Book Title: Mahapurana Part 5
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ 102.9.8] महाकइपुष्फयतविरक्त महापुराणु | 413 चावह पंचसयई देहुण्णइ एम्ब भडारउ भासइ सम्मइ । पंचहं घणुसयाहं बड्डेसह साहिय पुबकोडि जीवेसइ। यत्ता-असरालइ कालइ आइयइ जीवेसइ पल्लोवमु। फडु होसइ दीसइ एत्यु जणु अहमभोयसुहसंगमु ॥8॥ 10 पंचमि मज्झिम छट्टइ उत्तिम इह जिह तिह णिव णवहिं मि खेत्तहिं कालु विदेहहिं एक्कु जि दीसइ जिणवर चक्कवट्टि हरि हलहर होति सटु सउ तेत्थु बहुत्तें उम्किट्टे सर सत्तरिजुत्तर चउगइ अणुहवंति तहिं घिरकर कम्मभूमिजाया मिगमाणुस भोयभूमि धुउ होसइ णित्तम। भरहेरावयणामविहत्तहिं। धणुसयपंचु ण' उपणइ णासइ। छिण्णछिण्णजयसिरिपसरियकर । वीस वियाणहि अइतुच्छत्तें। सव्वभूइभवजिणहं पवुत्तउ । सति चमगामिय परपर । होति भोयभूमिसु' णियकयवस। 5 काल समाप्त होने पर और सुखमा दुःखमा काल जाने पर मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष बढ़ जाएगी। एक करोड़ वर्ष पूर्व की आयु होगी। ___घत्ता-बहुत समय बीत जाने पर मनुष्य एक पल्य के बराबर जीवित रहेगा। फिर, शीघ्र ही मनुष्य स्पष्ट रूप से जघन्य भोगभूमि हो युक्त होगा। 19 पाँचवें काल में मध्यम भोगभूमि और छठे काल में निश्चय से उत्तम भोगभूमि होगी। हे राजन् ! जिस प्रकार यहाँ. उसी प्रकार, भरत ऐरावत आदि नामों से विभक्त नौ क्षेत्रों में ये ही प्रवत्तियौं दिखाई देंगी। विदेह-क्षेत्र में एक ही काल दिखाई देता है। वहाँ शरीर की पाँच सौ धनुष ऊँचाई नष्ट नहीं होती। जिनवर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार विजयश्री के लिए अपने हाथों का प्रसार करते हैं। वहाँ (विदेह क्षेत्रों में) तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र और नारायण अधिक से अधिक एक सौ साठ होते हैं, और कम से कम बीस जानो'। उत्कृष्ट रूप से कर्मभूमियों में समस्त ऐश्वर्य और संसार को जीतनेवाले तीर्थकर आदि महापुरुष एक सौ सत्तर होते हैं। इनमें चारों गतियों के जीव उत्पन्न होते हैं। स्थिरकर मनुष्य पाँचों गतियों में जन्म ले सकते हैं। पशु और मनुष्य अपने द्वारा किये गये पुण्य के वश से भोगभूमि में उत्पन्न हो सकते हैं। भोगभूमि के मनुष्य मरकर पहले दो स्वर्गों में, अथवा भवनवासी, व्यंतरवासी, A. A पुप्तपाई। (9) I.A सणइं: P पिउणार । 2. AP सच्चभूमिभव 1 3. AP मुअ हति। 4. AP भोय भूमिहि। -अकाई द्वीप में पाच यि क्षेत्र है और एक-एक विदह क्षेत्र के 32-82 भेद हैं। सब मिलाकर 150 क्षेत्र होते हैं। यदि तीर्थकर आदि (चक्रवर्ती बलभद, गगयण) शलाका परुष प्रत्येक विदेह क्षेत्र में 1-1 होवें तो 10 होते हैं और कम-से-कम महाविदेह को 4-4 नगरियों में अवश्यमेव होने के कारण श्रीस ही होते हैं। सभी कर्मभूनियों में पिताकर अधिक-से-अधिक एक सौ सत्तर हो सकते हैं। (उत्तरपुराण, 76, 406-98)

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