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महाकइपुप्फयतविरयल महापुराणु
छण्णउदिम संधि
गुरुवणु सुणेवि बहुदुहसोक्खणिरंतरु।
उवसंतु मयारि तुमरिवि चिरु जम्मंतरु ॥ ध्रुवके ॥ ( 1 )
परिघोलिरेण रतें णवेण
दुबई - उट्टिउ णीससंतु भवसंभरणुग्गयदुक्खहुयमणो' । विडिउ मुणिवरिंदचरणोवरि' बाहभरंतलोयणी ॥छ॥ सो हरिवरु बंदइ रिसिपयाई णीसेसजीवपबडियदयाई । णं पुज्जइ जीहापल्लवेण । पणं विज्जइ पुंछें चामरेण । णं अच्चण करइ समुज्जलेहिं । सावयवइ सावउ किं ण होइ । ण खणइ 'हेण वि सो धरिति । जी मासाहारें भरइ पेट्टु । हियमियसुमहुरमणहरझुणीहिं । संणासि परिहित साहु सीहु ।
सिरकमले मणहरकेसरेण णहरंधगलियमुत्ताहलेहिं सामीउ जासु आवेंति जोइ कवसव्वजीवमारणणिवित्ति अहिलसइ गसइ दुग्घोथटु' उवसामि सो वि महापुणीहिं महियलणिहित्ततणु जित्तजीहु
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छियानवेवीं सन्धि
गुरु के वचन सुनकर अनेक सुख-दुःखों से निरन्तर भरपूर अपने पूर्व जन्मान्तरों का स्मरण कर वह सिंह शान्त हो गया।
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पूर्वजन्मों के स्मरण से उत्पन्न दुःख से जिसका मन दग्ध हो गया है, ऐसा वह निःश्वास लेता हुआ उठा और बाष्पभरित लोचन से मुनिवर के चरणों में गिर पड़ा। वह महान् सिंह समस्त जीवों के प्रति दया प्रकट करनेवाले मुनिचरणों की बन्दना करता है, मानो आन्दोलित रक्त और नये जीभरूपी पल्लव एवं सिररूपी कमल और सुन्दर केशर ( असाल, केशर) से पूजा करता है, मानो पूँछरूपी चामर से पंखा हिलाता है, मानो नखरन्धों से गिरते हुए समुज्ज्वल मोतियों से अर्चन करता है; जिनके समीप योगी आते हैं वहाँ श्वापदपति वह श्रावक क्यों नहीं हो ? सब प्रकार के जीवों की हिंसा से निवृत्ति लेकर वह अपने नखों से धरती तक नहीं खोदता । जो बलवान् गजघटा की इच्छा करता है, उसे खाता है, मांसाहार से पेट भरता है, वही (सिंह) हितमित सुमधुर सुन्दर ध्वनिवाले महामुनियों से भी उपशान्त हो गया। वह साधु सिंह धरतीत्तल पर अपना शरीर डालकर, जिल्हा को जीतकर संन्यास प्रतिष्ठित हो गया। वह सोचता है मुझे बोधि- समाधि हो, मेरा
(1) 1. AP बहुसुहदुक्तणिरंतरु। 2. AP सुबरि 3 AP दुक्खत्यमणो 4 A चलणोवरि । 5. P णक्खण। . AP क्खे। 7. A दुग्घोड़घट्टु ।