________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
૪૨૪
સમયસાર નાટક मानसिंघ चिंतन क्यिो, क्यौं पावे यह ग्रंथ। गोविंदसौं इतनी कहीं, सरस सरस यह ग्रंथ।।५।। तब गोविंद हरषित भयौ, मन विच धर उल्लास। कलसा टीका अरु कवित, जे जेते तिहिं पास।।६।।
(यो ) जो पंडित जन बांचौ सोइ।
अधिकौ उचो चौकस 'जोइ।। आगे पीछे अधिकौ ओछौ।
देखि विचार सुगुरुसौं पूछौ।।७।। अलप मती है मति मेरी।
मनमें धरहं चाह घनेरी।। ज्यौं निज भुजा समुद्रहि तरनौ।
है अनादि * * *
१ देखकर।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com