Book Title: Mahavira Smruti Granth Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain, Others
Publisher: Mahavir Jain Society Agra

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Page 312
________________ २८८ भ० महावीर स्मृति ग्रंथ। . अपनेको मानिए! सचमुच अकिंचन ही मानिए। अपनी बहिन सुता, परिणीता माता पिता, जैसी हैं वैसी ही अन्य की! ब्रह्मचारी व्यक्तिको जगतीके दुस्तर कार्य होते सरल है! ये है अहिंसाका सत्य मम ! येही है धर्म-कर्म! यही है विश्व प्रेम। विश्वका प्रत्येक जन अपनाही बन्धु है! ऐसे सज्ञानले ऐसे श्रद्धानसे ऐसे चरित्रसे - सचमुच मनुष्य वन सकता है स्वयं ही-सत्य शिवसुन्दरमय । ऐसे प्रचार द्वारा भगवान वीरने लोक कल्याण किया! दुखित पतित प्राणियोंका त्राण किया! अन्धकारका विनाश ज्ञानका प्रकाश किया! इस लिए वीरवर हो गए बर्द्धमान ! किया सद् संस्कृतिका निर्मान ! दूर किया क्रन्दन को। दूर किया बन्धनको। युग निर्मायक वह विश्व वंद्य महावीर अतिवीर! लोक पूज्य युगपुरुष जनताके हृदयम महिंसाकी अमिट छाप डाल गए। लोक सम्पति वह, . • लोक आदर्श वह, 'विश्वको विभूति है !! 'विश्व शान्ति-पथ-दर्शक-सन्मति ।' ससार-शान्ति-दायक सुधांश पर,माज, हिंसा-राका-वस्तक प्रकाशकी शीतलाशु- छाया जगती पर दुख-फलह-राज, होती विकीर्ण, इस दुःख-कलहक ध्वंश हेतु, विमल वीर-विधुरी अजीर्ण, जग-शान्ति-सौख्य-साम्राज्य हेतु, करतीं प्रमुदित, भो ! विश्व-जनो, म्लान-प्राणि कुमुदिनी-कलिकावलिको लो, महावीर उपदेश-अमल जो, भपतिहरी रहीं, हिंसानरसे हो तापित! हो, शान्ति-मन, पा सुखट शान्ति परिमल! -चीरेन्द्रप्रसाद जैन। - -

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