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९२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं
द्रव्यदृष्टिसे नित्यत्व, पर्यायदृष्टिसे अनित्यत्व आदि अनेकों विरोधी धर्मयुगल रहते हैं। एक वस्तुमें अनन्त सप्तभङ्ग बनते हैं । जब हम घटके अस्तित्वका विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सात भङ्ग हो सकते हैं। जैसे संजयके प्रश्नोत्तर या बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोत्तरमें हम चार कोटि तो निश्चित रूपसे देखते हैं-सत्, असत्, उभय और अनुभय । उमी तरह गणितके हिसाबसे तीन मूल भंगोंको मिलानेपर अधिकसे अधिक सात अपुनरुक्त भंग हो सकते हैं। जैसे घड़ेके अस्तित्वका विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तित्व धर्म, दूसरा तद्विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तुके पूर्ण रूपकी सूचना देता है कि वस्तु पूर्ण रूपसे वचनके अगोचर है। उसके विराट रूपको शब्द नहीं छू सकते । अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षासे है कि दोनों धर्मोको युगपत् कहनेवाला शब्द संसारमें नहीं है अतः वस्तु यथार्थतः वचनातीत है, अवक्तव्य है। इस तरह मूलमें तीन भङ्ग हैं१-स्यादस्ति घटः २-स्यान्नास्ति घटः
३-स्यादवक्तव्यो घटः अववतव्यके साथ स्यात् पद लगानेका भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्ण रूपमें यदि अवक्तव्य है तो क्रमशः अपने अपूर्ण रूप में वक्तव्य भी है और वह अस्ति-नास्ति आदि रूपसे वचनोंका विषय भी होती है । अतः वस्तु स्याद् वक्तव्य है । जब मूल भंग तोन हैं तब इनके द्विसंयोगी भंग भो तीन होंगे तथा त्रिसंयोगी भंग एक होगा । जिस तरह चतुष्कोटिमें सत् और असत्को मिलाकर प्रश्न होता है कि क्या सत् होकर भी वस्तु असत् है ?' उसी तरह ये भी प्रश्न हो सकते हैं कि-१ क्या सत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? २. क्या असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? ३ क्या सत्-असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान संयोगज चार भंगों में है। अर्थात्
४-अस्ति नास्ति उभय रूप वस्तु है-स्वचतुष्टय और परचतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर ।
५-अस्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपर चतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंको सामूहिक विवक्षा रहनेपर ।
६-नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें परचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपर चतुष्टयकी क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर ।
७-अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय, द्वितीय समयमें परचतुष्टय तथा तृतीय समयमें युगपत् स्व-पर चतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और तीनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर ।
ब अस्ति और नास्तिकी तरह अवक्तव्य भी वस्तुका धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलाकर चौथा भंग बन जाता है वैसे ही अवक्तव्यके साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्ति-नास्ति मिलकर पांचवें, छठवें और सातवें भंगकी सृष्टि हो जाती है।
इस तरह गणितके सिद्धान्तके अनुसार तीन मल वस्तुओंके अधिक-से-अधिक अपुनरुक्त सात ही भंग हो सकते है । तात्पर्य यह कि वस्तुके प्रत्येक धर्म को लेकर सात प्रकारकी जिज्ञासा हो सकती है, सात प्रकारके प्रश्न हो सकते हैं अतः उनके उत्तर भी सात प्रकारके ही होते हैं।
दर्शनदिग्दर्शनमें श्री राहुलजीने पाँचवें छठवें और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोडा-मरोडा है वह उनकी अपनी निरो कल्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना चाहते है तो किसी भी दर्शनकी समीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझकर ही करनी चाहिए। वे अवक्तव्य नामक धर्मको जो कि सतके साथ स्वतन्त्रभावसे द्विसंयोगी हुआ है, तोड़कर अ-वक्तव्य करके
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