Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Vibhar Mahakavi, Virendra Varma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 50
________________ नपल प्रथमः सर्गः ४७ अभिप्राय उद्यते। अण्यन्तावन्थायां ये कतृ कर्मणी तव्यतिरिककर्मान्तरसद्भावाटात्मनेपदं न भवति । यथा 'स्थलमागेहयति मनुष्यान्' इति । इह त्वण्यन्ता. वस्थायां कतृणां भृत्यानां णौ कर्मत्वमिति भवत्येत्रात्मनेपदमिति ।। १० ।। असक्तमाराधयतो यथायथं विभज्य भक्त्या समपक्षपातया । गुणानुरागादिव सख्यभीयिवान् न बाधतेऽस्य त्रिगणः परस्परम् ॥११॥ अ०-यथायथं विभज्य समपक्षपातया भक्त्या असक्तम् आराधयतः अस्य त्रिगणः गुणानुरागात् सख्यम् ईयिवान् इव परस्परं न बाधते । श-यथायथ ठीक-ठीक, समुचित रूप से, उचित प्रकार से । विभज्य विभाग (विभाजन) करके । समपक्षपातया = समान रूप (दृष्टि ) से तुल्य पक्षपात वाली । भक्त्या भक्ति से, प्रेम से, अनुराग से । असक्तम् = आसक्ति रहित होकर, किसी को भी व्यसन के रूप में न अपनाकर | आराधयतः = सेवन करते हुए । अस्य-इस (दुर्योधन) का। त्रिगण-तीन (धर्म, अर्थ, काम) का समूद, धर्म अर्थ-कामरूप पुरुषार्थ, त्रिवर्ग । गुणानुरागात् = (दुर्योधन के) गुणों के प्रति अनुराग होने से । सख्यम् = मित्रता को । ईयिवान् इव = प्राप्त हुआ जैसा । परस्परं = एक दूसरे को। न वाधते = बाधा नहीं पहुँचाता, पीड़ित नहीं करता, रुकावट ( व्यवधान ) पैदा नहीं करते ।। अनु०-यथोचित विभाजन करके समान पक्षपात वाले अनुराग से अनासक्त भाव से सेवन करते हुए इस (दुर्योधन) के तीन पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम) मानों उसके गुणों में अनुराग होने के कारण मित्रता को प्राप्त हुए से एक दूसरे को बाधा नहीं पहुँचाते ( रुकावट पैदा नहीं करते)। सं० व्या०-दुर्योधनः धर्मार्थकामरूपस्य त्रिवर्गस्य समानानुरागेण सेवन करोतीति प्रतिपद्यतेऽस्मिन्न श्लोके । अस्मिन् संसारे धर्मार्थकाममोक्षरूपाः चत्वारः पुरुषार्थाः विद्यन्ते । मोक्षरूपः चतुर्थः पुरुषार्थस्तु संसारिभिः सामान्यजनैः प्रायः न काम्यते । जनाः धर्मार्थकामरूपत्य पुरुषार्थत्रयस्यैव सेवनं कुर्वन्ति । यद्यपि एते त्रयः पुरुषार्थाः परस्परं विरोधिनः विद्यन्ते तथापि 'अस्मिन् समये धर्मः आचरणीयः अस्मिन् समये अर्थ: अर्जनीयः, अस्मिन् समये कामः सेवनीयः' एवं रूपेण एतेषां

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