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७६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
१. शुद्ध काँच
१. मुक्त जीवका चेतन्य, शुद्ध चिन्मात्र २. कलई लगा हुआ काँच-दर्पण ( प्रतिबिम्ब रहित). २. सशरीरी संसारी जीवका चैतन्य, पर ज्ञेयाकार
शन्य, दर्शनावस्था निराकार ३. सप्रतिबिम्ब दर्पण
३. ज्ञेयाकार, साकार, ज्ञानावस्था इस तरह चैतन्यके दो परिणमन-एक निर्विकार अबद्ध अनन्त शुद्ध चैतन्यरूप मोक्षावस्थाभावी और दूसरा शरीर कर्म आदिसे बद्ध सविकारी सोपाधिक संसारावस्थाभावी । संसारावस्थाभावी चैतन्यके दो परिणमन एक सप्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह ज्ञेयाकार और दूसरा निष्प्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह निराकार । ज्ञेयाकार परिणमनका नाम ज्ञान तथा निराकार परिणमनका नाम दर्शन । तत्त्वार्थराजवातिकमें-जीवका लक्षण उपयोग किया है और उपयोगका लक्षण इस प्रकार दिया है
___"बाह्याभ्यन्तरहेतुद्वयसन्निधाने यथासंभवमुपलब्धुश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः।" (त० वा० २१८ ) अर्थात-उपलब्धाको ( जिस चैतन्यमें पदार्थोके उपलब्ध अर्थात ज्ञान करनेकी योग्यता हो) दो प्रकारके बाह्य तथा दो प्रकारके अभ्यन्तर हेतुओंके मिलनेपर जो चैतन्यका अनुविधान करनेवाला परिणमन होता है उसे उपयोग कहते हैं । इस लक्षणमें आए हुए 'उपलब्धुः' और 'चैतन्यानुविधायी' ये दो पद विशेष ध्यान देने योग्य है । चैतन्यानुविधायी पद यह सूचना दे रहा है कि जो ज्ञान और दर्शन परिणमन बाह्याभ्यन्तर हेतुओंके निमित्तसे हो रहे हैं वे स्वभावभूत चैतन्यका अनुविधान करनेवाले हैं अर्थात् चैतन्य एक अनुविधाता द्रव्यांश है और उसके ये बाह्याभ्यन्तर हेत्वधीन परिणमन है। चैतन्य इनसे भी परे शुद्ध अवस्थामें शुद्ध परिणमन करनेवाला है। 'उपलब्धुः' पद चतन्यकी उस दशाको सूचित करता है चैतन्यमें बाह्याभ्यान्तर हेतुओंसे निराकार या साकार होनेकी योग्यता होती है और वह अवस्था अनादिकालसे कर्मबद्ध होनेके कारण अनादिसे ही है। तात्पर्य यह कि अनादिसे कर्मबद्ध होने के कारण चैतन्य-काँचमें वह कलई लगी है जिससे वह दर्पण बना है इसीमें बाह्याभ्याकार हेतुओंके अधीन निराकार और साकार परिणमन होते रहते है जिन्हें क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहते हैं। पर अन्तमें मुक्त अवस्थामें जब सारी कलई धुल जाती है विशुद्ध निर्विकार निर्विकल्प अनन्त अखण्ड चैतन्यमात्र रह जाता है तब उसका शुद्ध चिद्रप ही परिणमन होता है । ज्ञान और दर्शन परिणमन बाह्याधीन है । उसमें ज्ञान और दर्शनका विभाग ही विलीन हो जाता है। . तत्त्वार्थराजवातिक ( १।६ ) में घटके स्वपरचतुष्टयका विचार करते हुए अन्तमें घटज्ञानगत ज्ञेयाकारको घटका स्वात्मा बताया है और निष्प्रतिबिम्ब ज्ञानाकारको परात्मा । यथा
___ "चैतन्यशक्ती आकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकारः, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादशंतलवत् ज्ञेयाकारः" इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि चैतन दो परिणमन होते है-ज्ञेयाकार और ज्ञानाकार । राजवार्तिकमें ज्ञेयाकार परिणमन उसका साकार परिणमन है तथा ज्ञानाकार परिणमन निराकार । जब तक ज्ञेयाकार परिणमन है तब तक वह वास्तविक अर्थमें ज्ञानपर्यायको धारण करता है और निर्जयाकार दशामें दर्शन पर्यायको । धवला टीका ( पु० १, पृ० १४८ ) और
ह ( पृ० ८१-८२ ) में सौद्धान्तिक दृष्टिसे जो दर्शनकी व्याख्या की है उसका तात्पर्य भी यही है कि-विषय और विषयीके सन्निपातके पहिले जो चैतन्यकी निराकार परिणति या स्वाकार परिणति है उसे दर्शन कहते हैं। राजवार्तिकमें चैतन्यशक्तिके जिस ज्ञानाकारकी चरचा है वह वास्तविकमें दर्शन ही है। इस विवेचनसे इतना तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि-चैतन्यकी एक धारा है जिसमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय,
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