________________
निबन्ध-मिचय
: २४७
रूप द्विविध संघ को संघटित करना चाहिए और श्रमणधर्म के विरुद्ध जो-जो आचार-विचार प्रवृत्तियां उनमें घुस गई हैं उनका परिमार्जन करना चाहिए। इसी प्रकार श्रावक-श्राविकात्मक द्विविध संघ को भी गच्छ-मतों की बाड़ा-बन्दियों से मुक्त होकर जैन-संघ के एक अंग रूप से अपना संघटन करना चाहिए। इस प्रकार संघ के दो विभाग अपने-अपने कर्त्तव्य की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे और गृहस्थवर्ग साधुओं के कार्य में हस्तक्षेप न करते हुए अपने कार्यों को बजाते हुए जैन-शासन-संस्था की उन्नति कर सकेंगे, इसमें कोई शक नहीं है ! तथास्तु ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org