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पाठक श्री श्रीवल्लभ विरचित
विजयदेव माहात्म्य
विजयदेव से मतलव तपामच्छ की मुख्य शाखा के प्राचार्य श्री हीरसूरिजी के पट्टधर आचार्य श्री विजयसेन सूरि के पट्ट प्रतिष्ठित प्राचार्य श्री विजयदेव सूरिजी से है। प्राचार्य विजयदेव सूरिजी के समय में उपाध्याय श्री धर्मसागरजी की परम्परा के कतिपय साधु धर्मसागर-रजित “सर्वज्ञ-शतक' आदि ग्रन्थ जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सिद्धान्तों से विरोधी बातों के लिखने के कारण प्राचार्य श्री विजयदान सूरिजी तथा विजयहीर सूरिजी ने लेखक को “गच्छ बाहर" कर दिया था, परन्तु कुछ सनम के बाद धर्मसागरजी ने उन शास्त्र.विरुद्ध बातों का संशोधन किये बिना इन ग्रन्थों का प्रचार नहीं करने की प्रतिज्ञा करने और जो प्ररूपणा की उसके बदले में "मिथ्यादुष्कृत" कर देने पर फिर उन्हें गच्छ में ले लिया गया था। परन्तु सागरजी अपने वचनों पर दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं रहे और उन ग्रन्थों का गुप्त रीति से प्रचार करते रहे, परिणामस्वरूप उन्हें फिर भी गच्छ बाहर की शिक्षा हुई। हीरसूरिजी महाराज स्वर्गवासी हो चुके थे और तत्कालीन गच्छपति श्री विजयसेन सूरिजी भी वृद्धावस्था को पहुंचे हुए थे। उन्होंने अपने पट्टधर के रूप में विक्रम सं० १६५६ में उपाध्याय विद्याविजयजी को आचार्य पद देकर अपना उत्तराधिकारी निश्चित किया और "विजयदेव सूरिजी" के नाम से उद्घोषित किया। इसके दो वर्ष के बाद ही उन्हें "गच्छानुज्ञा" भी कर दी।
कहा जाता हैं कि उपाध्यायजी धर्मसागरजी विजयदेव सूरिजी के सांसारिक मामा लगते थे। इस सम्बन्ध से उपाध्याय धर्मसागरजी को
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