Book Title: Niyamsara
Author(s): Kundkundacharya, Himmatlal Jethalal Shah
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 12
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके रचे हुए अनेक शास्त्र हैं, जिनमेंसे कुछ वर्तमानमें विद्यमान हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवके मुखसे प्रवाहित श्रुतामृतकी सरितामेंसे भरे हुए वे अमृतभाजन आज भी अनेक आत्मार्थियोंको आत्मजीवन प्रदान करते हैं। उनके पंचास्तिकायसंगह, प्रवचनसार, समयसार और नियमसार नामक उत्तमोत्तम परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रन्थोंके बीज इन परमागमोंमें विद्यमान हैं ऐसा सूक्ष्म दृष्टिसे अध्ययन करने पर ज्ञात होता है। श्री पंचास्तिकायसंगहमें छह द्रव्य और नव तत्त्वोंके स्वरूपका कथन संक्षेपमें किया गया है। श्री प्रवचनसारमें उसके नामके अनुसार जिनप्रवचनका सार संग्रहीत है और उसे ज्ञानतत्त्व, ज्ञेयतत्त्व तथा चरणानुयोगके तीन अधिकारों में विभाजित किया है। श्री समयसार इस भरतक्षेत्रका सर्वोत्कृष्ट परमागम है। उसमें नवतत्त्वोंका शुद्धनयकी दृष्टिसे निरूपण करके जीवका शुद्ध स्वरूप सर्व ओरसे---आगम, युक्ति, अनुभव एवं परम्परासे---अति विस्तारपूर्वक समझाया है। श्री नियमसारमें मोक्षमार्गका स्पष्ट सत्यार्थ निरूपण है। जिसपकार समयसारमें शुद्धनयसे नवतत्त्वोंका निरूपण किया है, उसीपकार नियमसारमें मुख्यतः शुद्धनयसे जीव, अजीव, शुद्धभाव, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, समाधि, भक्ति, आवश्यक, शुद्धोपयोग आदिका वर्णन है। श्री नियमसार भरतक्षेत्रके उत्तमोत्तम शास्त्रोंमेंसे एक होने पर भी प्राभृतत्रयकी तुलनामें उसकी प्रसिद्धि अत्यन्त अल्प है। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने वि०सम्वत् १९७२में हिन्दी नियमसारकी भूमिकामें ठीक ही लिखा है कि ---"आज तक श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार---यह तीन रत्न ही अधिक प्रसिद्ध हैं। खेदकी बात है कि उन्हीं जैसा बल्कि कई अंशोंमें उनसे भी विशेष जो नियमसाररत्न है, उसकी प्रसिद्धि इतनी अल्प है कि कोई कोई तो उसका नाम भी नहीं जानते।” यह नियमसार परमागम मुख्यत: मोक्षमार्गके निरुपचार निरूपणका अनुपम ग्रन्थ है। 'नियम' अर्थात् जो अवश्य करने योग्य हो, अर्थात् रत्नत्रय। 'नियमसार' अर्थात् नियमका सार अर्थात् शुद्ध रत्नत्रय। उस शुद्ध रत्नत्रयकी प्राप्ति परमात्मतत्त्वके आश्रयसे ही होती है। निगोदसे लेकर सिद्धि तककी सर्व अवस्थाओंमें---अशुभ, शुभ या शुद्ध विशेषोंमें--- विद्यमान जो नित्यनिरंजन टंकोत्कीर्ण शाश्वत एकरूप शुद्धदव्यसामान्य वह परमात्मतत्त्व है वही शुद्ध अन्तःतत्त्व , कारण-परमात्मा, परम-पारिणामिकभाव आदि नामोंसे कहा जाता है। इस परमात्मतत्त्वकी उपलब्धि अनादि कालसे अनन्तानन्त दःखों का अनभव करनेवाले जीवों ने एक क्षणमात्र भी नहीं की और इसलिये सख प्राप्तिके उसके सर्व हापटें---प्रयत्न (द्रव्यलिंगी मुनिके व्यवहार-रत्नत्रय सहित) सर्वथा व्यर्थ गये हैं। इसलिये इस परमागम का एकमात्र उद्देश्य जीवोंको परमात्मतत्त्वकी उपलब्धि अथवा आश्रय करवाना है। शास्त्रकार आचार्यभगवानने और टीकाकार मुनिवरने इस परमागमके प्रत्येक पृष्ठमें जो अनुभवसिद्ध परम सत्य कहा है उसका सार इसप्रकार है :--- हे जगत्के जीवों! तुम्हारे सुखका एकमात्र * शिलालेखोंके नमूनेके लिये देखिये पृष्ठ-२१ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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