Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 22
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ९५ पर, यह अनुभवसिद्ध बात है । अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्ठा मनःशुद्धि और वचनशद्धिके बिना नहीं हो सकती। हम भले ही शरीरसे दूसरे प्राणियोंकी हिंसा न करें, पर यदि वचन-व्यवहार और चित्तगतविचार विषम और विसंवादी हैं तो कायिक अहिंसा पल ही नहीं सकती। अपने मनके विचार अर्थात् मतको पुष्ट करनेके लिए ऊँच नीच शब्द बोले जायेंगे और फलतः हाथापाईका अवसर आए बिना न रहेगा। भारतीय शास्त्रार्थोंका इतिहास अनेक हिंसा-कांडोंके रक्तरंजित पन्नोंसे भरा हुआ है। अतः यह आवश्यक था कि अहिंसाकी सर्वाङ्गीण प्रतिष्ठाके लिए विश्वका यथार्थ तत्त्वज्ञान हो और विचार-शुद्धिमूलक वचनशुद्धिकी जीवन-व्यवहारमें प्रतिष्ठा हो। यह सम्भव ही नहीं है कि एक ही वस्तुके विषयमें परस्पर-विरोधी मतवाद चलते रहें, अपने पक्ष के समर्थनके लिए उचित-अनुचित शास्त्रार्थ होते रहें, पक्ष-प्रतिपक्षोंका संगठन हो, शास्त्रार्थमें हारनेवालेको तलकी जलती कड़ाहीमें जीवित तल देने-जैसी हिंसक होड़ें भी लगें, फिर भी परस्पर अहिंसा बनी रहे। भगवान महावीर एक परम अहिंसक सन्त थे। उनने देखा कि आजका सारा राजकारण धर्म और मतवादियोंके हाथमें है । जब तक इन मतवादोंका वस्तु-स्थितिके आधारसे समन्वय न होगा तब तक हिंसा की जड़ नहीं कट सकती। उनने विश्वके तत्त्वोंका साक्षात्कार किया और बताया कि विश्वका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनन्त धर्मोंका भण्डार है। उसके विराट् स्वरूपको साधारण मानव परिपूर्णरूपमें नहीं जान सकता । उसका क्षुद्र ज्ञान वस्तुके एक-एक अंशको जानकर अपनेमें पूर्णताका दुरभिमान कर बैठा है। विवाद वस्तुमें नहीं है। विवाद तो देखनेवालोंकी दृष्टिमें है। काश, ये वस्तुके विराट् अनन्त-धर्मात्मक या अनेकात्मक स्वरूपकी झाँकी पा सकें । उनने इस अनेकान्तात्मक तत्त्वज्ञानकी ओर मतवादियों का ध्यान खींचा और बताया कि-देखो, प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण पर्याय और धर्मोंका अखण्ड पिण्ड है। यह अपनी अनाद्यनन्त सन्तान-स्थितिकी दृष्टिसे नित्य है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्वके रंगमञ्चसे एक कणका भी समूल विनाश हो जाय । साथ ही प्रतिक्षण उसकी पर्याएँ बदल रही हैं, उसके गुण-धर्मों में भी सदृश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है, अतः वह अनित्य भी है। इसी तरह अनन्तगुण, शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तुकी निजी सम्पत्ति हैं। इनमें से हमारा स्वल्प ज्ञानलव एक-एक अंशको विषय करके क्षुद्र मतवादोंकी सृष्टि कर रहा है। आत्माको नित्य सिद्ध करनेवालोंका पक्ष अपनी सारी शक्ति आत्माको अनित्य सिद्ध करनेवालोंकी उखाड़-पछाड़में लगा रहा है तो अनित्यवादियोंका गुट नित्यवादियोंको भला-बुरा कह रहा है। महावीरको इन मतवादियोंकी बुद्धि और प्रवृत्तिपर तरस आता था। वे बुद्धकी तरह आत्म-नित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदिको अव्याकृत ( अकथनीय ) कहकर बौद्धिक तमकी सृष्टि नहीं करना चाहते थे । उनने इन सभी तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्योंको प्रकाशमें लाकर उन्हें मानस समताकी समभूमि पर ला दिया। उनने बताया कि वस्तुको तुम जिस दृष्टिकोणसे देख रहे हो वस्तु उतनी ही नहीं है, उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखे जानेकी क्षमता है, उसका विराट स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है । तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालम होता है उसका ईमानदारीसे विचार करो, वह भी वस्तुमें विद्यमान है। चित्तसे पक्षपातकी दुरभिसन्धि निकालो और दूसरेके दृष्टिकोणको भी उतनी ही प्रामाणिकतासे वस्तुमें खोजो, वह वहीं लहरा रहा है । हाँ, वस्तुकी सीमा और मर्यादाका उल्लंघन नहीं होना चाहिए । तुम चाहो कि जड़में चेतनत्व खोजा जाय या चेतनमें जड़त्व, तो नहीं मिल सकता । क्योंकि प्रत्येक पदार्थके अपने-अपने निजी धर्म निश्चित हैं । मैं प्रत्येक वस्तुको अनन्त धर्मात्मक कह रहा हूँ, सर्वधर्मात्मक नहीं। अनन्त धर्मों में चेतनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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