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महाकइपुप्फयतविरवड महापुराणु
[93.14.1
अल्लल्लपहुल्लियवेल्लिजालि' तणजाललग्गदावग्गिजालि। महिरुहछाइयदिच्चक्कवालि सूयरहयवणयरचक्कवालि। गिरिसिहरकुहरकक्करकरालि पविमलमाणिक्कसिलाकरालि । पविउलखुज्जयमलयंतरालि सल्लइवणि तुंगतमालतालि। मरुभूइ मरिवि कयझाणदोसु हुउ कुंजरु णामें वज्जघोसु । जा का नामें कात्यक्षिणे साहूई सहि हु इट्टकरिणि । करु करहु देइ सरु सरह घिवइ' हत्थेण कुक्खिकक्खंतु छिचइ । संघट्टइ अंगें अंगु तेव
मयगलहु पवनइ पेम्मु जेव। घत्ता-वड्डियणेहाइं मयणणिमीलियणेत्तई। बिपिण वि कीलति मेहुणकील' करतई ॥14॥
( 15 ) घणज्जियसह णहु णियंतु गिरिवरभित्तिउ दंतहिं हणतु । पवलबल चवल पडिगय खलंतु सरवरि तरंतु कमलई दलंतु । घल्लंतु देहि दवपंकपंसु उड्डावियतीरिणितीरहंसु।
(14) जिसमें गीले-गीले और पुष्पित लता-जाल हैं, तृणसमूह में दावाग्नि लगी हुई है, जिसका दिग्मण्डल वृक्षों से आच्छादित है, जिसमें वन्यप्राणियों का समूह सुअरों से आहत है, जो गिरि-शिखरों और गुफाओं से कठोर
और भयंकर है, स्वच्छ माणिक्य की किरणों से जो युक्त है, जो विशाल ऊबड़-खाबड़ प्रदेश वाला है, और जिसमें ऊँचे-ऊँचे तमाल और ताल वृक्ष हैं, ऐसे सल्लकीवन में, मरुभूति आर्तध्यान से मरकर वज्रघोष नाम का हाथी हुआ। और जो वरुणा नाम की कमठ की पत्नी थी, वह मरकर उसकी इष्ट करनेवाली हधिनी हुई। वह सूंड में सूंड देती है, सरोवर से पानी डालती है। सूंड से कुक्षीकक्ष के अन्त को छूती है और शरीर को शरीर से इस प्रकार रगड़ती है, जिससे उस मैगल हाथी में प्रेम उत्पन्न हो जाये। घत्ता-बढ़ रहा है स्नेह जिनमें, ऐसे वे दोनों काम-भाव से अपनी आँखें बन्द किये हुए रतिक्रीड़ा करते हैं।
(15) मेघों के गर्जन शब्द से वह गज आकाश को देखता हुआ, गिरिवर की दीवारों का दाँतों से भेदन करता हुआ, प्रबल बलवाले प्रतिगजों को स्खलित करता हुआ, सरोवर में तैरता हुआ, कमलों को दलता हुआ, जल, कीचड़ और धूल को शरीर पर डालता हुआ, नदियों में किनारों के हंसों को उड़ाता हुआ, तोड़-मरोड़कर
(14) 1. A अण्णण | 2. AP पविउल 1 3. AP कमठ । 4. A दे।। 5. A कुक्खिकरकरु । 6. P पवष्टा । 7. AP मेहुणकीलाइ रक्तई। (15) 1. AP दहपंकु । 2. A सुरकरिहे बेतु।