Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 10
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ८३ 'स्यात' शब्द एक प्रहरी है, जो उच्चरित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता। वह उन अविवक्षित धर्मोंका संरक्षक है। इसलिए 'रूपवान्' के साथ 'स्यात्' शब्दका अन्वय करके जो लोग घड़ेमें रूपको भी स्थितिको स्यातका शायद या संभावना अर्थ करके संदिग्ध बनाना चाहते हैं वे भ्रममें हैं । इसी तरह 'स्यादस्ति घटः' वाक्यमें 'घटः अस्ति' यह अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चित रूपसे विद्यमान है। स्यात् शब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाता, किन्तु उसकी वास्तविक स्थितिकी सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मोके सद्भावका प्रतिनिधित्व करता है। सारांश यह कि 'स्यात्' पद एक स्वतन्त्र पद है जो वस्तुके शेषांशका प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं 'अस्ति' नामका धर्म जिसे शब्दसे उच्चरित होनेके कारण प्रमुखता मिली है पूरी वस्तुको न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति आदि सहयोगियोंके स्थानको समाप्त न कर जाय । इसलिए वह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता है कि हे भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अन्य नास्ति आदि भाइयोंके हकको हड़पनेकी चेष्टा नहीं करना। इस भयका कारण है-'नित्य ही है, अनित्य ही है' आदि अंशवाक्योंने अपना पूर्ण अधिकार वस्तुपर जमाकर अनधिकार चेष्टा की है और जगतमें अनेक तरहसे वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद-प्रतिवादने अनेक मतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार हिंसा संघर्ष अनुदारता परमतासहिष्णुता आदिसे विश्वको अशान्त और आकुलनामय बना दिया है। ‘स्यात्' शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देताह जिससे अहंकारका सर्जन होता है और वस्तु के अन्य धर्मों के अस्तित्वसे इनकार करके पदार्थके साथ अन्याय होता है। 'स्यात्' शब्द एक निश्चित अपेक्षाको द्योतन करके जहाँ ‘अस्तित्व' धर्मकी स्थिति सुदृढ़ सहेतुक बनाता है, वहाँ वह उसको उस सर्वहरा प्रवृत्तिको भी नष्ट करता है जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक बनना चाहता है । वह न्यायाधीशकी तरह तुरन्त कह देता है कि-हे अस्ति, तुम अपने अधिकारकी सीमाको समझो । स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी दृष्टिसे जिस प्रकार तुम घटमें रहते हो, उसी तरह परद्रव्यादिकी अपेक्षा 'नास्ति' नामका तुम्हारा भाई भी उसी घटमें है। इसी प्रकार घटका परिवार बहुत बड़ा है। अभी तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है, तुम्हारा प्रयोजन है, तम्हारी विवक्षा है । अतः इस समय तुम मुख्य हो। पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है जो तुम अपने समानाधिकारी भाइयोंके सद्भावको भी नष्ट करनेका दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात तो यह है कि यदि परकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस घड़ेमें तुम रहते हो वह घड़ा घड़ा ही न रहेगा कपड़ा आदि पररूप हो जायगा । अतः जैसी तुम्हारी स्थिति है वैसी ही पर रूपकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्मकी भी स्थिति है । तुम उनकी हिंसा न कर सको इसके लिए अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहले ही वाक्यमें लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम तो बराबर अपने नास्ति आदि अनन्य भाइयोंको वस्तमें रहने देते हो और बडे प्रेमसे सबके सब अनन्त धर्मभाई रहते हो, पर इन वस्तुदर्शियोंकी दृष्टिको क्या कहा जाय । इनकी दष्टि ही एकाङ्गी है। ये शब्दके द्वारा तुममेंसे किसी एक 'अस्ति' आदिको मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी अहंकारपूर्ण कर देना चाहते हैं जिससे वह 'अस्ति' अन्यका निराकरण करने लग जाय। बस, 'स्यात' शब्द एक अञ्जन है जो उनकी दृष्टिको विकृत नहीं होने देता और उसे निर्मल तथा पूर्णदर्शी बनाता है। इस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषहारी, शब्दको सुधारूप बनानेवाले, सचेतक प्रहरी, अहिंसक भावनाके प्रतीक. जीवन्त न्यायरूप, सुनिश्चित-अपेक्षाद्योतक 'स्यात्' शब्दके स्वरूपके साथ हमारे दार्शनिकोंने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूपको 'शायद, संभव है, 'कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्यायोंसे विकृत करनेका दष्ट प्रयल अवश्य किया है तथा किया जा रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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