Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अगु०४-पसत्य ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे--णिमि० णिय. अणंतगुणहीणं० । ओरालि०-ओरालि० अंगो०-वजरि०-मणुसाणु० णि० । तं तु. छटाणपदिदं । तिण्णियुग. सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं मणुसगदिभंगो ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० । २०. देवगदि० उ. बं० पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०-वेउन्वि०अंगो०-पसत्थ०४-देवाणु० अगु०३-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० । तं तु० लहाणपदिदं० । अप्पसत्थ०४-उप० णि० अणंतगुणहीणं० । एवं पसत्थाणं देवगदीए सह ऍक्कमेक्कस्स । तं तु०। २१. बीइंदि० उ० बं० तिरिक्ख०-ओरालि०-तेजा.-क०-हुंड०-ओरालि. अंगो०- पसत्यापसत्य ०४-तिरिक्वाणु०- अगु०- उप०- तस०- बादर- अपज्ज०- पत्ते०अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । असंप० णि०। तं तु. छट्ठाणपदिदं० । एवं असंप० । तीइंदि०-चदुरिंदि० ओघं । चदुसंठा०-चदुसंघ०कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार मनुष्यगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २०. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर. समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु त्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपधातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंका देवगति के साथ विवक्षित प्रकृतिकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष कहना चाहिए। किन्तु विवक्षित प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो उसी प्रकार बन्ध करता है, जिस प्रकर देवगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहा है। २१. द्वीन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क तिर्यश्वगत्यानपूर्वी, अगुरुलघ, उपघात. त्रस. बादर. अपर्याप्त प्रत्येक. अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है या अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिए हुए होता है। इसी प्रकार असम्प्राप्तास्मृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 ... 426