Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 49
________________ १२२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ करते हैं उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्तिमें किसी अन्य ज्ञानकी आवश्यकता नहीं रखता। यही अनुमानादिसे प्रत्यक्षमें अतिरेक-अधिकता है । यद्यपि आगमिक दृष्टिसे इन्द्रिय आलोक या ज्ञानान्तर किसी भी कारणकी अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान परोक्ष है और आत्ममात्रसापेक्ष ही ज्ञान प्रत्यक्ष, पर दार्शनिक क्षेत्रमें अकलंकदेवके सामने प्रमाणविभागकी समस्या थी जिसे उन्होंने बड़ी व्यवस्थित रीतिसे सुलझाया है । तत्त्वार्थसूत्रमें मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानोंको परोक्ष कहा है और वही मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोधको अनर्थान्तर बताया है । अनर्थान्तर कहनेका तात्पर्य इतना ही है कि ये सब मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होते हैं । मतिमें इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले अवग्रह ईहा अवाय और धारणा ज्ञान सम्मिलित हैं । अकलंकदेवने मतिको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर लोकप्रसिद्ध इन्द्रियज्ञानकी प्रत्यक्षताका निर्वाह किया और स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और श्रुति इन सबको परोक्ष प्रमाण रूपसे परिगणित किया। आगममें मति और श्रुत परोक्ष थे ही । स्मृति आदि मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान थे ही, इसलिए इनका परोक्षत्व भी सिद्ध था । मात्र इन्द्रिय और मनोजन्य मतिको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बना देनेसे समस्त प्रमाणव्यवस्था जम गई और लोक प्रसिद्धिका निर्वाह भी हो गया । यद्यपि अकलंकदेवने लघीयस्त्रयमें स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानको भी मनोमति कहा है और सम्भवतः वे इन्हें भी प्रादेशिक प्रत्यक्षकोटिमें लाना चाहते थे, पर यह प्रयास आगेके आचार्योंके द्वारा समर्थित नहीं हुआ। इस तरह अकलंकदेवने विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहकर श्री सिद्धसेन दिवाकरके 'अपरोक्ष ग्राहक प्रत्यक्ष' इस प्रत्यक्ष-लक्षणकी कमोको दूर कर दिया। उत्तरकालीन समस्त जैनाचार्योंने अकलंकोपज्ञ इस लक्षण और प्रमाणव्यवस्थाको स्वीकार किया है। यद्यपि बौद्ध भी विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं फिर भी प्रत्यक्षके लक्षणमें अकलंकदेवके द्वारा विशद पदके साथ ही प्रयुक्त 'साकार' और 'अंजसा' पद खास महत्त्व रखते हैं। बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। यह निर्विकल्पक ज्ञान जैनदार्शनिक परम्परामें प्रसिद्ध विषयविषयीसन्निपातके बाद होने वाले सामान्यावभासी अनाकार दर्शनके समान है । अकलंकदेवकी दृष्टिमें जब निर्विकल्पक दर्शन प्रमाणकोटिसे ही बहिभत है तब उसे प्रत्यक्ष तो कहा ही नहीं जा सकता था। इसी बातकी सूचनाके लिए उन्होंने प्रत्यक्ष के लक्षणमें साकार पद दिया है, जो निराकार दर्शन तथा बौद्धसम्मत निर्विकल्पक-प्रत्यक्षका निराकरण कर निश्चयात्मक विशदज्ञानको ही प्रत्यक्ष कोटिमें रखता है। बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्षके बाद होनेवाले 'नीलमिदम' इत्यादि प्रत्यक्षज विकल्पोंको भी संव्यवहारसे प्रमाण मान लेते हैं । इसका कारण यह है कि प्रत्यक्षकेविषयभूत दृश्य स्वलक्षणमें विकल्पके विषयभूत विकल्प सामान्यका एकत्वाध्यवसाय करके प्रवृत्ति करनेपर स्वलक्षण ही प्राप्त होता है, अतः विकल्प ज्ञान भी संव्यवहारसे प्रमाण बन जाता है। इन विकल्पमें निर्विकल्पककी ही विशदता आती है। इसका कारण है निर्विकल्पक और सविकल्पकका अतिशीघ्र उत्पन्न होना या एक साथ होना । तात्पर्य यह कि बौद्धके मतसे सविकल्पकमें न तो अपना वैशद्य है और न प्रमाणत्व । इसका निरास करने के लिए अकलंकदेवने अंजसा विशेषण दिया है और सूचित किया है कि विकल्पज्ञान अंजसा विशद है, संव्यवहारसे नहीं। परपरिकल्पित प्रत्यक्ष लक्षण निरास बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञानको प्रत्यक्ष मानते हैं । कल्पनापोढ और अभ्रान्तज्ञान उन्हें प्रत्यक्ष इष्ट है। शब्दसंसष्ट 'ज्ञान 'विकल्प' कहलाता है। निर्विकल्पक शब्दसंसर्गसे शन्य होता है । निर्विकल्पक परमार्थसत् स्वलक्षण अर्थसे उत्पन्न होता है । इसके चार भेद होते हैं-इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्वसंवेदनप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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