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११२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
नहीं तो नीलकी सत्ता ही कैसे सिद्ध की जा सकती है ? अतः ज्ञान ही बाह्य और आन्तर ग्राह्य और ग्राहक रूपमें स्वयं प्रकाशमान है, कोई बाह्यार्थ नहीं। पदार्थ और ज्ञानका सहोपलम्भ नियम है, अतः दोनों अभिन्न हैं।
अकलङ्कदेवने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि-अद्वय तत्त्व स्वतः प्रतिभासित होता है या परतः ? यदि स्वतः, तो किमीको विवाद नहीं होना चाहिए। नित्य ब्रह्मवादीकी तरह क्षणिक विज्ञानवादी भी अपने तत्त्वका स्वतः प्रतिभास कहते है। इनमें कौन सत्य समझा जाय ? परतः प्रतिभासपरके बिना नहीं हो सकता । परको स्वीकार करनेपर अद्वैत तत्त्व नहीं रह सकता। विज्ञानवादी इन्द्रजाल या स्वप्नका दृष्टान्त देकर बाह्य पदार्थका लोप करना चाहते हैं। किन्तु इन्द्रजालप्रतिभासित घट और बाह्य सत् घटमें अन्तर तो स्त्री बाल गोपाल आदि भी कर लेते हैं । वे घट-पट आदि बाह्य पदार्थों में अपनी इष्ट अर्थक्रियाके द्वारा आकांक्षाओंको शान्त कर सन्तोषका अनुभव करते हैं जब कि इंद्रजाल या मायादृष्ट पदार्थोंसे न तो अर्थक्रिया ही होती है और न तज्जन्य सन्तोषानुभव हो । उनका काल्पनिकपना तो प्रतिभास काल में ही ज्ञात हो जाता है । धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी आदि संज्ञाएँ मनुष्यकृत और काल्पनिक हो सकती है पर जिस वजनवाले रूपरसगन्धस्पर्शवाले स्थूल पदार्थमें ये संज्ञाएँ की जाती है वह तो काल्पनिक नहीं है। वह तो ठोस, वजनदार, सप्रतिघ, रूपरसादिगुणोंका आधार परमार्थसत् पदार्थ है। उस पदार्थको अपने-अपने संकेतके अनसार कोई धर्मग्रन्थ कहे, कोई पुस्तक, कोई बक, कोई किताब या अन्य कुछ कहे । ये संकेत व्यवहा लिए अपनी परम्परा और वासनाओंके अनुसार होते हैं, उसमें कोई आपत्ति नहीं है । दृष्टिसृष्टिका अर्थ भी यही है कि-सामने रखे हुए परमार्थसत् ठोस पदार्थमें अपनी दृष्टिके अनुसार जगत् व्यवहार करता है। उसकी व्यवहारसंज्ञाएँ प्रातिभासिक हो सकती हैं पर वह पदार्थ जिसमें वे संज्ञाएँ की जाती है, ब्रह्म या विज्ञान की तरह ही परमार्थसत् है । नीलाकार ज्ञानसे तो कपड़ा नहीं रँगा जा सकता ? कपड़ा रँगनेके लिए ठोस परमार्थसत् जड़ नील चाहिए जो ऐसे ही कपड़ेके प्रत्येकतन्तुको नीला बनायगा। यदि कोई परमार्थसत 'नील' अर्थ न हो, तो नीलाकार वासना कहाँसे उत्पन्न हुई ? वासना तो पूर्वानुभवकी उत्तर दशा है। यदि जगतमें नील अर्थ नहीं है तो ज्ञानमें नीलाकार कहाँसे आया ? वासना नीलाकार कैसे बन गई ? तात्पर्य यह कि व्यवहारके लिए की जानेवाली संज्ञाएँ, इष्ट-अनिष्ट, सुन्दर-असुन्दर, आदि कल्पनाएँ भले ही विकल्पकल्पित हों और दृष्टिसृष्टिको सीमामें हों, पर जिस आधारपर ये सब कल्पनाएँ कल्पित होती हैं वह आधार ठोस और सत्य है । विषके ज्ञानसे मरण नहीं हो सकता। विषका खानेवाला और विष दोनों ही परमार्थसत् हैं तथा विषके संयोगसे होनेवाले शरीरगत रासायनिक परिणमन भी। पर्वत, मकान, नदी आदि पदार्थ यदि ज्ञानात्मक ही हैं तो उनमें मर्तत्व, स्थूलत्व, सप्रतिघत्व आदि धर्म कैसे आ सकते हैं ? ज्ञानस्वरूप नदीमें स्नान या ज्ञानात्मक जलसे तृषाशान्ति अथवा ज्ञानात्मक पत्थरसे सिर तो नहीं फूट सकता?' यदि अद्वयज्ञान ही है तो शास्त्रोपदेश आदि निरर्थक हो जायँगे। परप्रतिपत्तिके लिए ज्ञानसे अतिरिक्त वचनकी सत्ता आवश्यक है । अद्वयज्ञानमें प्रतिपत्ता, प्रमाण, विचार आदि प्रतिभासकी सामग्री तो माननी ही पड़ेगी, अन्यथा प्रतिभास कैसे होगा ? अद्वयज्ञानमें अर्थ-अनर्थ, तत्त्व-अत्तत्त्व आदिकी व्यवस्था न होनेसे तद्ग्राही ज्ञानोंमें प्रमाणता या अप्रमाणताका निश्चय कैसे किया जा सकेगा? ज्ञानाद्वैतकी सिद्धिके लिए अनुमानके अंगभूत साध्य, साधन, दृष्टान्त आदि तो स्वीकार करने ही होंगे, अन्यथा अनुमान कैसे हो सकेगा? सहोपलम्भ-एक साथ उपलब्ध होना–से अभेद सिद्ध नहीं किया जा सकता; कारण, दो भिन्नसत्ताक पदार्थों में ही एक साथ उपलब्ध होना कहा जा सकता है। ज्ञान अन्तरंगमें चेतन रूपसे तथा अर्थ बहिरंगमें जड़रूपसे अनुभवमें आता है, अतः इनका सहोपलम्भ असिद्ध भी हैं । अर्थशून्य ज्ञान स्वाकारतया तथा ज्ञानशून्य अर्थ अपने अर्थरूपमें अस्तित्व
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