Book Title: Nibandh Nichay
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 331
________________ ३१४ : निबन्ध-निचय जिनसेन और दादागुरु वीरसेन को सेनान्वयी कहा है। पर जिनसेन और वीरसेन ने "जयधवला” और “धवला टीका में" अपने वंश को पंचस्तूपान्वय लिखा है। यह “पंचस्तूपान्वय" ईसा की पांचवीं शताब्दी में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के साधुओं का एक संघ था। यह बात पहाड़पुर (जिला राजशाही, बंगाल) से प्राप्त एक लेख से मालूम होती है। पंचस्तूपान्वय का सेनान्वय के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख गुरणभन्द्र ने अपने गुरुओं के सेनान्त नामों को देखते हुए किया है। इससे हम कह सकते हैं, गुणभद्र के गुरु जिनसेनाचार्य इस गण के आदि प्राचार्य थे।" उपर्युक्त विवेचन से यह निश्चित होता है कि 'सेन-गण' और 'सेनान्त' नामों का जन्म विक्रम की १०वीं शती में हना था। इस दशा में हरिवंशपुराणकार जिनसेन की गुरु-परम्परा-नामावली पर कहां तक विश्वास किया जाय इस बात का निर्णय पाठकगण स्वयं कर सकते हैं। . श्वेताम्बर परम्परा में गणधर सुधर्मा से देवद्धिगणि पर्यन्त २७ श्रुतधरों में १८० वर्ष पूरे होते हैं, परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय इन्द्रभूति से लोहाचार्य पर्यन्त के २८ पुरुषों में ६८३ वर्ष व्यतीत करता है और इसमें ३ केवलियों के ६५, ५ चतुर्दशं पूर्वधरों के १००, ११ दश पूर्वधरों के १८३, ५ एकादशांगधरों के २२०, ४ आचारांगधरों के ११८ सव मिलाकर ६८३ वर्ष पूरे किये जाते हैं। यह कालगणना स्फुट और निःसन्देह नहीं है। दिगम्बरीय मान्यतानुसार इन्द्रभूति गौतम भी के वलियों में परिगणित हैं। श्वेताम्बरों की मान्यतानुसार गौतम को और इनके ८ वर्ष केवलिपर्याय के हटा देने पर शेष नाम २७ और सत्ता-समय के वर्ष ६७५ रहते हैं जो कम ज्ञात होते हैं। गुरु-शिष्य क्रम से गिनने से ६-७ नाम बढ़ते हैं, मुकाबिले में वर्ष घटते हैं । पर अनुयोगधरों के क्रम से वर्षों का घटना गणना की अनिश्चितता का सूचक है। गुरु-शिष्य के क्रमानुसार देवद्धि ३४वें पुरुष थे, पर अनुयोगधर क्रम से २७वें पुरुष और समय दोनों क्रमों में वही है ६८० वर्ष परिमित । इस हिसाब से दिगम्बरीय गणना के आधार से २८. युगप्रधानों का समय ६८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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