Book Title: Madhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 321
________________ 296 अनुकूल सकलन, प्रातिकूल्य का विसर्जन, संरक्षण, एतद्रूप विश्वास, गोप्तृत्वं रूप में वरण, भात्म निक्षेप और कार्पण्यभाव 12 प्रपत्ति भाव से प्रेरित होकर भक्त के मन में प्राराध्य के प्रति श्रद्धा धौर प्रेम भावना का अतिरेक होता है । यानतराय अपने अंगों की सार्थकता को तभी स्वीकार करते हैं जबकि वे धाराष्य की मोर झुके रहें रेजिय जनम लाहो लेह । चरन ते जिन भवन पहुंचे, दान दें तर जेह ॥ उर सोई जा में दया है, मरू रूधिर को गेह । जीभ सो जिन नाम गावं, सांच सौ करे नेह || भांख ते जिनराज देखे और प्रांख खेह | श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ तप तपं सो देह ॥ कविवर द्यानतराय मे प्रपत्ति की लगभग सभी विशेषताये मिलती हैं । भक्त कवि ने अपने आराध्य का गुण कीर्तन करके अपनी भक्ति प्रकट की है। वह प्राराध्य में असीम गुणो को देखता है पर उन्हे अभिव्यक्त करने में असमर्थ होने के कारण कह उठता है कवि को पार्श्वनाथ दुःखहर्ता और सुखकर्ता दिखाई देते हैं । वे उन्हें विघ्नविनाशक, निर्धनो के लिए द्रव्यदाता, पुत्रहीनो को पुत्रदाता मोर महासकटों के निवारक बताते हैं । कवि की भक्ति से भरा पार्श्वनाथ की महिमा का गान दृष्टव्य है 1. प्रभु मैं किहि विधि श्रुति करौ तेरी । गणधर कहत पार नह पाये, कहा बुद्धि है मेरी ॥ शक जनम भरि सहस जीभ र्धारि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावे उलू कहे किमि सूरा || चमर छत्र सिंहासन बरनों, ये गुरण तुम ते न्यारे । तुम गुरण कहन वचन बल नाहि, नैन गिनै किमि तारे ॥3 2. 3. दुखी दुःखहर्ता सुखी सुक्खकर्ता । सदा सेवको को महानन्द भर्ता ॥ प्रानुकूलस्य संकल्पः प्रातिकूलस्य वर्जनम् । रक्षिष्यतीति विश्वासो, गोप्तृत्व वरणं तथा । ग्रात्मनिक्षेपकार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः ॥ खानतपद संग्रह, 9 पृ. 4, कलकत्ता ग्रानत पद संग्रह. पु. 45

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