Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ ९८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ हो जाती है । वह वस्तुस्थितिको उल्लंघन करनेवाले शब्दका प्रयोग ही नहीं कर सकता । इसीलिए जैनाचार्यों ने वस्तुकी अनेकधर्मात्मकताका द्योतन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दके प्रयोगकी आवश्यकता बताई है। शब्दोंमें यह सामर्थ्य नहीं जो कि वस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कह सके। वह एक समयमें एक ही धर्मको कह सकता है । अतः उसी समय वस्तुमें विद्यमान शेष धर्मोंकी सत्ताका सूचन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । 'स्यात्' का 'सुनिश्चित दृष्टिकोण' या 'निर्णीत अपेक्षा' ही अर्थ है 'शायद', 'सम्भव' 'कदाचित्' आदि नहीं । 'स्यादस्ति' का वाच्यार्थ है-'स्वरूपादिकी अपेक्षासे वस्तु है ही' न कि 'शायद है', 'सम्भव है', 'कदाचित है आदि । संक्षेपतः जहाँ अनेकान्तदर्शन चित्तमें समता, मध्यस्थभाव, वीतरागता, निष्पक्षताका उदय करता है, वहाँ स्याद्वाद वाणीमें निर्दोषता आनेका पूरा अवसर देता है। - इस प्रकार अहिंसाकी परिपूर्णता और स्थोयित्वकी प्रेरणाने मानसशुद्धिके लिए अनेकान्तदर्शन और वचन-शद्धिके लिए स्याद्वाद-जैसी निधियोंको भारतीय संस्कृतिके कोषागारमें दिया है। बोलते समय वक्ताको सदा यह ध्यान रहना चाहिए कि वह जो बोल रहा है उतनी ही वस्तु नहीं है, किन्तु बहुत बड़ी है, उसके पूर्णरूप तक शब्द नहीं पहुँच सकते। इसी भावको जतानेके लिए वक्ता 'स्यात' शब्दका प्रयोग करता है। 'स्यात्' शब्द विधिलिङ्में निष्पन्न होता है, जो अपने वक्तव्यको निश्चित रूपमें उपस्थित करता है न कि संशय रूपमें। जैन तीर्थकरोंने इस तरह सर्वाङ्गीण अहिंसाकी साधनाका वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकारका प्रत्यक्षानुभूत माग बताया है। उनने पदार्थों के स्वरूपका यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही पदार्थों के देखनेका, उनके ज्ञान करनेका और उनके स्वरूपको वचनसे कहनेका नया वस्तुस्पर्शी मार्ग बताया। इस अहिंसक दृष्टिसे यदि भारतीय दर्शनकारोंने वस्तुका निरीक्षण किया होता तो भारतीय जल्पकथाका इतिहास रक्तरंजित न हुआ होता और धर्म तथा दर्शनके नामपर मानवताका निर्दलन नहीं होता। पर और शासन-भावना मानवको दानव बना देती है। उसपर भी धर्म और मतका 'अहम्' तो अति दुनिवार होता है। परन्तु युग-युगमें ऐसे ही दानवोंको मानव बनाने के लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वय दष्टि, इसी समता भाव और इसी सर्वाङ्गीण अहिंसाका सन्देश देते आए हैं। यह जैनदर्शनकी ही विशेषता है जो वह अहिंसाकी तह तक पहुँचने के लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु वास्तविक स्थितिके आधारसे दार्शनिक युक्तियोंको सुलझानेकी 'मौलिक दृष्टि भी खोज सका। न केवल दृष्टि ही किन्तु मन, वचन और काय इन तीनों द्वारोंसे होनेवाली हिंसाको रोकनेका प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित कर सका। डॉ० भगवानदास जैसे मनीषो समन्वय और सब धर्मोकी मौलिक एकताकी आवाज बुलन्द कर रहे हैं । वे वर्षों से कह रहे हैं कि समन्वय दृष्टि प्राप्त हुए बिना स्वराज्य स्थायी नहीं हो सकता, मानव मानव नहीं रह सकता । उन्होंने अपने 'समन्वय' और 'दर्शनका प्रयोजन' आदि ग्रन्थोंमें इसी समन्वय तत्त्वका भूरि-भूरि प्रतिपादन किया है । जैन ऋषियोंने इस समन्वय ( स्याद्वाद ) सिद्धान्तपर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। इनका विश्वास है कि जब तक दृष्टिमें समीचीनता नहीं आयगी तब तक मतभेद और संघर्ष बना ही रहेगा। नए दृष्टिकोणसे वस्तुस्थिति तक पहुँचना ही विसंवादसे हटाकर जीवनको संवादी बना सकता है। जैनदर्शनकी भारतीय संस्कृतिको यही देन है। आज हमें जो स्वातन्त्र्यके दर्शन हुए है वह इसी अहिंसाका पुण्यफल है। कोई यदि विश्वमें भारतका मस्तक ऊँचा रख सकता है तो यह निरुपाधि वर्ण, जाति, रङ्ग, देश आदिकी उपाधियोंसे रहित अहिंसा भावना ही है। इस प्रकार सामान्यतः दर्शन शब्दका अर्थ और उनकी सीमा तथा जैनदर्शनकी भारतीय दर्शनको देनका सामान्य वर्णन करनेके बाद इस भागमें आए हुए ग्रन्थगत प्रमेयका वर्णन संक्षेपमें किया जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52