Book Title: Nyayavinischay aur uska Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 14
________________ ६ - ' स्याद् नास्ति ' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है । ७- ' स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं 'स्यादस्ति च नास्ति च' अ-वक्तव्य है । ४ / विशिष्ट निबन्ध : ८७ दोनों के मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोंने संजयके पहिलेवाले तीन वाक्यों ( प्रश्न और उत्तर दोनों ) को अलग करके अपने स्याद्वादकी छह भंगियाँ बनाई हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है' को जोड़कर 'स्याद्' भी अवक्तव्य है, यह सातवाँ भंग तैयारकर अपनी सप्तभंगी पूरी की । ..... इस प्रकार एक भी सिद्धान्त = वाद ) की स्थापना न करना जो कि संजयका वाद था, उसीको संजयके अनुयायियों के लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया और उसको चतुभंगी न्यायको सप्तभंगी में परिणत कर दिया । " राहुलजी ने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और स्याद्वाद के नये मतकी सृष्टि की है । यह तो ऐसा हो है जैसे कि चोरसे वह कहे कि मैं नहीं कह सकता कि गया था" और जज जगह गया था । तब शब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जजका फैसला चोरके बयान से निकला है । स्वरूपको न समझकर केवल शब्दसाम्यसे एक "क्या तुम अमुक जगह गये थे ? यह पूछने पर अन्य प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दे कि चोर अमुक संजयवेलट्ठिपुत्त के दर्शनका विवेचन स्वयं राहुलजीने ( पृ० ४९१ ) इन शब्दों में किया है - "यदि आप पूछें— 'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है । मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है । परलोक नहीं है । परलोक नहीं नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी है । परलोक न है और न नहीं है ।" संजयके परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तिके सम्बन्धके ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवादके हैं । वह स्पष्ट कहता है कि--"यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ ।” संजयको परलोक मुक्ति आदिके स्वरूपका कुछ भी निश्चय नहीं था इसलिए उसका दर्शन वकौल राहुलजीके मानवकी सहजबुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर भ्रान्त धारणाओंकी पुष्टि ही करना चाहता है । तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादी था । Jain Education International बुद्ध और संजय - बुद्धने "लोक नित्य है', अनित्य है, नित्य-अनित्य है, न नित्य, न अनित्य है; लोक अन्तवान् है', नहीं है, है - नहीं है, न है न नहीं है; निर्वाणके बाद तथागत होते हैं', नहीं होते, होते नहीं होते, न होते न नहीं होते; जीव शरीरसे भिन्न है', जीव शरीरसे भिन्न नहीं है ।" ( माध्यमिक वृत्ति पृ० ४४६ ) इन चौदह वस्तुओंको अव्याकृत कहा है । मज्झिमनिकाय ( २।२।३ ) में इनकी संख्या दश है । इसमें आदिके दो प्रश्नोंमें तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया है । इनके अव्याकृत होनेका कारण बुद्धने बताया है कि इनके बारेमें कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्या के लिये उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद निरोध शान्ति या परमज्ञान निर्वाणके लिये आवश्यक है । तात्पर्य यह कि बुद्धकी दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिए आवश्यक नहीं था । दूसरे शब्दों में बुद्ध भी संजयकी तरह, इनके बारेमें कुछ कहकर मानवकी सहज बुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त धारणाओं को पुष्ट ही करना चाहते थे । हाँ, संजय जब अपनी अज्ञानता या अनिश्चयको साफ-साफ शब्दों में कह देता है कि यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, तब बुद्ध अपने जानने-न जाननेका उल्लेख न करके उस रहस्यको शिष्योंके लिए अनुपयोगी बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं । किसी भी तार्किकका यह प्रश्न अभी तक असमाहित ही रह जाता है कि इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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