Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 52
________________ 4 / विशिष्ट निबन्ध : 125 ३-अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष / चक्षु आदि इन्द्रियोंसे रूपादिकका स्पष्ट ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। मनके द्वारा सुख आदिकी अनुभूति मानस प्रत्यक्ष है / अकलंकदेवने लघीयस्त्रयस्ववृत्ति में स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोधको अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है। इसका अभिप्राय इतना ही है कि-मति स्मति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध ये सब मतिज्ञान हैं, मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे इनकी उत्पत्ति होती है। मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है। इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको जब संव्यवहारमें प्रत्यक्ष रूपसे प्रसिद्धि होनेके कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष मान लिया, तब उसी तरह मनोमति रूप स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानको भी प्रत्यक्ष ही कहना चाहिये / परन्तु संव्यवहार इन्द्रियजन्य मतिको तो प्रत्यक्ष मानता है, पर स्मरण आदिको नहीं। अतः अकलङ्ककी स्मरण आदिको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष माननेकी व्याख्या उन्हीं तक सीमित रही। वे शब्दयोजनाके पहिले स्मरण आदिको मतिज्ञान और शब्दयोजनाके बाद इन्हींको श्रुतज्ञान भी कहते हैं। पर उत्तरकालमें असंकीर्ण प्रमाण विभागके लिए-इन्द्रिय और मनोमति सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति आदि परोक्ष, श्रत परोक्ष और अवधि मनःपर्यय तथा केवलज्ञान ये तीन ज्ञान परमार्थप्रत्यक्ष' यही व्यवस्था सर्वस्वीकृत हुई। परमार्थप्रत्यक्ष आत्ममात्रसे उत्पन्न होता है। अवधि और मनःपर्ययज्ञान सीमित विषयवाले हैं तथा केवलज्ञान सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्ट आदि समस्त पदार्थोंको जानता है। परमार्थप्रत्यक्ष की सिद्धिके लिए अकलंकदेवका निम्नलिखित युक्तिवाद अन्तिम है "ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते / अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थानवलोकते॥"-न्यायवि० श्लो० 465-66 / अर्थात-ज्ञस्वभाव आत्माके ज्ञानावरण कर्मके सर्वथा नष्ट हो जानेपर कोई ज्ञेय शेष नहीं रह जाता जो उस ज्ञानका विषय न हो सके / चूँकि ज्ञान स्वभावतः अप्राप्यकारी है अतः उसे पदार्थके पास या पदार्थोंको ज्ञानके पास आनेकी भी आवश्यकता नहीं है / अतः ऐसे निरावरण अप्राप्यकारी पूर्णज्ञानसे समस्त पदार्थोंका बोध होना ही चाहिए। सबसे बड़ी बाधा ज्ञानावरणकी थी, सो जब वह समल नष्ट हो गया तो निरावरण ज्ञान स्वज्ञेयको जानेगा ही। ___ इस तरह इस प्रत्यक्ष प्रस्तावमें प्रत्यक्ष का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। भट्टाकलंकदेव न्यायविनिश्चय मूलग्रन्थके प्रणेता जैनन्यायवाङ्मयके अमर प्रतिष्ठापक, उद्भटवादी, जैनशासनके चिरस्मरणीय प्रभावक, अनेकान्तवादके उपस्तोता आचार्यवर भट्टाकलंकदेव हैं। जिनके पुण्यगणोंका स्मरण, जिनके त्यागको पूतगाथा आज भी जीवनमें प्रेरणा और स्फूर्ति देती है। जो न केवल जैन सम्प्रदायके ही अमररत्न थे, किन्तु भारतमाताका मुकूट जिन इनेगिने नररत्नोंसे आलोकित है उनमें अग्रणी थे। वे भारतीके भालकी शोभा थे। शास्त्रार्थों में जिन्हें दैवीबल भी परास्त नहीं कर सकता था उन शब्दअर्थके धनी, पर अकिञ्चन अकलंकब्रह्म के मुख्य ग्रन्थ न्यायविनिश्चयका तदनुरूप व्याख्याकार वादिराजसरिके विवरणके साथ प्रथमबार प्रकाशन किया जाता है। ग्रन्थके प्रत्यक्ष प्रस्तावका संक्षिप्त पहिले लिखा जा चुका है। ग्रन्थकारोंके विषयमें, खासकर उनके समय आदिका, ज्ञात परिचय कराना अवसरप्राप्त है। अकलंकदेवके समय आदिके विषयमें 'अकलंकग्रन्थत्रय और उसके कर्ता' लेखमें विस्तारसे प्रकाश डाला गया है। यह लेख इसी स्मृति ग्रंथके खण्ड 4 में प्रकाशित है उसमें ग्रन्थोंके आन्तर परीक्षणके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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