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मानव के
सुख का
अधिष्ठान अपरिग्रह
मी यशपाल जैन
किसी जमाने में एक सेठ रहता था। उसके पास अपार धन-सम्पत्ति थी । वह बड़े श्रानन्द का जीवन व्यतीत करता था । उसे किसी चीज की कमी नहीं थी ।
अकस्मात एक दिन उसके मस्तिष्क में एक कल्पना उभरी। उसने हिसाब लगाया कि उसके पास जो सम्पत्ति है, उससे उसका काम चल जायेगा, लेकिन उसके बच्चों के बच्चों का क्या होगा ?
' इस विचार के आते ही सेठ चिन्ता से व्याकुल उठा । उसके बच्चों के बच्चों की जिम्मेदारी प्राखिर उसी की तो है | यदि उनकी व्यवस्था उसने नहीं की तो वे कैसे अपना जीवन-यापन करेंगे ?
सेठ का सारा आनन्द काफूर हो गया । उसके मन में एक ही बात घुमड़ने लगी- हाय, मेरे बच्चों के बच्चों का क्या होगा ?
सेठ की चिन्ता की बात चारों ओर फैल गई ।" लोग उसके पास सहानुभूति प्रदर्शित करने आये, पर सेठ की चिन्ता दूर नहीं हुई, उसका बोझ इसका नहीं हुआ ।
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अचानक एक दिन एक आदमी प्राया । बोला, " सेठजी, आपने सुना? बस्ती में एक साधु आये हैं, उनके पास जो जाता है उसी की मनोकाममा पूरी कर देते हैं। आप उनके पास चले जाइये और अपनी इच्छा पूरी करलीजिये ।"
सेठजी उसकी बात सुनकर साधु के पास गये और उन्हें अपने मन की बात कह सुनाई। साधु मुस्कराये । बोले, "बस, इतनी-सी बात है । एक काम कर । तेरे पड़ोस में एक बुढ़िया अपनी झोंपड़ी में रहती है । कल सवेरे उसके पास जाकर एक सीधा दे जायगी ।"
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श्रा । तेरी इच्छा पूरी हो
सेठ की खुशी का ठिकाना न रहा । यह तो बड़ा सा सौदा था। थोड़ा-सा घाटा, दाल, नमक, घी, और बदले में बेहिसार धन की प्राप्ति ।
उसने साधु के चरण छुए मौर घर लौट या । वह रात काटनी उसके लिए मुश्किल हो गई । कब सवेरा हो कि वह जाकर बुढ़िया को सीधा दे और उसकी तिजोरियों का धन दुगुनाचौगुना हो जाय ।
जैसे ही पौ फटी कि सेठ ने एक थाली में ग्राटा, दाल, नमक, घी लिया और तेजी से बुढ़िया की कुटिया पर पहुंचा। देखता क्या है कि बुढ़िया की बहू सफाई कर रही है। सेठ ने उतावली से पूछा, "तुम्हरी सास कहां है ?
"
बहू ने सफाई करते करते सेठ की भोर देखा श्रौर कहा, "वह जाप कर रही हैं ।" सेठ ने कहा, "उनको जरा बुलायोगी ?"
"नही, जबतक जाप पूरा नहीं हो जायगा, वह नहीं पा सकतीं ।" बहू ने काम करते-करते कहा ।
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