी ग्राह्यता स्वीकार करके भी सप्तभंगी न्यायको बालकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमें जाना समझते हैं। पर सप्तभंगीको आजसे अढ़ाई हजार वर्ष पहिलेके वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी माँग कहे बिना नहीं रह सकते । अढ़ाई हजार वर्ष पहिले आबाल-गोपाल प्रत्येक प्रश्नको सहज तरीकेसे 'सत् असत् उभय और अनुभय' इन चार कोटियोंमें गूंथकर ही उपस्थित करते थे और उस समयके भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटिका ही, हाँ या ना में देते थे तब जैन तीर्थंकर महावीरने मल तीन भंगोंके गणितके नियमानुसार अधिक-से-अधिक सात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभंगी द्वारा किया जो निश्चितरूपसे वस्तुकी सीमाके भीतर ही रही है। अनेकान्तवादने जगतके वास्तविक अनेक सतका अपलाप नहीं किया और न वह केवल कल्पनाके क्षेत्रमें विचरा है।।
मेरा उन दार्शनिकोंसे निवेदन है कि भारतीय परम्परामें जो सत्यकी धारा है उसे 'दर्शनग्रन्थ' लिखते समय भी कायम रखें और समीक्षाका स्तम्भ तो बहुत सावधानी और उत्तरदायित्वके साथ लिखनेकी कृपा करें जिससे दर्शन केवल विवाद और भ्रान्त परम्पराओंका अजायबघर न बने । वह जीवनमें संवाद लावे और दर्शनप्रणेताओंको समुचित न्याय दे सके।
इस तरह जैनदर्शनने 'दर्शन' शब्दकी काल्पनिक भूमिकासे निकलकर वस्तु-सीमापर खड़े होकर जगत्में वस्तु-स्थितिके आधारसे संवाद समीकरण और यथार्थतत्वज्ञानकी दृष्टि दी। जिसकी उपासनासे विश्व अपने वास्तविक रूपको समझकर निरर्थक विवादसे बचकर सच्चा संवादी बन सकता है। अनेकान्तदर्शनका सांस्कृतिक आधार
भारतीय विचार परम्परामें स्पष्टतः दो धाराएँ है। एक धारा वेदको प्रमाण माननेवाले वैदिक दर्शनोंकी है और दूसरी वेदको प्रमाण न मानकर पुरुषानुभव या पुरुषासाक्षात्कारको प्रमाण माननेवाले श्रमण सन्तोंकी। यद्यपि चार्वाक दर्शन भी वेदको प्रमाण नहीं मानता, किन्तु उसने आत्माका अस्तित्व जन्मसे मरण पर्यन्त हो स्वीकार किया है। उसने परलोक, पुण्य, पाप और मोक्ष जैसे आत्मप्रतिष्ठित तत्त्वोंको तथा आत्मसंशोधक चारित्र आदि की उपयोगिताको स्वीकृत नहीं किया है। अतः अवैदिक होकर भी वह श्रमणधारामें सम्मिलित नहीं किया जा सकता। श्रमणधारा वैदिक परम्पराको न मानकर भी आत्मा, जड़भिन्न ज्ञान-सन्तान, पुण्य-पाप, परलोक, निर्वाण आदिमें विश्वास रखती है, अतः पाणिनिकी परिभाषाके अनुसार आस्तिक है। वेदको या ईश्वरको जगत्कर्ता न माननेके कारण श्रमणधाराको नास्तिक कहना उचित नहीं है । क्योंकि अपनी अमुक परम्पराको न माननेके कारण यदि श्रमण नास्तिक कहे जाते हैं तो श्रमण-परम्पराको न माननेके कारण वैदिक भी मिथ्यादृष्टि आदि विशेषणोंसे पुकारे गये हैं।
श्रमणधाराका सारा तत्त्वज्ञान या दर्शनविस्तार जीवन-शोधन या चारित्र्य-वृद्धिके लिए हुआ था। वैदिक परम्परामें तत्त्वज्ञानको मुक्तिका साधन माना है, जब कि श्रमणधारामें चारित्रको । वैदिक-परम्परा वैराग्य आदिसे ज्ञानको पुष्ट करती है, विचारशुद्धि करके मोक्ष मान लेती है; जबकि श्रमण परम्परा कहती
१. जैन कथाग्रन्थोंमें महावीरके बालजीवनकी एक घटनाका वर्णन आता है कि-'संजय और विजय नामके दो साधुओंका संशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, इसलिए इनका नाम सन्मति रखा गया था।' सम्भव है यह संजय-विजय संजयवेल ठिपुत्त ही हों और इसीके संशय या अनिश्चयका नाश महावीरके सप्तभंगी न्यायसे हआ हो और वेलपित्त विशेषण ही भ्रष्ट होकर विजय नामका दूसरा साधु बन गया हो ।
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