Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ ८८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवादमें क्या अन्तर है? सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की तरह खरीखरी बात कह देता है और बुद्ध बड़े आदमियोंकी शालीनताका निर्वाह करते हैं। बुद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वातावरणमें आत्मा लोक परलोक और मुक्तिके स्वरूपके सम्बन्धमें-'है ( सत् ), नहीं ( असत् ), है-नहीं (सदसत् उभय), न है न नहीं है (अवक्तव्य या अनुभय)।' ये चार कोटियाँ गंज रही थीं। कोई भी प्राश्निक किसी भी तीर्थङ्कर या आचार्यसे बिना किसी संकोचके अपने प्रश्नको एक साँसमें ही उक्त चार कोटियोंमें विभाजित करके ही पूछता था। जिस प्रकार आज कोई भी प्रश्न मजदूर और पूंजीपति शोषक और शोष्यके द्वन्द्वकी छायामें ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समय आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभय-अनिर्वचनीय इस चतुष्कोटिमें आवेष्टित रहते थे। उपनिषद् या ऋग्वेदमें इस चतुष्कोटिके दर्शन होते हैं। विश्वके स्वरूपके सम्बन्धमें असत्से सत् हुआ ? या सत्से सत् हुआ? या सदसत् दोनों रूपसे अनिर्वचनीय है ? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् और वेदमें बराबर उपलब्ध होते है ? ऐसी दशामें राहुलजीका स्याद्वादके विषयमें यह फतवा दे देना कि संजयके प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भङ्गीको तोड़मरोड़कर सप्तभङ्गी बनी-कहाँ तक उचित है, यह वे स्वयं विचारें । बुद्धके समकालीन जो छह तीथिक थे उनमें महावीर निग्गण्ठ नाथपुत्रकी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शीके रूपमें प्रसिद्धि थी। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे या नहीं यह इस समयकी चरचाका विष पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक थे और किसी भी प्रश्नको संजयकी तरह अनिश्चय कोटि या विक्षेप' कोटिमें या बुद्ध की तरह अव्याकृत कोटिमें डालनेवाले नहीं थे और न शिष्योंकी सहज जिज्ञासाको अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमें डुबा देना चाहते थे। उनका विश्वास था कि संघके पँचमेल व्यक्ति जब तक वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते तब तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसबल नहीं आ सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य संघके भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण हतप्रभ रहेंगे और इसका असर उसके जीवन और आचारपर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्योंको पर्देबन्द पद्मनियोंकी तरह जगत्के स्वरूप-विचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना चाहते थे, किन्तु चाहते थे कि प्रत्येक प्राणी अपनी सहज जिज्ञासा और मननशक्तिका वस्तुके यथार्थ स्वरूपके विचारकी ओर लगावे । न उन्हें बुद्धकी तरह यह भय व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धमें 'है' कहते हैं तो शाश्वतवाद अर्थात् उपनिषद्वादियोंकी तरह लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायेंगे और नहीं कहनेसे उच्छेदवाद अर्थात् चार्वाककी तरह नास्तित्वका प्रसंग प्राप्त होगा । अतः इस प्रश्नको अव्याकृत रखना ही श्रेष्ठ है । वे चाहते थे कि मौजूद तर्कोका और संशयोंका समाधान वस्तुस्थितिके आधारसे होना ही चाहिये । अतः उन्होंने वस्तुस्वरूपका अनुभवकर यह बताया कि जगत्का प्रत्येक सत् चाहे वह चेतनजातीय हो या अचेतनजातीय, परिवर्तनशील है। वह निसर्गतः प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है, उसकी पर्याय बदलती रहती है, उसका परिणमन कभी सदृश भी होता है, कभी विसदृश भी । पर परिणमनसामान्यके प्रभावसे कोई भी अछूता नहीं रहता। यह एक मौलिक नियम है कि किसी भी सत्का विश्वसे सर्वथा उच्छेद नहीं हो सकता, यह परिवर्तित होकर भी अपनी मौलिकता या सत्ताको नहीं खो सकता। एक परमाणु है वह हाइड्रोजन बन जाय, जल बन जाय, भाप बन जाय, फिर पानी हो जाय, पथिवी बन जाय, और अनन्त आकृतियाँ या पर्यायोंको धारण कर ले, पर अपने द्रव्यत्व या मौलिकत्वको नहीं खो सकता। किसीकी ताकत नहीं जो उस परमाणुकी हस्ती या अस्तित्वको मिटा सके। तात्पर्य यह कि जगत्में जितने 'सत्' है उतने बने रहेंगे । उनमेंसे एक भी कम नहीं हो सकता, एक-दूसरे में विलीन नहीं १. प्रो० धर्मानन्द कोसाम्बीने संजयके वादको विक्षेपवाद संज्ञा दी है । देखो-भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52