________________
किरातार्जुनीयम्
धर्मार्थकामानां सेवनसमयं विभज्य दुर्योधनः निर्लिप्तः सन् तुल्यानुरागेण तान् धर्मार्थकामान् सेवते । एतेषु एकतमे अत्यासक्तिः न तस्य वर्तते । तस्मात् ते परः परं वाधकाः न सन्ति । धर्माचरणसमये अर्थकामौ न बाधेते । अर्थोपार्जनसमये धर्मकामौ न वाधे | कामसेवनसमये धर्मार्थो न वाघेते । दुर्योधनस्य दगवानदाक्षिण्यादिसद्गुणैः आकृष्टाः इव ते धर्मार्थकामाः तत्र ( दुर्योधने ) बहुकालपर्यन्तं व्यवस्थानमिच्छन्तः परस्परं स्नेहेन वसन्ति ।
४८
स० - पक्षे पातः पक्षपातः ( तत्पु० ), समः पक्षपातः यस्यां सा समपक्षपाता तया (बहु० ) । न सक्तम् असत्तम् ( नत्र समास । त्रयाणां गणः त्रिगणः ( तत्पु० ) । गुणेषु अनुरागः गुणानुरागः, तःमात् ( तत्पु० ) ।
व्या० - विभज्य - वि + भज् + क्त्वा ल्यप् ।
ক;
असक्तम्-नञ्+ स् + असक्तं यथा स्यात्तथा ( क्रियाविशेषण ) । आराधयतः आ + राघ्+ शतृ + षष्ठी, एकवचन । ईयिवान् ई + लिट् क्वसु प्रथमा, एकवचन |
टि०- ( १ ) - दुर्योधन की नीति समन्वयवादिनी है । धर्म, अर्थ और काम- इन तीन पुरुषार्थों का समान भाव से दुर्योधन सेवन करता है । वह इनमें से किसी की भी अवहेलना नहीं करता और न किसी एक में उसकी अत्यासक्ति है । 'इस समय धर्म का आचरण करना चाहिए, इस समय अर्थ ( धन ) का उपार्जन करना चाहिए, इस समय काम का सेवन करना चाहिए इस प्रकार का निश्चय उसने कर लिया है । ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्योधन के सद्गुणों से आकृष्ट होकर ये तीनों पुरुषार्थ दुर्योधन के सांनिध्य में बहुत काल तक रहना चाहते हैं । अत एव ये तीनों अपने स्वाभाविक विरोध को छोड़कर परस्पर मित्र हो गए हैं I ये एक दूसरे का विरोध नहीं करते । दुर्योधन जब धर्म का आचरण करता है तब अर्थ और काम बाधा नहीं पहुँचाते, जब वह अर्थ (धन) का उपार्जन करता है तब धर्म और काम वाघा नहीं पहुँचाते, जब वह काम ( विषयोपभोग ) का सेवन करता है तच धर्म और अर्थ बाघा नहीं पहुँचाते । प्रस्तुत श्लोक में समन्वयवादी भारतीय जीवन का मनोरम चित्रण किया गया है । ( २ ) छेकानुप्रास, उत्प्रेक्षा अलंकार ।