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पीहरि जांउ न रहू सासुरं पुरबहि प्रेमि न लांऊं । कहै कबीर सुनहु रे सन्ती, अंगहि अंग न घुबाऊं ॥1
तुलसीदास ने माया को बमन की भांति स्थाज्य बताया ।" मलूकदास ने उसे काली नागिनी मोर दादू ने सर्पिणी कहा । जायसी, सूर और तुलसी' ने इस संसार को स्वप्नवत् कहा जिसमें संसारी निरर्थक ही मोही बना रहता है । भूधरदास ने भी संसार के तमाशे को स्वप्न के समान देखा है ।
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" देख्या बीच जहान के स्वपने का अजब तमाशा वे ।। एकके घर मंगल गावें पूगी मन की प्रासा । एक वियोग भरे बहु री, भरि भरि नेन निरासा ॥1॥ तेज तुरंगनिप चढ़ि चलते पहरें मलमल खासा || रंग भये नागे प्रति डोलें, ना कोई देय दिलासा || तरकै राज तखत पर बैठा था खुशवक्त खुलासा । ठीक दुपहरी मूदत प्राई, जंगल कीना वासा ॥13॥ तन धन थिर निहायत जग में, पानी मांहि पतासा । भूषर इनका गरव करें जे फिट तिनका जनमासा ॥14॥ 8
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द्वेषा
मिथ्यात्व, मोह और माया के कारण ही जीव में क्रोध, लोभ राग, दिक विकारों का जन्म होता है। तुलसी ने इनको प्रत्यन्त उपद्रव करने वाले मानसिक रोगों के रूप में चित्रित किया है। सूर ने इनको परिधान मानकर संसार का कारण माना है
1. कबीर ग्रंथावली, पद 231, पृ. 427-28.
2. तुलसी रामायण, प्रयोध्याकाण्ड, 323-4.
3. मलूकदास, भाग 2, पृ. 16.
4.
दादू, भाग 1, पृ. 131.
5.
यह संसार सपन कर लेखा, विवरि गये जानों नहिं देखा, जायसी ग्रन्थावली, पृ. 55.
जैसे सुपने सोई नेखियत तेसे यह संसार, सुरसार, पृ. 200.
मोह निसा सब सोवनि द्वारा, देखिन सपन अनेक प्रकारा, मानस, पृ. 458. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 154.
तम मोह लोग अहंकारा, मद, क्रोध बोध रिपु भारा । प्रति करहि उपद्रव नाथा, मर्दहि मोहिं जानि मनाया। सन्तवारणी संग्रह भाग 2, पृ. 86, तुल
नार्थ देखिये, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 311.