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पंक के गरम मैं ज्यों डारिये कुतलफल,
नीर करै उज्ज्वल नितारि डार मालकों ॥ दधि को मथैया मथि का जैसे माखनकों,
राजहंस जैसे दूध पीव त्यागि जलकौं । तैसें ग्यानवंत भेदग्यानकी सकति साधि,
बेदै निज संपति उछेदै परदल कौं ।'
2. स्तवन पूजा मौर जयमाल साहित्य आध्यात्मिक साधन में स्तवन, पूजा और जयमालका अपना महत्त्व है। साधक रहस्य की भावना की प्राप्ति के लिए इष्टदेव की स्तुति और पूजा करता है। भक्ति के सरस प्रवाह में उसके रागादिक विकार प्रशान्त होने लगते हैं और साधक शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की ओर बढ़ने लगता है। पंचपरमेष्ठियों का स्तवन, तीर्थंकरों की पूजा और उनकी जयमाल तथा भारती साधना का पथ निर्माण करते हैं । इस साहित्य विद्या की सीमंधर स्वामी स्तवन, मिथ्या दुक्कण विनती गर्मविचार स्तोत्र, गजानन्द पंचासिका, पंच स्तोत्र, सम्मेदशिखिर स्तवन, जैन चौबीसी, विनती संग्रह, ननिक्षेप स्तवन प्रादि शताधिक रचनाएं हैं जो रहस्य भावना की अभिव्यक्ति में अन्यतम माधन कही जा सकती है। भक्तिभाव से प्रोतप्रोत होना इनकी स्वाभाविकता है।
उपर्युक्त स्तवन साहित्य में कुछ पदों का रसास्वादन कीजिए । कवि भूदरदास की जिनेन्द्रस्तुति अन्तःकरण को गहराई से छूती हुई निकल रही है
अहो जगत गुरु देव, सुनिए अरज हमारी । तुम प्रभु दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी ॥ इस भव-वन के मांहि, काल अनादि गमायो । भ्रम्यो चतुर्गति माहिं, सुख नहिं दुख बहु पायो ।। कर्म महारिषु जोर, एक न काम कर जी।
मन माने दुख देहिं, काहू सों नाहिं डरे जी । इसी प्रकार द्यानतराय का 'स्वयंभू स्तोत्र' भी उल्लेखनीय है जिसमें तीर्थकरों की महिमा का गान है। इसमें पार्श्वनाथ और वर्तमान की महिमा के पद दृष्टव्य है
1. नाटक समयसार, संवरद्वार, पृ. 10