Book Title: Mahavira Smruti Granth Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain, Others
Publisher: Mahavir Jain Society Agra

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Page 229
________________ Māgadhi, Ardhamāgadhi and Sanskrit By Dr. S. K. BELVALKAR, M. A., Ph. D., F. N. A. s., POONA. [श्रीमान् डॉ० पेलवल्कर सा० संस्कृत भाषाके सुप्रसिद्ध विद्वान हैं । इस लेखमें आपने भारतकी राधमापाके प्रश्न पर एक नया प्रकाश डाला है। भाप लिखते हैं कि यह प्रश्न भबसे बहुत पुराना है। भ० महावीरके समयमभी राष्ट्र के सामने यह प्रश्न उपस्थित था- भ० महावीरले वेदोंकी मूल भाषा सस्कृतको स्याग कर अद्धमागधी भाषाको अपने धर्म प्रचारका माध्यम बनाया था। उनके धर्माख्यानोंको मार्य भनार्य, समी मानव (और पशुमी) अपनी २ भाषामें समझ लेते थे। यौगिक चमत्कारकी बातको यदि छोड दिया जावे, तो मी यह सभव नहीं दिखता कि मा महाबीरले व्याख्यानोंको तरक्षण अन्य माषाओंमें अनूदित कर दिया जाता होगा ! डॉ. सा. का यह अनुमान लीक भाषता है, यद्यपि शास्त्रीय उल्लेख यहभी है कि मागधदेव अपनी विशेष विशानकला द्वारा भगवानकी मिरमरि वाणीको प्रत्येक जीषके लिये उसकी स्वभाषामें परिणत कर देता था, जिससे हर कोई उसे समक्ष लेता था। सभव है, आजकलके ध्वनिप्रसारक यंत्रोंकी तरह उस समय कोई विशेष यंत्र-माध्यम बना लिया गया हो जो एक भाषाका विस्तार भिन्न १ भाषाओंमें कर देता हो । किन्तु डॉ० सा० का सुझाव दृष्टव्य है । वह कहते हैं कि भ० महावीरने धर्मकी सीधीसादी बातें बताई जो शीघ्र हर किसी के मन चढ़ जाती थीं। इस लियेही अनकी वाणी 'सार्वप्रा ' मानी जाती थी । उसका ग्रहण " पैखरी " और " मध्यमा " रूपोमें न होकर केवल 'पश्यन्ती' रूपमें हुआ था, ऐसा मानना ठीक जचता है । वौद्ध भिक्षुलानेमी एक 'सार्वभाषा' का प्रश्न म. बुद्ध के सम्मुख उपस्थित किया था और कहा था कि 'सबाटभाषा' (संस्कृत) में पिटकप्रथ अदित किये जावे; किन्तु म० युद्धने उनकी यह बात स्वीकार नहीं की थी। इसपरसे डॉ० सा. का अनुमान है कि उससमय बोलचालको संस्कृतभाषा सारे भारतमें प्रचलित थी। सस्कृत भाषाके बहुप्रचारने जैनों और बौद्धोंकोमी संस्कृत अपनाने के लिये बाध्य किया। उनकी नई रचनायें व टीकार्य संस्कृतमें हैं। इस समय हिन्दोको राष्ट्रभाषा बनानेका बान्दोलन चल रहा है; पर डॉ. सा. वोलवालकी संस्कृत भाषाको सार्वभाषा होने के योग्य मानते है, क्योंकि अधिकांश जनताके हृदयमें उसके प्रति सम्मान है और बंगाली, मराठी, तामिली, तेलगू आदि प्रान्तीय लोगों के लिये वह सुवोध है । अंग्रेजी और उर्दूका प्रचार खूब हुआ, परंतु फिरमी वे पार्वभाषा नहीं हो पाई --शहरी नागरिकों तकही वे सीमित रहीं । संस्कृत भाषाको धारा प्रवाह बोलनेवालोंका सबमी अमाव नहीं है। अतः सस्कृत राष्ट्रभाषा होनेकी अधिकारिणी है। डॉ. सा. का यह अभिमत लाम्य भऔर ऐतिहासिक आधार लिये हुये है, फिरभी यह संशयारमक है कि संस्कृत भाषा हमारे देहात के निवासी प्रामीणोंके लिये सुरोध और बोलबालकी भाषा हो सकेगी। अशोको भारतके भिन्न १ भागामें धर्म लेख उस २ प्रान्सकी भाषामें खुदवाये थे- वे सब प्राकृत ' भाषाके भिन्न रूप हैं । अतः यह प्रश्न विचारणीय है।-का. प्र.] The problem of a common language in India that "the Aryans and NonAryans" would alike understand 1s by no means a modern problem. It was present in the days of Lord Mahavira who discarding Sanskrit, the autho २०७

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