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इनमें साधारणत: पौराणिकता का अंश अधिक है, काव्य का कम । संयोग-वियोग का का चित्रण भी किया गया है पर विशेषता यह है कि वह वैराग्यमूलक और शान्तरस से मापूरित है। प्राध्यात्मिकता की अनुभूति वहां टपकती हुई दिखाई देती है। राजुल और नेमिनाथ का सन्दर्भ जैन कवियों के लिए अधिक अनुकूल-सा दिखाई दिया है।
__इस भूमिका के साथ जैन प्रबन्ध काव्यों को हम समासतः इस प्रकार मालेखित कर सकते हैं- 1. पुराण काव्य (महाकाव्य और खण्ड काथ्य), 2. चरित काव्य, 3. कथा काव्य, और 4. रासो काव्य । 2. पौराणिक काव्य :
पौराणिक काव्य में महाकाव्य और खण्ड काव्य सम्मिलित होते हैं। हिन्दी जोन कवियों ने दोनों काव्य विधानों में तदनुकूल लक्षरणो एवं विशेषतामों से समन्वित साहित्य की सर्जना की है। उनके ग्रंथ सर्ग अथवा अधिकारों में विभक्त हैं, नायक कोई तीर्थंकर, चक्रवर्ती अथवा महापुरुष है, शांतरस की प्रमुखता है तथा श्रृंगार और वीर रस उसके सहायक बने है । कथा वस्तु ऐतिहासिक अथवा पौराणिक है, चतुपुरुषार्थों का यथास्थान वर्णन है, सों की संख्या आठ से अधिक है सर्ग के अंत में छन्द का परिवर्तन तथा यथास्थान प्राकृतिक दृश्यों का संयोजन किया गया है। महाकाव्य के इन लक्षणो के साथ ही खण्ड काव्य के लक्षण भी इस काल के साहित्य में पूरी तरह से मिलते हैं । वहाँ कवि का लक्ष्य जीवन के किसी एक पहलु को प्रका. शित करना रहा है। घटनाओं, परिस्थितियों तथा दृश्यों का संयोजन अत्यन्त मर्मस्पर्शी हुआ है । ऐसे ही कुछ महाकाव्यों और खण्डकाव्यों का यहाँ हम उल्लेख कर रहे हैं । उदाहरणार्थ
ब्रह्मजिनदास के मादिपुराण और हरिवंशपुराण (वि. सं. 1520), वादिचन्द्र का पाण्डवपुराण (वि. सं. 1654), शालिवाहन का हरिवंशपुराण (वि. सं. 1695) बुलाकीदास का पाण्डवपुराण (वि. सं. 1754, पद्य 5500), खुशालचन्द्रकाला के हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण और पद्मपुराण (सं. 1783), मधरदास का पार्श्वपुराण (सं. 1789), नवलराम का वर्धमान पुराण (सं. 1825), धनसागर का पार्श्वनाथपुराण (सं. 1621), ब्रह्मजित का मुनिसुव्रतनाथ पुराण (सं. 1645), वैजनाथ माथुर का वर्षमानपुराण (सं. 1900), सेवाराम का शान्तिनाथ पुराण (सं. 1824). जिनेन्द्रभूषण का नेमिपुराण । ये पुराण भाव और भाषा की दृष्टि से उत्तम हैं। इस दृष्टि से-कविवर भूषरवास का पार्श्व पुराण दृष्टव्य है
किलकिलंत वैताल, काल कज्जल छवि सजहिं । मौं कराल विकराल, माल मदगज जिमि गजहि ॥ मुंडमाल गल धरहिं लाय लोयननि उरहिंजन । मुख फुलिंग फुकरहिं करहिं निर्दय पुनि हन हन ।।