Book Title: Natak Samaysara
Author(s): Banarasidas
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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પઘોની વર્ણાનુક્રમણિકા
४७
४१४ २८२
४०४
४१३
३५२
३६०
८५ ३४८ १६३
પધ
પૃષ્ઠ | પધ उदात अस्त होत दिन दिन |१८९ | वस्तु स्वरुप लखै नही राग विरोध उदै जबलौं तबलौं २७४ | वह कुबिजा वह राधिका राग विरोध विमोह मल
११४ | वानी जहां निरच्छरी | राणाकौसौ बाना लीनै आपा साधै | २१५ । वानी लीन भयौ जग डोलै | राम-रसिक अर राम-रस
२३२ | विनसि अनादि असुद्धता रूपकी न झांक हीयें करमको १९१ | विभाव सकति परनतिसौं विकल रूपकी रसीली भ्रम कुलफकी
२८१ | विवहार-दृष्टिसौं विलोकत रूपचंद पंडित प्रथम
४१८ | विसम भाव जामैं नहीं | रूप-रसवंत मूरतीक एक पुद्गल ६१ | वेदनवारौ जीव रेतकीसी गढी किधौं मढी है
१९८
श | रे रुचिवंत पचारि कहै गुरु
२०४ | शिष्य कहै प्रभु तुम कह्यौ
शिष्य कहै स्वामी जीव | लक्ष्मी सुबुद्धि अनुभूति कउस्तुभ ३४८ शुद्धनय निहचै अकेलौ आपु | लज्जावंत दयावंत प्रसंत
३८३ | शोभित निज अनुभूति जुत लहिये और न ग्रंथ उदधिका ४०९ । श्रवन कीरतन चितवन लियें द्रिढ पेच फिरै लोटन लीन भयौ विवहारमैं
| १४४ | षट प्रतिमा ताई जघन लोकनिसौं कछ नातौ न तेरौ ३३९ षट् सातै आठं नवें लोक हास भय भोग रूचि |३७८
स लोकालोक मान एक सत्ता है २२५ | सकल-करम-खल-दलन
सकल वस्तु जगमैं असहाई वचन प्रवांन करैं सुकवि
४१६ | तरंज खेलै राधिका | वरतै ग्रंथ जगत हित काजा ३०९ | सत्तर लाख किरोर मित वरनादिक पुदगल-दसा
५९ | सत्त्यप्रतीति अवस्था जाकी वरनादिक रागादि यह
| ५८ | सदगुरु कहै भव्यजीवनिसौं वरनी संवरकी दसा
| सदा करमसौं भिन्न वस्तु विचारत ध्यावतें
| १३ | सबदमांहि सतगुरु कहै
| २५३
३१४ ३० | २५
२१७
१९१
३९० ४०१
२६९ २८४ ३९१ ३७५ ३४ १९३ ३४१
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