Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1975
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 325
________________ 2-92 भरतसिद्ध पवयरण गुरु थेर बहुस्सुए तबस्सीसु । छल्लयाय तेसिं प्रभिक्ख नाणीव श्रोगोय ॥ 1 ॥ सरविणए प्रावस्सए य सीलब्बए निरइयारो । aruलव सवचियाए वेयावच्चे समाही य 1211 प्रपुव्व नारणगहणे सुयमत्ति पवयणे पहावरणया । एएहि कारणेहि तित्थयरत लहइ सो उ ॥ ३ ॥ 2 श्राचार्य हरिभद्र ने तत्वार्थ सूत्र के इति शब्द से उक्त चार भावनायें निकाली हैं इति शब्दः प्राद्यर्थः विशतेः कारणानां सूत्रकारेण किंचित् सूत्रे किचिद्भास्ये किंचिदादि ग्रहणात् सिद्धपूज क्षरणलवध्यानभावभाव्यं प्रनुप तमुपयुज्य च वक्त्रा व्याख्येवम् 3 •बौद्ध साहित्य में महापुरुषों के प्रायः 32 लक्षण बताये गये हैं पर गण्डव्यूह में 28 दिये गये हैं । बिन प्रत्यों में ये लक्षण मिलते हैं वे ये हैं-दोघ निकाय (प्र. 3. 4. 112 ), ललितविस्तर ( 105. 11) महाव्युत्पत्ति (283 FF). धर्मसंग्रह ( 83 ): गण्डव्यूह (399-20), बोधिसत्व भूमि ( 375.9), महावस्तु ( 1.226.16), श्रभिसमयालंकारालोक (4.526 ), रत्नगोत्र विभाग महाव्यानोत्तरलका शास्त्र ( भाग 26, पृ. 94.95), अभिधर्मदीपविभाषाप्रभावृत्ति सहित (पृ. 187 ), अर्थ विनिश्चय सूत्र और उसकी टीका सर्वमान्य 32 लक्षण ये हैं- (1) सुपतिहितपादता, (2) पादतलचक्कता, (३) श्रायतपण्डिता, ( 4 ) दोघंङ्ग लिता, ( 5 ) मृदुतलुन हस्थपादता (6) जालहत्थपादता, (7) उस्संखपादता, (8) खीणजंघता, (9) धनोनमन्त जाणुपरिमज्जनता, ( 10 ) कोसो हितवत्थ गुह्यता, (11) सुत्रता ( 12 ) सुखमच्छविता (13) एकेकलोमता, ( 14 ) उद्धग्गलोमता, ( 15 ) ब्रह्म जुगतता, (1.6) सत्तस्सदता (17) सीहपुब्बद्धकायता, (18) चित्तन्तरंसता, ( 19 ) गिग्रोपरिमण्डलता, ( 20 ) समबहबलन्धता, ( 21 ) रसग्गता, (22) सीहहनुता, (24) अत्तालीसदसा, ( 24 ) समदन्तता (20) प्रबिर लदम्तता, Jain Education International (26) सुसुक्कदाढता, ( 27 ) पहूत जिव्हता, ( 29 ) ब्रह्मसरता (29) प्रभिनील नेतता, ( 30 ) गोपखुमता, (31) उण्गाय मुकन्तरता, नौर (32) उन्ही ससीसत । ( दीघनिकाय) । महापुरुषों को ये 32 लक्षण जिन पूर्वकृत कर्मों द्वारा प्राप्त होते हैं वे निम्नलिखित हैं1. दृढ़समादानता, 2. विचित्रदानोपचय, 3. परसत्वा जिहन करणता, 4. धर्मरक्षावरण गुप्तिकरणता, 5 परपरीवारा भेदनता, 6. विविध प्रावरण प्रदानता, 7. विपुलान्नपानानु प्रदानता, 8. बुद्धधर्मपरिग्रहणता, 9 गुह्यमन्तरक्षणतया मैथुनधर्मप्रतिविसर्जनता, 10 शुभकर्मानुपूर्वाचरणता 11. कुशल धर्म समाचरता, 12 अभयप्रदानता 13. पर किङ्करणीयोत्सकता, 14. कुशलकर्म ययातृप्तसमादानता 15. विविध भैषज्यानुप्रदानता, 16. कुशलमूल प्रयोगता, 17. सर्वसत्वाधवास प्रयोगता, 18. भिन्नसत्व सन्धानता, 19. स्वारक्षित कायवाङ्मनस्कर्मता, 20 सत्यवचन संरक्षणता, 21. पुष्पस्कन्धोपसेविता, 22. स्निग्धवचन सत्यपालन तया मानन्दवचनगवणता. 23 : मैत्रवत्सत्वसंरक्षणता, 24. कृत्रिमाशयता, 25. धर्मसंगीतिथित्तकर्मण्यता 26. शय्यासनारभरणमनाय वस्त्रानुप्रदानता, 27 सङ्गणिका परिवर्जनता, 28. प्राचार्योपाध्याय कल्याणमित्रानुशासिनी प्रदक्षिण ग्राहिता, 29. सर्व प्रारणानुकम्पनता, निहित लोष्टदण्डशीलता, 30 वर्णार्ह वपरता, 31. गुरुगौरव प्रणामता, श्रीर 32. स्वकीय परकीय समाधि में नियोजनता । 5 अर्थ विनिश्चय सूत्र में प्रत्येक लक्षण प्राप्ति के लिए पृथक कर्मविपाक दिया है परन्तु दीघनिकाय में इन कर्म विपाकों की कुल संख्या बीस ही बतायी गई हैं । - सदाचार, प्रियकारिता, जीवहिंसा त्याग, मधुर भोजनदान, जनसंग्राहकता, प्रर्थ धर्मो उपदेश दाना सत्कारपूर्वक शिक्षण, हित की जिज्ञासा, प्रक्रोध व वस्त्रदान, परस्पर मैत्री करना कराना, योग्यायोग्य पुरुष का ध्यान, परहिताकांक्षा, परपीड़ात्याग, प्रियदृष्टि, सत्कार्य में प्रप्रणी, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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