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४/ विशिष्ट निबन्ध : ११३
रखते ही हैं, भले ही हमें वे अज्ञात हो । यदि हम बाह्यपदार्थोंका इदमित्थंरूप निरूपण या निर्वचन नहीं कर सकते तो इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन पदार्थोंका अस्तित्व ही नहीं है। अनन्तधर्मात्मक पदार्थका पूर्ण निरूपण तो सम्भव ही नहीं है । शब्द या ज्ञानकी अशक्तिके कारण पदार्थोका लोप नहीं किया जा सकता। नीलाकारज्ञान रहनेपर भी कपड़ा रँगने को नीलपदार्थ की नितान्त आवश्यकता है। ज्ञानमें नीलाकार भी बिना नीलके नहीं आ सकता। अनेक परमाणुओंसे जो स्कन्ध बनता है उस स्कन्धका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, उन्हीं परमाणुओंका कथन्चित्तादात्म्य सम्बन्ध अर्थात् रासायनिक मिश्रण होनेपर परस्पर बन्न हो जाता है और वह स्कन्ध स्थूल और इन्द्रियग्राह्य होता है। यही अनुभवसिद्ध है। न तो उसका एकदेशसे सम्बन्ध होता है और न सर्वदेशसे, किन्तु जड़ पदार्थों का स्निग्ध और रूक्षताके कारण कियत्काल स्थायी विलक्षणबन्ध हो जाता है। जिस प्रकार एक ज्ञान स्वयं ज्ञानाकार, ज्ञेयाकार और ज्ञप्तिस्वरूप अनुभवमें आता है, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्मों का आधार होता है इसमें विरोध आदि दूषणोंका कोई प्रमङ्ग नहीं है। इस तरह अन्तरङ्गजानसे पृथक्, स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाले बाह्य जड़पदार्थ हैं । इन्हीं ज्ञेयोंको ज्ञान जानता है । अतः अकलङ्देवने प्रत्यक्षके स्वरूपनिरूपणमें ज्ञानका अर्थवेदन विशेषण दिया है जो ज्ञानको आत्मवेदीके साथ ही साथ अर्थवेदी सिद्ध करता है । इस तरह ज्ञान स्वभावसे स्वपरवेदी है, स्वार्थसंवेदक है। ५. अर्थ-सामान्यविशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक है
ज्ञान अर्थको विषय करता है यह विवेचन हो चुकनेपर विचारणीय मुद्दा यह है कि अर्थका क्या स्वरूप है ? जैन दृष्टिसे प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है या संक्षेपसे सामान्यविशेषात्मक है। वस्तुमें दो प्रकारके अस्तित्व है-एक स्वरूपास्तित्व और दूसरा सादृश्यास्तित्व । एक द्रव्यको अन्य सजातीय या विजातीय किसी भी द्रव्यसे अपङ्कीर्ण रखने वाला स्वरूपास्तित्व है। इसके कारण एक द्रव्यकी पर्यायें दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यसे अमङ्कीर्ण पृथक् अस्तित्व रखती हैं। यह स्वरूपास्तित्व जहाँ इतरद्रव्योंसे व्यावृत्ति कराता है वहाँ अपनी पर्यायोंमें अनुगत भी रहता है। अतः इस स्वरूपास्तित्वसे अपनी पयायोंमें अनुगत प्रत्यय उत्पन्न होता है और इतरद्रव्योंसे व्यावृत्त प्रत्यय । इस स्वरूपास्तित्वको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं । इसे ही द्रव्य कहते हैं। क्योंकि यही अपनी क्रमिक पर्यायोंमें द्रवित होता है, क्रमशः प्राप्त होता है। दूसरा सादृश्यास्तित्व है जो विभिन्न अनेक द्रव्यों में गौ-गौ इत्यादि प्रकारका अनुगत व्यवहार कराता है । इसे तिर्यक्सामान्य कहते हैं। तात्पर्य यह कि अपनी दो पर्यायों में अनुगत व्यवहार करानेवाला स्वरूपास्तित्व होता है। इसे ही ऊर्खतासामान्य और द्रव्य कहते हैं। तथा विभिन्न दो द्रव्योंमें अनुगत व्यवहार करानेवाला सादृश्यास्तित्व होता है। इसे तिर्यक्सामान्य या सादृश्यसामान्य कहते हैं। इसी तरह, दो द्रव्योंमें व्यावृत्त प्रत्यय करानेवाला व्यतिरेक जातिका विशेष होता है तथा अपनी ही दो पर्यायों में विलक्षण प्रत्यय करानेवाला पर्याय नामका विशेष होता है। निष्कर्ष यह कि एकद्रव्यकी पर्यायोंमें अनुगत प्रत्यय ऊर्ध्वतासामान्य या द्रव्यसे होता है तथा व्यावृत्तप्रत्यय पर्याय-विशेषसे होता है। दो विभिन्न द्रव्योंमें अनुगतप्रत्यय सादृश्यसामान्य या तिर्यक्सामान्यसे होता है और व्यावृत्तप्रत्यय व्य तिरेकविशेषसे होता है। इस तरह प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक होता है।
यद्यपि सामान्यविशेषात्मक कहनेसे द्रव्यपर्यायात्मकत्वका बोत्र हो जाता, पर द्रव्यपर्यायात्मकके पृथक् कहनेका प्रयोजन यह है कि पदार्थ न केवल द्रव्यरूप है और न पर्यायरूप, किन्तु प्रत्येक सत् उत्पाद-व्ययध्रौव्यवाला है । इनमें उत्पाद और व्यय पर्याय का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा ध्रौव्य द्रव्यका । पदार्थ सामान्यविशेषात्मक तो उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् न होकर भी हो सकता है, अतः उसके निज स्वरूपका पृथक् भान करानेके लिए द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण दिया है।
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