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प्रथम सगः
टि०-(१) इस श्लोक में दुर्योधन की महासमृद्धि का प्रतिपादन किया गया है। राजाओं के द्वारा उपहार में दिए गए हाथियों के मदजल से आँगन का कीचड़युक्त होना और राजाओं के रथों और घोड़ों से आँगन का भरा हुआ होना-इससे दुर्योधन की विशाल सम्पत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। सम्पत्ति चारों ओर से उसके पास एकत्र हो रही है। उपहार और कर देने वाले राजाओं से उसका आँगन भरा रहता है। (२) सप्तपर्ण (सप्तच्छद, अयुग्मच्छद) वृश्च की प्रत्येक डाली में सात पत्ते होते हैं। इसके यह नाम पड़ने का यही कारण है। सप्तपर्ण के पुप्प की गन्ध बड़ी उग्र होती है । यह पुष्प अपने निकटस्थ व्यक्तियों के शिरों में वेदना उत्पन्न कर देता है । (३) नकार की अनेक बार ( असकृत् ) आवृत्ति होने के कारण वृत्त्यनुप्रास अलंकार है । समृद्धि का वर्णन होने के कारण उदात्त अलंकार भी है।
घण्टापथ-अनेकेति । अयुग्मच्छदत्य सप्तपर्णपुष्पस्य गन्ध इव गन्धो यत्यासौ अयुग्मच्छदगन्धिः। 'सप्तम्युपमान'-इत्यादिना बहुव्रीहिरुत्तरपदलोपश्च । 'उपमानाच्च' इति समासान्त इकारः । नृपाणामुपायनान्युपहारभूता ये दन्तिनस्तेर्षा नृपोपायनदन्तिनां मदः । 'उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथोपदा' इत्यमरः । गज्ञामपत्यानि पुमांसो राजन्याः क्षत्रियाः । 'राजश्वशुराद्यत्' इति यत्प्रत्ययः। राज्ञोऽपत्ये जातिग्रहणादन् । रथाश्चाश्वाश्च रथाश्वम् । सेनाङ्गत्वादेकवद्भावः । अनेकेषां राजन्यानां रथाश्वेन संकुलं व्याप्त अनेकराजन्यरथाश्वसङ्कुलम् तदोयम् आस्थाननिकेतनाजिरं सभामण्डपाङ्गणं मशम् अत्यर्थम् आर्द्रतां पंकिलत्वं नयति । एतेन महासमृद्धिरस्योक्ता । अत एवोदात्तालङ्कारः । तथा चालंकारसूत्रम्-समृद्धिमद्वस्तुवर्णनमुदात्त' इति ।। १६ ॥
सुखेन लभ्या दधतः कृषीवलैरकृष्टपच्या इव सस्यसम्पदः । वितन्वतिक्षेममदेवमातृकाश्चिराय तस्मिन् कुरवश्चकासति ॥१७॥
अ०-चिराय तस्मिन् क्षेमं वितन्वति अदेवमातृकाः कुरवः अकृष्टपच्या इव कृषीवलैः सुखेन लभ्याः सस्यसम्पदः दधतः चकासति ।