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महावीर स्वामी की कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमायें हैं जो क्रमशः 8 फीट व 13.3 फीट ऊँची हैं। इस जिनालय का निर्माण सं. 1671 में हुआ था । इसे बड़े पंचभाइयों का जिनालय भी कहते हैं 1
10 (अ). यह हनुमान जी का स्थान है। इसमें हनुमान जी के कंधों पर दो मुनिराज विराजमान हैं। यह पुराणों में मुनियों के उपसर्ग निवारण का प्रसंग मिलता है । यह मूर्ति लगभग 7 फीट ऊँची है
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10 (ब). इसमें लगभग 5.3 फीट ऊँची शासन देवी की मूर्ति स्थित है। शासन देवी के शीर्ष पर पद्मासन मुद्रा में व दोनों पार्श्व भागों पर खड्गासन मुद्रा में तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इस मूर्ति के पार्श्व भाग में 3.5 फीट अवगाहना की सरस्वती की मनोहारी प्रतिमा स्थित है, जो हंस पर आसीन है व आठ भुजाओं वाली है, हाथ में वीणा है। दायीं, बायीं ओर देवियां खड़ी है। दायीं दीवाल पर एक शिलाखंड में अम्बिका की मूर्ति स्थित है; जिसकी गोद में बालक है। मुख्यद्वार के ऊपर पद्मासन में तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है ।
11. मल्लिनाथ जिनालय - इस जिनालय में बालयति 19वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 12 फीट ऊँची प्रतिमा विराजमान है । पार्श्व भागों में खड्गासन में चार छोटी-छोटी जिन - प्रतिमायें भी उत्कीर्ण की गई हैं। सप्तफणी भगवान पार्श्वनाथ व पंचफणी भगवान सुपार्श्वनाथ की प्रतिमायें भी यहां विराजमान हैं। एक मूर्ति भगवान चन्द्रप्रभु की भी विराजमान हैं
12. पार्श्वनाथ जिनालय - इस जिनालय में फणावली युक्त कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति विराजमान है। यह जिनबिम्ब 16 फीट ऊँचा अतिमनोज्ञ है। पार्श्व भागों दो पद्मासन मुद्रा में छोटे-छोटे जिनबिम्ब भी बनाये गये हैं। पार्श्व में हाथी पर चामरधारी इन्द्र खड़े हैं ।
13. पार्श्वनाथ जिनालय - नौ फणावली युक्त 16 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा इस जिनालय में प्रतिष्ठित हैं। दोनो ओर दो पद्मासन मूर्तियां भी हैं । गज पर सवार चामरधारी इन्द्र भगवान की सेवा में रत दिखाई पड़ते हैं । पामूल के दोनों ओर दो श्राविकायें हाथ जोड़े खड़ी है । इसका प्रतिष्ठाकाल सं. 1645 है। मंदिर के शिखर में तीन ओर तीन जिनबिम्ब बने हैं ।
14. शान्तिनाथ जिनालय - इसमें 12 फीट अवगाहना की कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान शांतिनाथ जी की प्रतिमा विराजमान है। सिर के ऊपर तीन छत्र बने हैं; जिसके दोनों ओर दो पद्मासन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । यह प्रतिमा सं. 1855 में प्रतिष्ठित हुई थी । प्रतिमा के पार्श्व भागों में नीचे चामर लिये हाथी पर सवार इन्द्र बने हैं ।
15. आदिनाथ जिनालय - सं. 1672 में प्रतिष्ठित प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की यह प्रतिमा क्षेत्र पर विराजमान सभी प्रतिमाओं में सबसे बड़ी, भव्य, आकर्षक व मनोहारी है। वीतरागता की प्रतिमूर्ति यह प्रतिमा ऐसी लगती है; मानों अभी बोलने वाली है। कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित यह प्रतिमा 25 फीट से अधिक
146 ■ मध्य- भारत के जैन तीर्थ