Book Title: Mahavira Smruti Granth Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain, Others
Publisher: Mahavir Jain Society Agra

View full book text
Previous | Next

Page 191
________________ प्रो० रामसिहजी तोमर । १७९ धर्मकी असंगति बताते हुए जयू सिरिसुराकी निरुपमेयता प्रतिपादित करते हैं। इस प्रकार जंबूकी इदता देख कर प्रभव उनफा शिष्य होना चाहता है और मोक्षमार्ग देखनेकी आकुलता प्रकट करता है। मातःकाल होतेही जर पूर्वनिषयके अनुसार अलकृत होकर प्रवज्याके लिए चल पडते है और सुधर्मस्वामी के समीप जाकर प्रार्थना करते हैं :--'भयव । नित्याहिँ म सह सयण' (भगवन् ! स्वजनसहित मेरा निस्तार करो।) और वे विधिपूर्वक दीक्षा लेते हैं। उनकी पलियाँ और माता सुत्रताके समीप शिष्या हो जाती हैं। प्रभवभी राजाको आशा पाकर जबूका शिष्य हो जाता है । राणिकराजके प्रश्न करने पर सुधर्मत्वामी जयूके पूर्वभवोंकी कथा कहते हैं। आज जनपद में सुनाम ग्राममें आर्यव नाम राष्ट्रक्ट अपनी पत्नी रेवतीके साथ रहता था। भवदत्त और भवदेव दो पुत्र पे । भवदत्तने युवावस्यामही दीक्षा लेली थी। बहुत दिन पश्चात् भवदत्त साधुओं सहित अपने प्रामके समीप से निकला और गुरुकी आजा लेकर वह अपने भाईको देखने गया। मषदेवका विवाह हो रहा था, माईसे मिलने के लिए वह विवाह छोड़ कर चला आया। भवदत्त उसे अपने गुरुके पास लेगया और संकोचवश बढे भाईके वचनोंके अनुसार भवदेवने दीक्षा लेली। भवदत्त तो ब्रह्मचादि नतों का पालन करता आ बहुत काल पश्चात् अनगन करके समाधिको प्राप्त हुआ और के समान देव हमा। भवदेव अपनी पत्नीको भूल न सका । अतः स्थविरोंको विना पूछे अपने ग्राम सुनामकी और पत्नी के दर्शन करने पहुँचा । ग्रामकी सीमा पर एक मदिरमें एक साध्वी स्त्रीको आक्षणीक साप पूनाके लिए आते देख फर वहाँ वह विधामके लिए बैठ गया। श्राविकासे उसने अपने पिता आर्यव और मावा खेतीके विषयमें पूछा । श्राविकाने उत्तर दिया 'सेसि बहू कालो कालगयाणं ।' उनको बहुत काल हो गया ! उदास होकर भवदेवने फिर पूछा- 'मवदेवस्स बहू नाइला जीवइ ?' अर्थात भवदेवकी वधू नागिल जीती है ? श्राविकाने उलुक होकर प्रश्न किया कि वह भवढेवको कैसे जानता है और वहाँ क्यों आया है ? भवदेवने अपना परिचय तथा आनेका विचार कहा । प्राविकानेमी अपना परिचय दिया कि वह मवदेवकी स्त्री नागिल है, बहुत समय तक मवदेवको न आता देख कर वह साध्वी होगई थी। विपर्योकी निस्सारता बताते हुए भवदेवको नागिलने समझाया । उसे प्रतिबोध हुआ और स्वजनोंका मोह छोड कर तपस्या करने लगा। कालावरमें वह देह छोड कर इन्द्रके समान तेजवान देवपदको प्राप्त हुआ। दूसरे जन्ममें भवदत्तका जन्म पुरोकिणी नगरीम राजकुलमें हुआ और सागरदत्त नाम रखा गया। भवदेवका जन्म वीतशोका नगरीके राजाके यहाँ हुमा, नाम शिवकुमार रखा गया। सागरदत्त विरक्त होने के पश्चात् एक बार वीतशोका नगरी आया और शिवकुमारसे वहाँ भेट हुई। शिवकुमारको पूर्वजन्मोका स्मरण हो आया और उसने दीक्षा लेनेका निश्चय किया। राजाकी इच्छानुसार वह तप धर्मका पालन करता हुआ रहने लगा और इस प्रकार बारह वर्ष तपस्या की उसके पश्चात् वह इन्द्र के समान देव होकर ब्रह्मलोक कल्पको गया और अगले जन्ममें वही जबूकुमार हुआ। वसुदेव हिण्डिमें वर्णित चवू चरित्रका यही वक्षिप्त रूप है । बीचबीचमें अनेक रोचक कथाएँ भी दी गई हैं, इतिवृत्तात्मक प्रधान इस अशमैं कविकल्पनाका प्रयोग कम मिलता है। कथा कहने

Loading...

Page Navigation
1 ... 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363