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१०० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
कारिका संख्या-न्यायविनिश्चयकी मलकारिकाएँ पृथक्-पृथक् पूर्णरूपसे लिखी हुई नहीं मिलती। इनका उद्धार विवरणगत कारिकांशोंको जोड़कर किया गया है। अतः जहाँ ये कारिकाएँ पूरी नहीं मिलती वहाँ उद्धृत अंशको [
] इस ब्रकिटमें दे दिया है। अकलङ्कग्रन्थ त्रयमें न्यायविनिश्चय मल प्रकाशित हो चुका है । उसमें प्रथम प्रस्तावमें १६९॥ कारिकाएँ मुद्रित हैं, पर वस्तुतः इस प्रस्तावकी कारिकाओंकी अभ्रान्त संख्या १६८॥ है। अकलङ्कग्रन्थत्रयगत न्यायविनिश्चयमें 'हिताहिताप्ति' ( कारिका नं. ४) कारिका मूलकी समझकर छापी गई है, पर अब यह कारिका वादिराजकी स्वकृत ज्ञात होती है । न्यायविनिश्चयविवरण (पृ० ११५ ) में लिखा है कि-"करिष्यते हि सदसज्ज्ञान इत्यादिना इन्द्रियप्रत्यक्षस्य, परोक्षज्ञान इत्यादिना अनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य, लक्षणं सममित्यादिना चातीन्द्रियप्रत्यक्षसमर्थनम्" इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि तीनों प्रत्यक्षोंका प्रकारान्तरसे समर्थन कारिकाओंमें किया गया है लक्षण नहीं । मल कारिकाओंमें न तो अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण है और न अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका, तब केवल इन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण क्यों किया होगा ? दूसरे पक्षमें इस श्लोककी व्याख्या (पृ० १०५, १११ ) विवरणमें मौजूद है और व्याख्याके आधारोंसे ही उक्त श्लोकको मैंने पहले मूलका माना था। हो सकता है कि वादिराजने स्वकृत श्लोकका ही तात्पर्योद्घाटन किया हो । अथवा वृत्तिमें ही गद्यमें उक्त लक्षण हो और वादिराजने उसे पद्य बद्ध कर दिया हो । जैसा कि लघीयस्त्रय स्ववृत्ति (पृ० २१ ) में "इन्द्रियार्थज्ञानं स्पष्टं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं प्रादेशिकं प्रत्यक्षम्'' यह इन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण मिलता है । अथव. इसे हो वादिराजने पद्यबद्ध कर दिया हो । फलतः हमने इस श्लोकको इस विवरणमें वादिराजकृत ही मानकर छोटे टाइपमें छापा है । अकलङ्कग्रन्थ त्रयकी प्रस्तावनामें इस श्लोकके सम्बन्धमें मैंने पं० कैलाशचन्द्रजीके मतकी चरचा की थी । अनुसन्धानसे उनका मत इस समय उचित मालम होता है।
अकलङ्कग्रन्थत्रयमें मुद्रित कारिका नं० ३८ का “ग्राह्यभेदो न संवित्ति भिनत्त्याकारभङ्ग्यपि" यह उत्तरार्ध मूलका नहीं है। कारिका नं० १२९ के पूर्वार्धके बाद "तथा सुनिश्चितस्तैस्तु तत्त्वतो विप्रशंसतः" यह उत्तरार्ध मूलका होना चाहिए। इस तरह इस परिच्छेदकी कारिकाओंकी संख्या १६८॥ रह जाती है। प्रस्तुत विवरणमें छापते समय कारिकाओंके नम्बर देनेमें गड़बड़ी हो गई है।
ताडपत्रीय प्रतिमें प्रायः मूल श्लोकोंके पहिले * इसप्रकारका चिह्न बना हुआ है, जहाँ पूरे श्लोक आए है । कारिका नं० ४ पर यह चिह्न नहीं बना है। अकलङ्कग्रन्थत्रयमें मुद्रित प्रथम परिच्छेदकी कारिकाओंमें निम्नलिखित संशोधन होना चाहिएकारिका नं० १६
-शब्दो
-शक्तो । कारिका नं० २४
-वन्यचे
-वन्त्यचे-। कारिका नं० ३१
न विज्ञाना
न हि ज्ञाना-। कारिका नं० ७०
-मेष निश्चयः -मेष विनिश्चयः । कारिका नं० ७८
कथन्न तत्
कथं ततः । कारिका नं० १०२
द्रुमेप्व
ध्रुवेष्व-। कारिका नं० १४०
अतदारम्भ
अतदाभद्वितीय और तृतीय परिच्छेदमें मुद्रित कारिकाओं में निम्नलिखित कारिकापरिवर्तनादि हैं-कारिका नं० १९४ की रचना-"अतद्धेतुफलापोहः सामान्यं चेदपोहिनाम् । सन्दयते तथा बुद्धया न तथाऽ प्रतिपत्तितः।" इसप्रकार होनी चाहिए ।
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