Book Title: Mahavira Smruti Granth Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain, Others
Publisher: Mahavir Jain Society Agra

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Page 272
________________ २४८ भ० महावीर-स्मृति-प्रथा धरतीने धूप पोपडौसे, अभिनन्दन करनेकी वानी, अपलक, सस्मित, कुछ विस्मृतसा रह गया सागरोंका पानी, ऋतुपति धसन्सभी एक न सके, आही तो गए मृति रतिसे, पनियों पशनक होठों पर उँगली घर पूछ उठीं पतिसे 'किसके स्वागतको माज साज सज रही पुरातन प्रकृति वाम ! वे पर्द्धमान! वे मूर्तिमान् वरदान, उन्हें शत्-शत् प्रणाम ! घीणा, दुन्दुभी, मुदाकी सम्मिलित सरस्वतिके स्वरमें, शुभ चैत्र त्रयोदशक इस दिन निशलाके कोमलतम करमें, भगवान वीरने प्रथम वार निज नैन खोल करवट-सी ली, हिंसा नागिनि फुधार रही किस ओर, कि ज्यों माहट सी ली, तष देख न पाया था कोई, पहामि हुई थी क्षणिक श्याम ! वे वर्द्धमान ! वे मातवान् वरदान, उन्हें शत्-शत्-प्रणाम ! क्रमशः वयस्क फिर वीर हुए राजसी सुखोकी शैया पर, औ धीरे-धीरे पाँव रखा यौवनकी डगमग नैया पर, गत संस्कार वश किन्तु शीघ्र ही समझ गए वे यह नौका पल भरमी विश्वसनीय नहीं, यह अन्त कर चुकी कितनोंका निर्मला असंयमकी टूटी पतवार न देगी यहाँ काम ! चे वर्द्धमान् ! वे मूर्विवान वरदान, उन्हें शत्-शत्-प्रणाम ! आखिर वैभवको लात मार चल दिए चीर सन्यासी बन, साधना अनेकों वर्षों तक साधी फिर निर्जन-वासी बन, पुरजन परिवार-प्रीति बंधन, सब तोडे ज्यों सूखा तृणही, जीवनके मोग दिखे उनको जैसे मनुष्यताके मणही ज्यों माण देहको छोड चले जाते, त्यों वे भी राज-धाम! वे वर्द्धमान् ! वे मूर्तिवान वरदान, उन्हें शत्-शत्-प्रणाम ! अनवरत तपस्या कर फिर जब केवलज्ञान कर लिया,प्राह, हो गयी जवी की आत्मा तव जगके कण-कणमें सतन व्याप्त; विद्रोह पताका फहरा दी फिर उन बचके प्रासादों पर, । जिनकी नी थी सधी हुई संसति-जीवनकी साधों पर; जिनमें मानवको मानवता मूति थी अपना हृदय याम ! वे बद्धमान् ! वे मूर्तिमान वरदान, उन्हें शत्-शत्-भणाम ! सेकि प्रमजनके सम्मुख थमतीन लताओंकी छाती, झोंकासे होड न ले पाती स्नेह दीपकोंकी वाती, पैसेही उनकी वाणीके पावन, पर प्रबल महारॉसे, घायल हिसामी हार गई, वैसे बहु बु बु ज्वारों से ! इस उठा धराके अधरॉपर चर्को प्रातःका पुण्य-धाम ! हे वर्द्धमान् ! वे मूर्तिमान बरदान, उन्हें शादान-प्रणाम !

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