Book Title: Mahavira Smruti Granth Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain, Others
Publisher: Mahavir Jain Society Agra

View full book text
Previous | Next

Page 301
________________ श्री० प्रेमनारायणजी टंडन पुस्तकालयमें एकत्र बहुत कुछ साहित्यिक निधि विदेशियोंने नष्ट कर दी । जब वीर राजपूतोंके देश में स्थित उक्त पुस्तकालयकी यह दशा हुई तब उत्तरभारतके उन स्थानोंकी साहित्यिक सस्थाओंको पहुंचाई जानेवाली क्षतिका अनुमान सहनही किया जा सकता है जो आक्रमणकरियोंके मार्गमें पड़ते ये अथवा जहाँ वसकर उन्होंने हिंदुओंको हर तरहसे दवाया था। इन आक्रमणों के फलस्वरूप संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रश और हिंदी की असीम ग्रंथ राशि नष्ट हो गई। इस मानवीय आपत्तिसे ऐसे ही ग्रंथ बच सके जो उन निजी, धर्मस्थानिय, सार्वजनिक अथवा राजकीय पुस्तकाव्योंमें सुरक्षित थे जहाँ तक आक्रमणकारियोंकी पहुंच आसानीसे नहीं हो सकी। ___ बचे-बचाए गद्य (और पद्य ) प्रथो की खोज का कार्य और प्राकृत प्रोंका उपयोग बहुत समयसे हो रहा है. परतु इससे हिंदीके इतिहासकार सतुष्ट नहीं है। क्योंकि न अभी तक उसके झापार पर हिंदीके उत्पत्तिकाल पता लग सका है और न उसके प्रारमिक रूपका ही निश्चय हो सका है । इस प्रसममें अनुसंधान-कार्य-क्षेत्रके सबधमें एक निवेदन करना है। राजपूतानेको छोडकर उत्तरी भारतका समस्त प्रदेश दसवींस पदरहवी शताब्दी तक, जैसा ऊपर कहाना चुका है, युद्धक्षेत्र बना रहा जहाँ एकके बाद दूसरे नये आक्रमणकारोंने देशकी शाति भगकी, जनताको तलबारक घार उतारा, साहित्य और शिक्षा केंद्रोको नष्ट-भ्रष्ट किया और धर्मस्थानोंको खंडहर वना दिया ) अतएव मथुरा, वृदावन, इलाहावाद, बनारस जैसे हिंदू संस्कृतिके गढौंको छोडकर समी स्थानांकी साहित्यिक निधि बहुत कुछ नष्ट हो गई। इस आपत्तिसे वची बचाइ सामग्रीका रक्षण करने के लिए भक्तों आचार्यों और कवियोंने राजस्थानके इन हिंदू राजाओंका शरण ली जो मुगलकालमें ही नहीं, अंग्रेजी साम्राज्य स्थापित हो जानेके अतरभी अपनी सास्कृतिक और साहीत्येक स्वतंत्रताकी रक्षा करनेमें बहुत कुछ समर्थ हो सके। । परख हिंदीके हस्तलिखित अन्योका खोजकार्य इन सुरक्षित स्थानों में कम, उत्तरी भारतपशप कर युक्त प्रात-के उस प्रदेशमें अधिक हुआ जो हिंदी-साहित्यका जन्म होनेके खगमग २०० वर्ष तक अरक्षित, अशात और युद्धक्षेत्र रहा । यही कारण है कि जो कुछ सामग्री प्राप्त हुई है वह प्रायः सोलहवीं शताब्दीके बादकी है। इनके पूर्वकी चार-पाँच शताब्दियोंमें रचे गए अन्योंके लिए राजस्थानके व्यक्तिगत, सार्वजनिक और राजकीय, छोटे-बड़े सभी पुस्तकालयोकी खोन होनी चाहिए ! डाक्टर श्यामसुदरदासकामी, जो खोनकायके प्रथम नौ वर्षों तक निरीक्षक रहे थे, यही मतुर है कि यदि राजपूतानेमें प्राचीन हिंदी पुस्तकोंकी खोजका काम व्यवस्थित रूपसे किया जाय ची, समव है, बहुत-कुछ उपयोगी सामग्री प्राप्त हो। अब तक रजवाडोके हिंदू शासकोंकी रुचि अपने यहाँ सुरक्षित प्राचीन साहित्यिक निधिक उद्धारकी ओर महीं रही; परंतु स्वतंत्र भारतमें तो अपनी सनातन सास्कृतिक उन्नतिकी पुनरावृत्तिके लिए वे प्रयत्नशील होंगे, ऐसी आशा की जा सकती है। २३. पृष्ट-२५८, हिंदी भाषा और साहित्य'--श्यामसुन्दरदास । २४. पृष्ट-२७१, हिंदी भाषा और साहित्य-श्यामसुन्दरदास।

Loading...

Page Navigation
1 ... 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363