Book Title: Niyamsara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 20
________________ 3. णियमेण य जंकज्जं तं णियमं णाणदंसणचरितं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥ णियमेण कज्जं णियमं णाणदंसणचरित्तं (णियमेण) 3/1 आवश्यक रूप से तृतीयार्थक अव्यय अव्यय पादपूरक (ज) 1/1 सवि (कज्ज) विधिकृ 1/1 अनि । पालन किया जाना चाहिए (त) 1/1 सवि वह (णियम) 1/1 णियम [(णाण)-(दसण) सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान (चरित्त) 1/1] और सम्यक्चारित्र [(विवरीय) विपरीत भाव को (परि) अ (निरर्थक प्रयोग)- हटानेवाला होने के (हरत्थं) अ] कारण (भण) भूकृ 1/1 कहा गया अव्यय पादपूरक [(सारं)+ (इदि)] सारं (सार) 1/1 वि पूर्णरूप से सिद्ध इदि (अ) = क्योंकि क्योंकि (वयण) 1/1 वचन विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं अन्वय- जंणियमं णियमेण य कज्जंतं णाणदंसणचरित्तं भणिदं खलु विवरीयपरिहरत्थं सारमिदि वयणं । अर्थ- जो नियम आवश्यक रूप से पालन किया जाना चाहिए वह सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहा गया (है), क्योंकि (वह नियम) विपरीत भाव (मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र) को हटानेवाला होने के कारण पूर्णरूप से सिद्ध वचन (है)। 1. 'पाइय-सद्द-महण्णवो' कोश नियमसार (खण्ड-1) (13)

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