Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 20
________________ ११ बंधसण्णियासपरूवणा आदाव० ओघं । उज्जोवं पढमपुढविभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ । २२. तस्सेव अपज्जत्तेसु छण्णं कम्माणं ओघं । मिच्छत्तं ओघ । एवं सोलसक०. पंचणोक० । इत्यि० उ० बं० मिच्छत्त-सोलसक०-भय०-दु० णिय० अणंतगुणहीणं । हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया अणंतगुणहीणं० । एवं पुरिस० । हस्स० उ० बं० मिच्छ०-सोलसक०-णस०-भय-दुणिय० अणु० अणंतगुणहीणं० । रदि० णिय० तं तु. लहाणपदिदं० । एवं रदीए। २३. तिरिक्व० उ० ब० एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्रवाणु०-उप०थावरादि०४-अथिरादि०पंचणि । तं तु. छहाणपदिदं० । ओरालि०-तेजा०क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि०णिय० अणंतगुणही । एवं तिरिक्खगदिभंगो एई दि०. हुंड-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०। ___ २४. मणुसगदि० उ०६० पंचिंदि० ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वजरि०--पसत्थ०४-मणुसाणु०--अगु०३-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। चार संस्थान, चार संहनन और आतपकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पहली पृथिवीके समान है। इसी प्रकार अर्थात् सामान्य तिर्यश्चोंके समान पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। २२. तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें छह कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सोलह कषाय और पाँच नोकषायोंकी मुख्यतासे जानना चाहिए। स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व; सोलह कषाय, नपुसकवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इसके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात हास्यके समान तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___२३ तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि पाँचका नियम से बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगतिके समान एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि पाँचकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २४. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन १. प्रा. प्रतौ सोलसक० भयदु० इति पाठः । २ श्रा० प्रती० अथियदिछ० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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