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४ / विशिष्ट निबन्ध : १२३
निर्विकल्पक स्वयं व्यवहारमाधक नहीं होता, व्यवहार निर्विकल्पकजन्य सविकल्पकसे होता है। सविकल्पक ज्ञान निर्मल नहीं होता । विकल्प ज्ञानकी विशदता विकल्पमें झलकती है। ज्ञात होता है कि वेदकी प्रमाकताका खण्डन करनेके विचारसे बौद्धोंने शब्दका अर्थ के साथ वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं माना और यावत् शब्दसंसर्गी ज्ञानोंको, जिनका समर्थन निर्विकल्पकसे नहीं होता, अप्रमाण घोषित कर दिया है। इनने उन्हीं ज्ञानोंको प्रमाण माना जो साक्षात् या परम्परासे अर्थसामर्थ्यजन्य हैं । निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा यद्यपि अर्थमें रहनेवाले क्षणिकत्व आदि सभी धर्मोंका अनुभव हो जाता है, पर उनका निश्चय यथासंभव विकल्पकज्ञान और अनुमानसे ही होता है। नील निर्विकल्पक नीलांशका 'नीलमिदम्' इस विकल्पज्ञान द्वारा निश्चय करता है और व्यवहारसाधक होता है तथा क्षणिकांशका 'सर्वं क्षणिक सत्त्वात्' इस अनुमानके द्वारा । चूंकि निर्विकल्पक 'नीलमिदम्' आदि विकल्पोंका उत्पादक है और अर्थस्वलक्षणसे उत्पन्न हुआ है अतः प्रमाण है। विकल्पज्ञान अस्पष्ट है, क्योंकि वह परमार्थसत् स्वलक्षणसे उत्पन्न नहीं हुआ है । सर्वप्रथम अर्थसे निर्विकल्पक ही उत्पन्न होता है। उस निर्विकल्पावस्थामें किसी विकल्पका अनुभव नहीं होता। विकल्प कल्पितसामान्यको विषय करनेके कारण तथा निर्विकल्पकके द्वारा गृहोत अर्थको ग्रहण करनेके कारण प्रत्यक्षाभास है।
अकलंङ्गदेव इसकी आलोचना इस प्रकार करते हैं-अर्थक्रियार्थी पुरुष प्रमाणका अन्वेषण करते हैं । जब व्यवहारमें साक्षात् अर्थक्रियासाधकता सविकल्पकमें ही है तब क्यों न उसे ही प्रमाण माना जाय ? निर्विकल्पकमें प्रमाणता लानेको आखिर आपको सविकल्पक ज्ञान तो मानना ही पड़ता है। यदि निविकल्पके द्वारा गहीत नीलाद्यंशको विषय करनेसे विकल्पज्ञान अप्रमाण है; तब तो अनुमान भी प्रत्यक्षके द्वारा गृहीत क्षणिकत्वादिको विषय करनेके कारण प्रमाण नहीं हो सकेगा। निर्विकल्पसे जिस प्रकार नीलाद्यशोंमें 'नीलमिदम' इत्यादि विकल्प उत्पन्न होते है, उसी प्रकार क्षणिकत्वादि अंशोंमें भी 'क्षणिकमिदम' इत्यादि विकल्पज्ञान उत्पन्न होना चाहिये। अतः व्यवहारसाधक सविकल्पज्ञान ही प्रत्यक्ष कहा जाने योग्य है। विकल्पज्ञान ही विशदरूपसे प्रत्येक प्राणीके अनुभवमें आता है, जब कि निर्विकल्पज्ञान अनुभवसिद्ध नहीं है। प्रत्यक्षसे तो स्थिर स्थूल अर्थ ही अनुभवमें आते हैं, अतः क्षणिक परमाणुका प्रतिभास कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है। निर्विकल्पकको स्पष्ट होनेसे तथा सविकल्पकको अस्पष्ट होनेसे विषयभेद भी मानना ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही वृक्ष दूरवर्ती पुरुषको अस्पष्ट तथा समीपवर्तीको स्पष्ट दीखता है। आद्य-प्रत्यक्षकालमें भी कल्पनाएँ बराबर उत्पन्न तथा विनष्ट तो होती ही रहती हैं, भले ही वे अनुपलक्षित रहें। निर्विकल्पसे सविकल्पकी उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यदि अशब्द निर्विकल्पकसे सशब्द विकल्पज्ञान उत्पन्न हो सकता है तो शब्दशन्य अर्थसे ही विकल्पककी उत्पत्ति मानने में क्या बाधा है ? अतः मति, स्मति, संज्ञा, चिन्तादि यावद्विकल्पज्ञान संवादी होनेसे प्रमाण है । जहाँ ये विसंवादी हों वहीं इन्हें अप्रमाण कह सकते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें अर्थक्रियास्थिति अर्थात अर्थक्रियासाधकत्व रूप अविसंवादका लक्षण भी नहीं पाया जाता, अतः उसे प्रमाण कैसे कह सकते हैं ? शब्दसंसृष्ट ज्ञानको विकल्प मानकर अप्रमाण कहनेसे शास्त्रोपदेशसे क्षणिकत्वादिकी सिद्धि नहीं हो सकेगी।
मानस प्रत्यक्ष निरास-बौद्ध इन्द्रियज्ञानके अनन्तर उत्पन्न होनेवाले विशदज्ञानको, जो कि उसी इन्द्रियज्ञानके द्वारा ग्राह्य अर्थके अनन्तरभावी द्वितीयक्षणको जानता है, मानस प्रत्यक्ष कहते हैं। अकलंकदेव कहते है कि-एक ही निश्चयात्मक अर्थसाक्षात्कारी ज्ञान अनुभवमें आता है। आपके द्वारा बताये गये मानस प्रत्यक्षका तो प्रतिभास ही नहीं होता। 'नीलमिदम्' यह विकल्प ज्ञान भी मानस प्रत्यक्षका असाधक है क्योंकि ऐसा विकल्प ज्ञान तो इन्द्रिय प्रत्यक्षसे ही उत्पन्न हो सकता है, इसके लिये मानस प्रत्यक्ष माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। बड़ी और गरम जलेबी खाते समय जितनी इन्द्रियबुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं उतने
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