Book Title: Madhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 282
________________ मौर तुलसी जैसे सगुण भक्तों में यह परम्परा दिखाई नहीं देती। मीरा के निम्नलिखित उद्धरण से यह प्रवश्य लगता है कि उन्होंने प्रारंभ में किसी योग साधना का अवलम्बन लिया होगा । प्रेम साधना की घोर लग जाने पर उनको योग से विरक्ति हो जाना स्वाभाविक था तेरी मरम नहि पायो रे जोगी । प्रसरण मारि गुफा में बैठो ध्यान करी को लगाभो ॥ गल विच संली हाथ हाजरियों भंग भभूत रमायो । मीरा के प्रभु हरि अविनासी भाग लिख्यो सो ही पायो ॥ * एक अन्य स्थान पर भी मीरा के ऐसे ही भाव मिलते हैं- 'जिन करताल पखावज बार्ज अनहद की झनकार रे । " 1. 257 जैन धर्म में योग की एक लम्बी परम्परा है। वहां भी सूफी पौर सन्तों के समान मन को साधना का केन्द्र स्वीकार किया गया है। पंचेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही 'अन्तर विजय' का विशेष महत्व है । उसे ही 'सत्यब्रह्म' का दर्शन माना गया है— 'प्रन्तर विजय सूरता सांची, सत्यब्रह्म दर्शन निरवांची ।" ऐसा ही योगी अभयपद प्राप्त करता है— 'ऐसा योगी क्यों न श्रभयपद पावं, सो फेर न भव में ur | * यही निर्विकल्प प्रवस्था है जिसे आत्मा की परमोच्च प्रवस्था कह सकते हैं । यहीं साधक समरस में रंग जाता है - 'समरस भावे रंगिया, प्रव्या देखई सोई 15 थानतराय उसे कबीर के समान गूंगे का गुड़ माना है और दौलतराम ने 'शिवपुर की डगर समरस सौं भरी' कहा है । " 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. प्रानन्दतिलक पर हठयोग का प्रभाव दिखाई देता है जो मन्य जंनाचार्यों पर नही है । 'प्रवधू' शब्द का प्रयोग भी उन्होंने अधिक किया है । पीताम्बर ने सहज मीरा की प्रेम साधना, पृ. 281. वही, पु. 204. बनारसीविलास, प्रश्नोत्तरमाला, 12 पू. 183. दौलत जैन पद संग्रह, 65. मागंदा, 40, ग्रामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर की हस्तलिखित प्रति । सेना बैना कहि समुभाम्रो, गूंगे का गुड़ || कबीर, पृ. 126. चानतविलास, कलकत्ता, दौलत जैन पद संग्रह, 73, पू. 40. प्रानन्दघन बहोत्तरी, पु. 358.

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