Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Vibhar Mahakavi, Virendra Varma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi
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किरातार्जुनीयम् मग्न = पड़े हुए, डूबे हुए। दीप्तिसंहारजिज़ = प्रताप (प्रभाव, परात्रम) के विनाश होने से मलिन (दुःखित, अप्रसन्न)। शिथिलवसं = नष्ट हुए धन वाले, धनहीन, निर्धन, शिथिल ( कम, विनष्ट ) हो गया है धन (वसु) जिसका ऐसे । रिपुतिमिरम् =अन्धकार के समान भीषण शत्रुओं को। उदस्य = नष्ट करके । दिनादौ = शुभ समय आने पर। उदीयमानं = अभ्युदय ( उन्नति ) को प्राप्त करते हुए । त्वां = तुमको, आप (युधिष्ठिर) को । लक्ष्मीः = राज्यलक्ष्मी, सम्पत्ति, दिवस-शोभा। पुनः = फिर । समभ्येतु प्राप्त होवे, प्राप्त करे। __ अनु०-विधाता और समय के अनुसार अत्यधिक गहरे विपत्तिरूप पश्चिमी समुद्र में डूबे (गिरे) हुए, प्रकाश के विनष्ट हो जाने के कारण शिथिल (संकुचित) हुई फिरणों वाले, शत्रुरूप अन्धकार को हटाकर (दूर करके) प्रभातकाल में उदित होते हुए सूर्य की तरह भाग्य और समय के नियम के कारण अपार विपत्ति-सागर (विपत्ति के समुद्र) में पड़े (डूबे) हुए, प्रताप (प्रभाव) के विनष्ट होने से दुःखित (अप्रसन्न), धनहीन (विनष्ट हुए धन वाले), अन्धकार के सदृश भीषण शत्रु-समूह को नष्ट करके शुभ समय के आ जाने पर अभ्युदय (उन्नति) को प्राप्त करते हुए आप (युधिष्ठिर) को राज्यलक्ष्मी पुनः प्राप्त करे। ___सं० व्या०-प्रथमसर्गस्य अन्तिमेऽस्मिन् श्लोके द्रौपदी युधिष्ठिरस्य समृद्ध्यर्थे मङ्गलं कामयते । सा कथयति-विधिनिर्मितनियमवशात् सायंकाले अगाधे विपत्तिस्वरूपे पश्चिमे समुद्रे निमग्नं, रश्मिसंकोचेन प्रकाशहीनं, शत्रुभूतमन्धकार दूरीकृत्य अन्येद्यः प्रातःकाले उद्यन्तं दिनकरं यथा दिवसशोभा (दिवसलक्ष्मीः) पुनरलंकरोति तथैव भाग्यवैपरीत्यात् कालप्रभावाच्च गम्भीरे विपत्समुद्रे निमज्जमानं, धनहीनं, शत्रुन् विनाश्य पुनरात्मनः राज्यप्राप्त्यर्थमुद्योगं कुर्वन्तं च त्वां युधिष्ठिरमपि राज्यलक्ष्मीः पुनः समाश्रयतु ।
स०-विधिश्च समयश्च इति विघिसमयौ (द्वन्द्व), तयोः नियोगः इति विधिसमयनियोगः, तस्मात् ( षष्टी तत्पु० )। न गाधः अगाधः तस्मिन् (नञ् समास)। आपत् पयोधिः इव इति आपत्पयोधिः तस्मिन् (उपमित

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