Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Vibhar Mahakavi, Virendra Varma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 31
________________ किरातार्जुनीयम् अ०-द्विषां विधाताय विधातुम् इच्छतः भूभृतः रहसि अनुज्ञाम् अधि. गम्य सः सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनी विनिश्चिताम् इति वाचम् आददे । श-द्विषां विघाताय = शत्रुओं (दुर्योधन इत्यादि कौरवों ) के विनाश के लिए। विधातुम् = विधान (प्रयत्न, व्यापार, उद्योग) करने के लिए। इच्छतः = इच्छा करते हुए, इच्छा करने वाले । भूभृतः = राजा (युधिष्ठिर) की। रहसि = एकान्त में। अनुज्ञाम् = आशा को, अनुमति को । अधिगम्य = प्राप्त करके, पाकर । सः = वह (वनेचर, गुप्तचर, किरात)। सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनी = सौष्ठव (शब्द-शौष्ठव, शब्द-सौन्दर्य, शब्दों की सुन्दरता, शब्दों की मधुरता, शब्दसामर्थ्य ) और औदार्य (अर्थ की गम्भीरता, अर्थगौरव, अर्थसम्पत्ति, अर्यवत्ता, अर्थ का वैभव, अर्थ की गरिमा) के विशेष ( अतिशय, आधिक्य ) से सुशोभित (समन्वित, युक)। विनिश्चितार्थीम् = निश्चित है अर्थ जिसका ऐसी, असंदिग्ध ( स्पष्ट ) अर्थों वाली, संदेहरहित । इति = इस प्रकार की। वाचम् = वाणी को ! आददे = बोला, कहा, कहने लगा। ___ अनु०-शत्रु (दुर्योधन इत्यादि कौरवों) के विनाश के लिए उद्योग करने की इच्छा करते हुए राजा (युधिष्ठिर) की एकान्त में अनुमति प्राप्त करके वह (गुतचर किरात) शब्दसौन्दर्य (सौष्ठव) और अर्थगाम्भीर्य (औदार्य) के अतिशय (आधिक्य) से सुशोभित (विभूषित) [अथवा-शब्दसौन्दर्य और अर्थगाम्भीर्य (गुणों) से युक्त होने के कारण विशेष रूप से सुशोभित ] तथा असंदिग्ध ( स्पष्ट ) अर्थों वाली वाणी को कहने लगा। संस्कृतव्याख्या-यद्यपि प्रियाह राशि कटुनिष्टुरोक्तिर्न युक्ता, तथापि युधिष्ठिरस्य हितार्थ 'दुर्योधनः नीतिमनुसृत्य प्रर्जा पालयति' इति कटुसत्यस्य कथनमावश्यकम् । स्वामिनः अनुमति विना कटुसत्यस्य कथनं गुप्तचरस्य कृते भयानकमपि भवितुं शक्नोति, अतएव सः गुनचरः कटुसत्यस्य कथनाय शत्रूणा विनाशाय उद्योगं कर्तुमिच्छनः युधिष्ठिरस्य अनुमति प्राप्नोति । ततः सः गुप्तचरः शब्दलालित्येन अर्यगाम्भीर्येण च अतिशयेन शोभमानां सन्देहरहितां च वाणीमुवाच ।

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