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११४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
सामान्य विशेषात्मक विशेषण धर्मरूप है, जो अनुगतप्रत्यय और व्यावृत्तप्रत्ययका विषय होता है । द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण परिणमनसे सम्बन्ध रखता है। प्रत्येक वस्तु अपनी पर्यायधारामें परिणत होती हुई भविष्य वर्तमान और वर्तमानसे अतीत क्षणको प्राप्त करती है । वह वर्तमानको अतीत और भविष्यको वर्तमान बनाती रहती है। प्रतिक्षण परिणमन करनेपर भी अतीतके यावत् संस्कारपुज इसके वर्तमानको प्रभावित करते हैं या यों कहिए कि इसका वर्तमान अतीतसंस्कारपुंजका कार्य है और वर्तमान कारणके अनुसार भविष्य प्रभावित होता है । इस तरह यद्यपि परिणमन करनेपर कोई अपरिवर्तित या कटस्थ नित्य अंश वस्तमें शेष नहीं रहता जो त्रिकालावस्थायी हो, पर इनना विच्छिन्न परिणमन भी नहीं होता कि अतीत, वर्तमान और भविष्य बिलकूल असम्बद्ध और अतिविच्छिन्न हों। वर्तमानके प्रति अतीतका उपादान कारण होना और वर्तमानका भविष्यके प्रति, यह सिद्ध करता है कि तीनों क्षणोंकी अविच्छिन्न कार्यकारणपरम्परा है। न तो वस्तुका स्वरूप सदा स्थायी नित्य ही है और न इतना विलक्षण परिणमन करनेवाला जिससे पूर्व और उत्तर भिन्नसन्तानकी तरह अतिविच्छिन्न हों।
भदन्त नागसेनने 'मिलिन्द प्रश्न' में जो कर्म और पुनर्जन्मका विवेचन किया है ( दर्शनदिग्दर्शन, पृ० ५५१) उसका तात्पर्य यही है कि पूर्वक्षणको 'प्रतीत्य' अर्थात् उपादान कारण बनाकर उत्तरक्षणका 'समुत्पाद' होता है। मज्झिमनिकाय में "अस्मिन् सति इदं भवति" इसके होनेपर यह होता है, जो इस आशयका वाक्य है उसका स्पष्ट अर्थ यही हो सकता है कि क्षणसन्तति प्रवाहित है, उसमें पूर्वक्षण उत्तरक्षण बनता जाता है । जैसे वर्तमान अतीतसंस्कारपुंजका फल है वैसे ही भविष्यक्षणका कारण भी।
श्री राहुल सांकृत्यायनने दर्शन-दिग्दर्शन ( पृ० ५१२ ) में प्रतीत्यसमुत्पादका विवेचन करते हुए लिखा है कि-'प्रतीत्यसमुत्पाद कार्यकारण नियमको अविच्छिन्न नहीं, विच्छिन्न प्रवाह बतलाता है। प्रतीत्यसमुत्पादके इसी विच्छिन्न प्रवाहको लेकर आगे नागार्जुनने अपने शून्यवादको विकसित किया।" इनके मतसे प्रतीत्यसमुत्पाद विच्छिन्न प्रवाहरूप है और पूर्वक्षणका उत्तरक्षणसे कोई सम्बन्ध नहीं है। पर ये प्रतीत्य शब्दके 'हेतुं कृत्वा' अर्थात् पूर्वक्षणको कारण बनाकर इस सहज अर्थको भूल जाते हैं। पूर्वक्षणको हेतु बनाए बिना यदि उत्तरका नया ही उत्पाद होता है तो भदन्त नागसेनकी कर्म और पुनर्जन्मकी सारी व्याख्या आधारशून्य हो जाती है। क्या द्वादशाङ्ग प्रतीत्यसमुत्पादमें विच्छिन्नप्रवाह युक्तिसिद्ध है ? यदि अविद्याके कारण संस्कार उत्पन्न होता है और संस्कारके कारण विज्ञान आदि, तो पूर्व और उत्तरका प्रवाह विच्छिन्न कहाँ हुआ? एक चित्तक्षणकी अविद्या उसी चित्तक्षणमें ही संस्कार उत्पन्न करती है अन्य चित्तक्षणमें नहीं, इसका नियामक वही प्रतीत्य है । जिसको प्रतीत्य जिसका समुत्पाद हुआ है उन दोनोंमें अतिविच्छेद कहाँ हुआ?
राहुलजी वहीं (१० ५१२ ) अनित्यवादकी "बुद्ध का अनित्यवाद भी 'दसरा ही उत्पन्न होता है । दसरा ही नष्ट होता है' के कहे अनुसार किसी एक मौलिक तत्त्वका बाहरी परिवर्तनमात्र नहीं, बल्कि एकका बिलकुल नाश और दूसरेका बिलकुल नया उत्पाद है । बुद्ध कार्यकारणकी निरन्तर या अविच्छिन्न सन्ततिको नहीं मानते ।" इन शब्दों में व्याख्या करते हैं। राहुलजी यहाँ भी केवल समुत्पादको ही ध्यानमें रखते हैं, उसके मलरूप 'प्रतीत्य'को सर्वथा भुला देते हैं। कर्म और पुनर्जन्मकी सिद्धिके लिये प्रयुक्त "महाराज, यदि फिर भी जन्म नहीं ग्रहण करे तो मुक्त हो गया; किन्तु चूंकि वह फिर भी जन्म ग्रहण करता है इसलिए ( मुक्त) नहीं हुआ।" इस सन्दर्भ में 'वह फिर भी' शब्द क्या अविच्छिन्न प्रवाहको सिद्ध नहीं कर रहे हैं। बौद्धदर्शनका 'अभौतिक अनात्मवादो' नामकरण केवल भौतिकवादी चार्वाक और आत्मनित्यवादी औपनिषदोंके निराकरणके लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिये, पर वस्तुतः बुद्ध क्षणिक
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