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कार्पण्य भाव ।। प्रपतिभाव के अतिरिक्त नारद भक्तिसूत्र में साध्य रूरा प्रेमाभक्ति । को ग्यारह मासक्तियां बतायी हैं-गुणमाहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, दास्यासक्ति, सख्यासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, कान्त्यासक्ति, वात्सल्यासक्ति, प्रात्मनिवेदनासक्ति, तन्मयासक्ति, और परमविरहासक्ति । दास्यासक्ति में विनयभाव का समावेश है। विनय के अन्तर्गत दीनता मानमर्षता, भयदर्शना, मसना, माश्वासन, मनोराज्य
और विचारणा ये सात तत्त्व पाते हैं । पश्चात्ताप, उपालम्भ आदि भाव भी प्रपत्ति मार्ग में सम्मिलित हैं लगभग ये सभी भाव भक्ति साधना में दृष्टिगोचर होते है।
जन साधना में भक्ति का स्थान मुक्ति के लिए सोपानवत् माना गया है। भगवद् भक्ति का तात्पर्य है-अपने इष्टदेव में अनुराग करना । अनुराग के साथ ही विनय, सेवा, उपासना, स्तुति, शरणगमन मादि क्रियायें विकसित हो जाती हैं। इस सन्दर्भ में पर्युपासना शब्द का भी प्रयोग हुमा है । उपासगदसामो में पर्युपासना का क्रम इस प्रकार मिलता है-उपगमन, अभिगमन, पादक्षिणा, प्रदक्षिणा, बंदरण नमस्सरण एवं पर्युपासना । स्तवन, नामस्मरण, पूजा, सामायिक प्रादि के माध्यम से भी साधक अपनी भक्ति प्रदर्शित करता हुमा साधना को विशुद्धतर बनाने में जुटा रहता है हिन्दी जैन कवियों ने इन सभी प्रकारों को अपनाकर भक्ति का माहात्म्य प्रस्थापित किया है।
कविवर बनारसीदास ने भक्ति के माहात्म्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि हमारे हृदय में भगवान की ऐसी भक्ति है जो कभी तो सुबद्धि रूप होकर कुबुद्धि को मिटाती है, कभी निर्मल ज्योति होकर हृदय में प्रकाश डालती है। कभी दयालु होकर चित्त को दयालु बनाती है, कभी अनुभव की पिपासा रूप होकर नेत्रों को स्थिर करती है, कभी भारती रूप होकर प्रभु के सन्मुख माती है, कभी सुन्दर वचनों में स्तोत्र बोलती है । जब जैसी अवस्था होती है तब तैसी क्रिया करती है
कबहूं सुमति है कुमतिको निवास करै, कबहूं विमल जोति अन्तर जगति है। कबहूं दया है चित करत दयाल रूप, कबहूं सुलालसा है लोचन लगति है। कबहूं भारती के प्रभु सनमुख प्राव, कबहूं सुभारती व्हं बाहरि बगति है।
1. मानुकूल्यस्य संकल्पः प्रातिकल्पस्य वर्जनम् ।
रक्षिष्यतीति विश्वासो गोप्तृत्ववरणं तथा।
मात्म निक्षेपकार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः ॥" 2. इसके विस्तृत विवेचना के लिए देखिये-डॉ. प्रेमसागर जैन के सोष प्रबन्ध
का प्रथम भाग जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि।